Saturday, November 26, 2011

Announcement 5th Ayodhya Film Festival December 18 to 20, 2011

Announcement

5th Ayodhya Film Festival
December 18 to 20, 2011




Ayodhya Film Society, a non-sponsored non-profit event, started its journey in 2006, in remembrance of the sacrifice of Shaheed Ashfaqullah Khan and Pt. Ram Prasad Bismil. Our motto is "Awam ka cinema" (People's cinema). It is organised by the contribution of awam and for awam only.


We have so far successfully organised Awam ka cinema in Mau, Jaipur, Auriya, Etawah, Delhi, Kashmir and in many such big and small places, with main focus on rural folks and smaller towns. 

Awam ka Cinema (People's cinema) is an attempt to spread awareness, take action and bring a wave of change in society. This year, once again we aim to showcase a variety of films based on shared culture of sacrifices, glorious traditions and of common heritage.


The 5th ayodhya film festival will be oraganised at 3 venues. The tentative places are as follows: 

  • Guptar Ghat, Ayodhya
  • Manucha Girls PG College, Faizabad
  • KS P.G. College, Saket, Ayodhya

Entry for films in Awam ka Cinema is free.  Genre of the films can be Documentary, short films and animation.

Topics for the film are:

Human Rights, Civil Rights, Peace, Violence against Woman, Communal Harmony, Development Issues and other neglected issues.

Don't forget to include a poster, synopsis of the film, and a short bio of the Director and your contact address.

You can submit your films by 8th December, 2011 in CD/DVD at the address:

DIRECTORATE OF FILM FESTIVALS

320 SARYU KUNJ DURAHI KUWA

AYODHYA-224123 (UP)

09873672153

www.awamkacinema.org
Ayodhya Film Society Core Team:

Dr. Anil Singh, Advocate Ashok Sirivastav, Jalal Siddiqi, Sharda Dube, Mohd. Ismil, Sunil Amar, Dr. Rupesh Singh, Gufran Siddiqi, Abhishek Sharma, Shah Alam, Indrjeet Varma, Afaq, Anil Varma, Naushad Ahamad, Mohd. Irfan, Ashish Kumar, Shariq Naqvi,Vinit Maurya, Mohd. Shafiq and Gufran Khan.

 


Wednesday, August 17, 2011

मालेगांव धमाके, न्यायिक सांप्रदायिकता और इंडियन मुजाहिद्दीन

वक्ता- सुभाष गताडे, अजित साही, अनिल चमड़िया और मुज्तबा फारुक
स्थान- यूपी प्रेस क्लब, लखनऊ
समय- 11ः30 से 2 बजे तक
दिनांक- 21 अगस्त 2011, दिन रविवार

मित्रों,
    पिछले दिनों मालेगांव धमाकों  के दो हिन्दुत्ववादी आरोपियों को मुंबई की एक अदालत ने यह कहते हुए जमानत दे दिया कि वे भले ही षडयंत्र से वाकिफ थे लेकिन सिर्फ इस आधार पर ही उन्हें षडयंत्रकारी नहीं माना जा सकता जबकि वहीं दूसरी ओर पूरे देशभर में सिर्फ शक के आधार पर बहुत से मुस्लिम नौजवानों को जेलों में रखा गया है। जाहिर है न्यायपालिका का रवैया इस मुद्दे पर काफी खतरनाक हद तक सांप्रदायिक हो चुका है। वहीं आतंकवाद के मुद्दे का दूसरा पहलू यह भी उभरता जा रहा है कि इंडियन मुजाहिद्दीन के नाम पर लगातार मुसलमानों को उठाए जाने का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। इंडियन मुजाहिद्दीन क्या है किसका संगठन है या है भी की नहीं या एक राज्य प्रायोजित कागजी संगठन है, इस पर भी लगातार बहसें जारी हैं। कुछ संगठनों और बुद्धिजीवियों की तरफ से इस पर सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की भी मांग उठ रही है। इसी आलोक में एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। जिसमें नार्वे की घटनाओं के आलोक में हिंदुत्व के उजागर होते आतंकवादी षडयंत्रों पर भी परिचर्चा होगी।
निवेदक- मो0 शुएब (9415012666), अरुन्धती धुरु (9415022772), एसआर दारापुरी (9415164845), रुपरेखा वर्मा (9335905337), जावेद मोहम्मद (9936929000), रणधीर सिंह सुमन (9450195427), जहीर आलम फलाही (9450084200), एड0 अजमल, एड0 जमाल, पुष्पेंद्र कुमार सिंह, रवि शेखर (9369444528), एकता सिंह (9807380472), शाहनवाज आलम (9415254919), राजीव यादव (9452800752)।

Sunday, August 14, 2011

फर्जी एनकाउंटरों से हाई एलर्ट- JUCS

पिछले लंबे समय से स्वतंत्रता दिवस कई निर्दोष लोगों के अपनी जिंदगी से नाहक ही हाथ धो बैठने का भी दिवस बन गया है। जाहिर है इस बार भी कुछ लोग राष्ट्र की सुरक्षा के नाम राज्य द्वारा ‘चाक-चौबंद हाई एलर्ट’ सुरक्षा व्यवस्था की भेंट चढ़ जाएं। इस बात की संभावना इसलिए भी दृढ़ है कि स्वतंत्रता दिवस से एक हफ्ते पहले से ही संधिग्ध पत्रों की आवाजाही की खबरें सरकारी और मीडीयाई सूत्रों से आने लगी हैं कि फलां-फलां शहर और संस्थान आतंकियों के निशाने पर हैं। यानि भट्ठी गर्मानी शुरु हो गई है जिसमें सही समय पर कुछ लोगों को झोंका जा सकता है।
ऐसे में हम जेयूसीएस की तरफ से आम और खास तौर पर जनता के उस समूह और क्षेत्रों से, जिन्हें भारतीय राज्य एक आंतरिक शत्रु के बतौर चित्रित करने के चौसठ साल 15 अगस्त को मनाएगा, से अपील करते हैं कि वे देर रात या सुबह-सुबह अकेले कहीं न निकलें। अगर आपके किसी करीबी व्यक्ति के गायब होने का संदेह हो तो तुरंत राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग व मीडिया को तार, फैक्स और मेल से सूचित कर संबधित व्यक्ति के सारे तथ्य इकट्ठा करके स्थानीय थाने को रिपोर्ट करें। विशेष तौर पर जम्मू-कश्मीर, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, बांग्लादेश से लगे पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती जिले, नेपाल के सीमावर्ती यूपी-बिहार के क्षेत्र, और खासकर आजमगढ़, भटकल, कन्नूर, रांची और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल सहारनपुर, मेरठ, बरेली, रामपुर, मुरादाबाद और राष्ट्रीय राजधानी के एनसीआर क्षेत्र, दिल्ली के बाटला हाउस, जामिया नगर, जामा मस्जिद समेत पुरानी दिल्ली के क्षेत्र और मोदी के संपूर्ण गुजरात और उससे लगे महाराष्ट्र के बंबई और मालेगांव के लोगों से खास तौर से इस अपील पर अमल करने की गुजारिश है। 
जर्नलिस्ट्स यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (JUCS) शाहनवाज आलम, राजीव यादव द्वारा राष्ट्रहित में जारी। 09415254919, 09452800752।

Saturday, June 25, 2011

संदीप पर हमले से पत्रकार भी आक्रोशित

जर्नलिस्ट्स फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) आइसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और जेएनयू के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष संदीप सिंह पर कांग्रेसी गुंडों द्वारा हमले की तीखी निंदा करता है.संदीप सिंह रांची में कपिल सिब्बल की प्रेस कांफ्रेंस में समकालीन जनमत पत्रिका की तरफ से मौजूद थे। संदीप जनमत के लिए लिखते रहे हैं। उन पर किया गया हमला पूरे पत्रकार बिरादरी पर हमला है। जिसे कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। कांग्रेस के गुंडों की इस कार्रवाई के खिलाफ न केवल छात्र-नौजवान में आक्रोश है, बल्कि पत्रकार संगठन भी आक्रोशित हैं।
संगठन की ओर से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि एक केन्द्रीय मंत्री की मौजूदी में उन्हीं के पार्टी के गुंडों द्वारा छात्रों की निर्मम पिटाई ने सरकार की रवैये को स्पष्ट कर दिया है। देश को पहले पहल आपातकाल में ढकलने वाली कांग्रेस के नेता सत्ता में रहते हुए आज भी उसी दौर में जी रहे हैं। आपातकाल से ठीक एक दिन पहले संदीप सिंह और अन्य छात्रनेताओं पर किया गया हमला सरकार के गैरलोकतांत्रिक रवैये को दर्शता है।

द्वारा
विजय प्रताप / शाह आलम
09696685616

वोह ग्यारह साल से भूखी है!

शायद उन्हें सात बहने इसलिए कहा जाता है कि आम तौर पर इस देश में बेटियों और बहनों को तमाम जुल्मो सितम सहते हुए भी ख़ामोश रहने की जो आदत डाली गयी है वो आदत ये बहनें भी सीख लें ,और शायद ये आदत उन्होंने सीख भी ली है और हमने ये मान भी लिया है | अगर ऐसा नहीं होता तो लोकपाल के नाम पर अन्ना के अनशन और बाबा रामदेव द्वारा आम आदमी के स्वाभिमान को जगाने की मुहिम में पगलाई भीड़ भीड़ शर्मीला के हठ पर अपने होंठ सीए नहीं बैठती |इन भगिनी प्रदेशों से एक मणिपुर की इरोम आम आदमी और मानवीयता के खिलाफ पिछले ५३ साल से इस्तेमाल किये जा रहे भारतीय सेना विशेषाधिकार अधिनियम को हटाये जाने को लेकर 11 सालों से भूख हड़ताल पर बैठी है क्या उसके इस हठ तप को लेकर हमारा स्वाभिमान नहीं जागता? एक तरफ सत्ता खुलेआम उत्तर पूर्व में मानवाधिकारों को आर्मी के बूटों से रौंदवाने पर आमादा है दूसरी तरफ हम उम्मीद कर रहे हैं कि यही सरकार भ्रष्टाचार का खात्मा करके लोकप्रिय लोकतंत्र की स्थापना करेगी|क्या आप इसे ईमानदारी कहेंगे कि कलावती से लेकर भट्टा परसौल की कृष्णा तक को लेकर टेसुयें बहाने वाले भारत भाग्य विधाता खानदान से ताल्लुक रखने वाले राहुल गांधी ने आज तक शर्मीला के सन्दर्भ में एक बार भी अपनी जुबान नहीं खोली है |संसद में महिला आरक्षण के मामले में क्रिचदार साड़ी में भाषण देने वाली सोनिया ,शबाना ,सुषमा और अन्य महिला सांसद पिछले ११ वर्षों में शर्मीला को लेकर एक सवाल भी उठाने की जुर्रत नहीं दिखा पायी हैं ,मीडिया भीड़ और भाषा के आधार पर इतना बटा हुआ है कि उससे उम्मीद करना बेमानी है |ख़बरें वहीँ हैं जिनमे या तो भीड़ हो या जो भीड़ बटोरे |
भारतीय सेना विशेषाधिकार अधिनियम जो जम्मू कश्मीर के अलावा ,असम ,मणिपुर ,अरुणांचल प्रदेश ,मेघालय ,मिजोरम और त्रिपुरा में लागू है ने पिछले हफ्ते अपना एक और साल पूरा कर लिया ,यह कानून कांग्रेस और ख़ास तौर से नेहरु परिवार की देन है और इसमें और आपातकाल में कोई ख़ास अंतर नहीं है ,ख़ास तौर से इसका रूप और भी वीभत्स इसलिए है कि इसमें सीधे तौर पर न सिर्फ एक क्षेत्र और राज्य को अशांत घोषित कर उसे सेना को सौंप दिया जाता है बल्कि आम आदमी पर भी शासन करने का अधिकार सेना को दे दिया जाता है और निश्चित तौर पर आदिकाल से ये होता आया है कि जब कभी सेना बर्बर होती है तो उसका पहला शिकार महिलायें और फिर युवा होते हैं ,मणिपुर में भी यही हो रहा है कश्मीर में भी यही हो रहा है |दुखद ये है कि आहत होने के बावजूद यहाँ की महिलायें उफ़फ् तक नहीं कर सकती|गाँधी ,चेव ग्वेरा को अपना आदर्श मानने वाली इरोम जब ये कहती है कि क्या एक सभ्य समाज में इस कानून को स्वीकार किया जाना चाहिए ?तो उसका ये सवाल सिर्फ सरकार से नहीं होता ,देश की उस जनता से भी होता है जो खामोश ,रहने सहने और खुद से बाबस्ता जिंदगी जीने की आदि हो चुकी है |

बहुत ही अजीबो गरीब है कि अरुंधती के मामले में ताल ठोक कर हो हल्ला मचाने वाले तमाम वामपंथी शर्मीला के मामले में वैसी अधीरता नहीं दिखाते |अरुंधती खुद कश्मीर से लेकर छत्तीसगढ़ तक मानवाधिकारों की हत्या को लेकर हो हल्ला मचाती हैं लेकिन उनके एजेंडे से उत्तर-पूर्व गायब रहता है |साफ़ प्रतीत होता है कि शर्मीला के मामले को लेकर ये अजीबो गरीब चुप्पी किसी साजिश का हिस्सा है इस साजिश में कुछ हो चाहे न हो ,नेतृत्व के संकट से जुड़ा डर तो साफ़ नजर आता है ,अरुंधती और उन जैसे तमाम लोग जानते हैं ये स्वाभिमानी बहने अपना नेतृत्व किसी को नहीं देंगी ,और न ही वो तरीका अपनाएंगी जो अरुंधती जैसे लोग अपनाते हैं उनकी नेता कोई है तो शर्मीला है सिर्फ शर्मीला ,उनके लिए पल -पल मरती हुई |अब तक देश में जितने भी जनांदोलन हुए हैं ,लोगों ने जीते हुए किये हैं ,किसी ने मरते हुए कोई आन्दोलन नहीं किया ,इस एक बातसे शर्मीला का सत्याग्रह गांधी से भी महान हो जाता है ,मगर अफ़सोस है कि गोरों को तो गाँधी का सत्याग्रह झुकने पर मजबूर कर देता था ,लेकिन अपने देश में अपनी ही सरकार शर्मीला के इस सत्याग्रह पर ख़ामोशी से बैठकर तमाशा देखती रहती है ,और अलगाववाद के संभावित खतरे की दुदंभी बजा करके आफ्प्सा की धार और पैनी करती रहती है |

बाबा रामदेव के स्वास्थ्य की पल-पल खबर मिडिया में प्रसारित हो रही थी. उनके स्वास्थ्य बुलेटिन जारी किए जा रहे थे. सिर्फ नौ दिन के उपवास में उनके अंग-प्रत्यंगों पर होने वाले दुष्प्रभावों की चर्चा की जा रही थी. १० साल के उपवास से ,शर्मीला के लीवर-किडनी-ह्रदय पर क्या असर हुआ है…इस से किसी को सरोकार नहीं. इसलिए कि वो एक आम इंसान हैं?? यानि कि किसी आम इंसान को अपनी आवाज़ उठाने का कोई हक़ नहीं??
बहुत मुमकिन है इन दिनों बीमार चल रही शर्मिला की साँसें कभी किसी वक्त थम जाए ,कमोजर पड़ती जा रही उसकी हड्डियों को ढंकी त्वचा अब थकने लगी हैं ,शिराओं से होकर गुजरने वाले रक्त की रफ़्तार अब धीमी पद रही है ये बात दीगर है कि शर्मीला फिर भी मुस्कुरा रही है |ईश्वर न करे अगर शर्मीला को कुछ हुआ तो आने वाली पीढ़ी और मानवता शायद ही हम आम हिन्दुस्तानियों को कभी माफ़ कर पाए ,सत्ता अपना चरित्र नहीं छोड़ सकती ये तय है |सिर्फ अख़बारों में पैसे देकर महापुरुषों के नाम पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर देने और पुण्य तिथियाँ मनाकर खुद को राष्ट्रवादी साबित करने वाले हम आप गाँधी ,भगत सिंह ,चन्द्र शेखर और न जाने कितनो को खो चुके हैं ,अगर सत्ता का चरित्र जन -विरोधी है तो उसके खिलाफ संघर्ष कर रहे जननायकों के आवाज में आवाज मिलाना ही सच्ची देशभक्ति है अब इसमें हमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि मणिपुर समेत समूचे उत्तर -पूर्व में लोकतंत्र का जो स्वरुप में है वो पूरी तरह से जन ,जमीन और जंगल विरोधी है.


जनर्लिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस)
09873672153,07503000208,08802268097

Friday, June 17, 2011

दोषियों को सजा दो, निर्दोष पत्रकारों को रिहा करोः जेयूसीएस

नई दिल्ली, 17 जून। जर्नलिस्ट्स यूनियन फॉर सिविल सोसायटी जेयूसीएस
पत्रकारों पर बढ़ते आपराधिक व पुलिस हमलों की निंदा करता है। इस तरह के
हमलों के खिलाफ संगठन के लोग शनिवार को जंतर-मंतर पर धरना देंगे और काला
दिवस मनाएंगे।
जेयूसीएस की तरफ से जारी प्रेस विज्ञप्ति में हाल में मुंबई में पत्रकार
जे. डे की हत्या और दिल्ली में युवा पत्रकार कपिल शर्मा की अवैध पुलिस
हिरासत में निर्मम पिटाई को लोकतंत्र के खिलाफ बताया गया है। यह दोनों
घटनाएं साबित करती हैं कि पत्रकारों पर हमलें न केवल अपराधियों की तरफ से
हो रहे हैं बल्कि पुलिस और सत्ता प्रतिष्ठान भी ऐसे हमलों में पीछे नहीं
है। संगठन ने पिछले कई सालों से फर्जी मामलों में बंद उत्तराखंड के
पत्रकार प्रशांत राही, इलाहाबाद की सीमा आजाद, मुंबई के सुधीर धवले और
दिल्ली की अनु को भी तत्काल रिहा करने की मांग रखी है। संगठन का मानना है
कि यह पत्रकार सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लगातार लिखते रहने की
सजा काट रहे हैं, जिन्हें अविलंब रिहा किया जाना चाहिए।
जेयूसीएस ने पत्रकारों को हर तरह के हमलों से सुरक्षा की मांग की है। साथ
ही उन दोषी अपराधियों और पुलिसकर्मियों को दंडित करने की भी मांग की है
जो जे. डे की हत्या और कपिल शर्मा की निर्मम पिटाई में शामिल थे।

द्वारा जारी
शाह आलम / विजय प्रताप
09873672153 / 09696685616

Sunday, June 12, 2011

पत्रकार की पुलिस प्रताड़ना के खिलाफ बैठक

साथियों,

पूर्व में बिजनेस स्टैंर्डड से जुड़े रहे पत्रकार और आईआईएमसी (नई
दिल्ली) के पूर्व छात्र कपिल शर्मा को कल रात दिल्ली के तिमारपुर थाने की
पुलिस ने बुरी तरह से रात भर पीटा और थाने में बैठाए रखा। पुलिस कपिल को
एक झूठे मामले में फंसाने की कोशिश कर रही है।
इन सबके खिलाफ कपिल शर्मा को न्याय दिलाने के लिए आज शाम एक मिटिंग रखी गई है।
आप सभी पत्रकार साथियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्र-नौजवानों से
अपील है कि न्याय की इस लड़ाई में अपनी एकजुटता जाहिर करते हुए श्रीराम
सेंटर पर एकत्रित हों।

स्थान: श्रीराम सेंटर, मंडी हाउस, नई दिल्ली (नजदीकी मेट्रो स्टेशन मंडी हाउस)

समय: 12 जून, 2011, शाम 4 बजे

संपर्क: कपिल शर्मा - 07827242831
विजय प्रताप - 08826713707
वरुण शैलेश - 09717938007

निवेदक: आईआईएमसी पूर्व छात्रसंघ

Monday, May 23, 2011

Ayodhya Verdict: Affirmation of Hindu Majoritarianism

Ravi Kiran jain Senior Advocate,

The Ayodhya Judgment,based on the “Faith and belief of the Hindus”, has forsaken the established principles of law of evidence and cannot therefore be said to be based on a fair -trial.

Two judges out of three have specifically given a finding that the place of birth of Lord Rama was at the disputed site .According to the judgment of Justice Sudhir Agarwal :- “it is declared that the area covered by the central dome of the three domed structure i.e,the disputed structure being the deity of Bhagwan Ram Janmsthan and the place of birth of Lord Rama as per faith and belief of the Hindus belong to plaintiffs (suit no. 5) and shall not be obstructed and interferred in any manner by the defendants”

According to the judgment of Justice D.V.Sharma :- “a disputed site is the birth place of Lord Ram .Place of birth is a juristic person and is a deity .It is personified as the spirit of divine ,worshipped as the birth place of Lord Rama as a child .Spirit of divine ever remains present everywhere at all times for anyone to invoke at any shape or form in accordance with his own aspiration and it can not be shapeless and formless also.

For determining whether Ram idols will stay where they are ,the court framed an issue whether Ram was born at the disputed site ? Whether or not Ram was born at a particular place required evidence .It is impossible to prove the birth place of a particular person born centuries before by any evidence. .The court has held the disputed site to be birth place of Ram on the basis of “faith” “Faith” is not an “evidence” within the meaning of Evidence Act .

Much has been said criticizing the 6000 page Ayodhya Judgment on various aspects by eminent jurists .Many of them have expressed the view that “faith” cannot be the basis to determine a fact. One distinguished (Retd) Judge of Allahabad High Court Justice Kamleshwar Nath has however written in a column of Hindustan Times (Lucknow edition) dated 1st Nov 2010 that “faith is a fact as defined in the Indian Evidence Act,it is a state of mind recognized by law”. He expressed this view while adversely reacting to the speakers of the National Seminar in Lucknow on 30.10.10 in which the speakers expressed the view that ‘Ayodhya ,Mandir –Masjid’ dispute is "based more on faith than facts" and is therefore "extra -legal”. According to Justice Nath "These comments are based on ignorance, ‘they do not know that faith is a fact as defined in Indian Evidence Act 1872’.It is a state of mind recognized by law." It appears that the views expressed by Justice Nath and the finding given by two judgments of two judges of Ayodhya disputes are based upon the mis-reading of definitions of words ‘fact’ and ‘proved’ in sec 3 of the Evidence Act According to sec 3 of the Evidence Act ‘fact’ means the following:

"Fact" - "Fact" means and includes -

1. Anything, state of things, or relation of things, capable of being perceived by the senses;


2. Any mental condition of which any person is conscious.

And the word "proved" is defined in the Evidence Act as follows:-

“A fact is said to be proved when, after considering the matters before it, the Court either believes it to exist, or considers its existence so probable that a prudent man ought under the circumstances of the particular case, to act upon the supposition that it exists.”

It is thus clear that Justice Nath and the two judges deciding Ayodhya dispute have misconstrued the words , "any mental condition which any person is conscious" in the definition of "fact" in sec 3,by saying that “faith” is a “state of mind" and therefore 'faith' is a 'fact' as defined u/s 3 of the Evidence Act 1872 .They appear to have mis-interpreted the meaning of the word "consciousness” by equating it with “faith”. According to the new International "WEBSTER'S COMPREHENSIVE DICTIONARY" the meaning of the word 'faith' is given as "belief without evidence " and the meaning of the word "consciousness" in the dictionary is "the state of being conscious ;sensation; knowledge; any form of intellectual activity or its product in direct and convincing knowledge ,whether of external or internal objects”.

'Faith' and 'consciousness' are two different states of mind . Mental condition of which any person is "conscious " is a "fact" but a mental condition of a person having ‘faith’ cannot be ‘fact’ within the meaning of Sec 3 of the Evidence Act.

Mental condition is a fact but inference arrived at by a person by a process of ratiocination ,being not a mental condition of that person, is not a fact .(see page 22 and 23 of Law of Evidence by Ratanlal and Dhirajlal 22nd Enlarged edition 2007.

Since “faith” is “belief without evidence” according to its dictionary meanining,

how can a court give a finding that the people had such “faith” that Ram was born at the disputed site and how they came to acquire such faith, in what manner and since when? It was for the first time in the night intervening 22nd-23rd Dec 1949 that the statues of the deity Ram were placed surreptitiously in the mosque ,under the central dome .It was then that some Hindus started asserting their so called “faith” that it was the birth place of Ram and began to worship for the first time within the mosque and then obtained court order restraining Muslims to pray in the mosque .Can this fact be sufficient to hold that the disputed site was “birth place of Lord Rama as per faith and belief of Hindus” ?Obviously not.

Whether Masjid was built at the site of a Hindu Temple ?

The other finding which has been given by two of the three judges is that the Masjid was built at the site of a Hindu temple. None of the parties could lead any evidence on this issue and the finding is based solely upon the controversial report of the Archaeological Survey of India .

Paragraph 3672 and 3673 of the judgment of Justice Sudhir Agarwal read as follows : “ What lie underneath ? This question is of extreme complication ranging in a period of more than 500 years’ of history . No clear picture emerges from various history books etc. In fact ,the contemporary record did not answer the issues ,one or the other way ,with certainty……….Extraordinary situations demand extraordinary steps and strategy .In the peculiar circumstances ,this Court decided to appoint an Expert body for scientific investigation ,well recognized in the field of archaeology /history and ordered ASI to go for excavation at the site in question and submit report . The question formulated for ASI ,was “whether there was any temple/structure which was demolished and a mosque was constructed on the disputed site .”

It is thus clear that there was no evidence for “what lie underneath ?” It means there was no evidence to establish the fact of there ever being a temple .If excavation had not been ordered and ASI report had not been obtained the court had no option but to give a finding that there was no evidence of a temple being existing few hundred years ago .The order for excavation was passed on 5.3.2003, more than 10 years after the demolition in1992.If the mosque had not been demolished there would have arisen no question for excavation.

The idea to pass an order of excavation struck to the Court on 1.8.02 when the Court considered the observations of D Mandal archaeologist in his book “Ayodhya –Archaeology after demolition”, . Para 212 of the Judgment reads as follows:

“On 1.8.2002 , this Court referring to issues No. 1(b) (Suit-4), 14(Suit-5) and the reference made to the Hon’ble Supreme Court by the President of India , noticed that one of the basic issue engaging attention of the Court in these suits is “Whether there was a Hindu temple or any Hindu religious structure existed or the alleged Babri masjid was constructed after demolishing temple at the site in dispute”. Considering the observations of Sri D.Dhaneshwar Mandal ,Archaeologist in his book “Ayodhya –Archaeology after demolition” that sufficient archaeological material is available regarding temple –mosque prompting need for further excavation at Ayodhya ,this Court required the parties to give their views/suggestions ,why the disputed land be not allowed to be excavated by Archaeological Survey of India .Para 214 of the judgment reads as follows:

“The objections were considered and decided by Court’s order dated23.10.2002 .The relevant extract thereof is as under:

‘Having heard the learned counsel for the parties, we are of the opinion that we should get a report in regard to foundations, if any ,of any structure at the site in question .One of the issues in suit is whether there was any Hindu temple or any Hindu religious structure existed and the alleged Babri Masjid was constructed after demolishing such temple /structure at the site in question” .

It is extremely necessary to notice here that the objections were summarily disposed of by this order on23.10.2002 and excavation was ordered by order dated 5.3.2003 and report obtained. It may also be noticed here that on 23.10.2002 and 5.3.2003 when these orders were passed none of the three Judges’ who have delivered the final judgments on 30.8.2011, was a member of the bench.The bench was presided over by Justice S.N.Agrawal with Justice S.Rafat Alam and as two other Judges. Thereafter parties argued at length that the court had no power to order excavation. These arguments have been met now in the final judgement by Justice Sudhir Agrawal on which the other two judges including Justice S.U.Khan agreed.InPara 214 the judgement says:

“The question is whether the court has power to take this course without any of the parties requesting the court for tracing out the foundations on the disputed site……..The second question is why the Court should exercise its power suo-moto in the matter. The reasons are twofold-Firstly, to remove any suspicion or doubt as to the facts of the case which is in dispute and secondly to find out the truth regarding contentious truth laid by the party………The third question is why the Court should exercise its power at this stage when the evidence of all the parties have not closed as yet………………Lastly, it is contended that the report,if obtained , may not be very accurate and the exercise may be futile”. After putting all these questions to itself the Court answered these questions by observing: “As noted above, the plaintiffs of O.S No. 5 of 1999 have themselves relied upon the evidence in regard to excavation, leveling entrenches laid near the site of disputed areas. It would be appropriate that the matter may be thoroughly investigated to find out the truth”

.The finding given by the two judges out of three that the Masjid was built at the site of Hindu temple relying upon the controversial ASI report which was based upon excavations done during the BJP regime in the Centre was criticized by all concern. .The court did not take into account all the evidence contrary to this fact turned up by ASI’s own excavation : “The presence of animal bones throughout ,as well as the surkhi ,lime mortar (all characteristics of Muslim presence)ruled out the possibility of Hindu temple having been there beneath the mosque by the archaeologists .” says a statement jointly given by the following persons which has been published in Economic and Political Weekly of Oct 9, 2010.

Romila Thapar ,K.M.Shrimali ,D.N.Jha,K N Pannikkar ,Amiya Kumar ,Shireen Moosvi ,Jaya Menon,Irfan Habib ,Suvira Jaiswal ,Kesavan Veluthat ,D Mandal , Ramakrishna Chatterjee,, Aniruddha Ray ,Arun Bandopadhyay ,A Murali , VRamakrishna, Arjun Dev ,R C Thakran ,H C Satyarthi ,Amar Farooqui ,B P Sahu ,Biswamoy Pati ,Lata Sngh ,Utsa Patnaik ,Zoya Hasan ,Prabhat Patnaik ,C P Chandrashekhar ,Jyati Ghosh ,Archana Prasad ,Shakti Kak ,V M Jha , Prabhat Shukla , Indira Arjun Dev ,Mahendra Pratap Singh ,Ram Rahman,M K Raina ,Sohail Hashmi ,Parthiv Shah ,Madan Gopal Singh , Madhu Prasad ,Vivan Sundaram ,Geeta Kapur ,Rajendra Prasad ,Anil Chandra ,Rahul Verma ,Indira Chandrashekhar , Sukumar Muralidharan ,Supriya Verma ,N K Sharma , S Z H Jafri ,Farhat Hasan ,Shalini Jain ,Santosh Rai ,Najaf Haider ,R Gopinath ,R P Bahuguna , G P Sharma ,Sitaram Roy , O P Jaiswal ,K K Sharma .

These persons have demanded that the site notebooks, artefacts,and other material evidence relating to the ASI’s excavation s be made available for scrutiny by Scholars , historians and archaeologists .

By giving this findingt , the High Court has given a legal shape to the political agenda of the Sangh Parivar “Mandir wahin Banaenge” and has legitimized the Masjid demolition on 6th Dec 1992 giving them a way to construct a “Grand Temple” at the site of the demolished temple.The political campaign of sangh parivar appears to have influenced the judicial proceedings In the ordinary course ,the suit was to be tried by a Munsif .It was only in 1989 ,after the 5th suit had been filed and the two major political parties had already come in race with each other regarding Ram Janam Bhoomi ,that the suit was got transferred to High Court ,and that too to be tried by a bench of three Judges .Thereafter the composition of the bench went on changing because of retirement , elevation , transfers etc. of the Judges from time to time .

There used to be two Hindu Judges in the bench and one Muslim Judge .The first suit was filed on 16.1.1950 and the fifth and the last suit was filed on 1.7.89 .It was thereafter on 10.7.89 that the High Court transferred the suits to itself .It was obviously on account of the reason that the Mandir –Masjid controversy became a matter of high –profile politics ,that the suits were got transferred to the High Court to be tried by a bench of three Judges .From 1950 till 1989 ,4 suits remained pending before the Munsif and the Mandir –Masjid dispute remained confined only to be decided in the litigation in thelower court as it did not become part of agenda of political parties by then .It started becoming agenda of political parties after 1984 elections.

Justice S U Khan joined the bench by the order dated 21.12.09 of the then Chief Justice as Justice Rafat Alam (whom Justice S U Khan replaced) took oath as Chief Justice of Madhya Pradesh High Court on 20.12.09 .The name of Justice Rafat Alam for being appointed as Chief Justice of Madhya Pradesh High Court was cleared by the collegiums of the Supreme Court ,some time in Oct 2009. The Ayodhya matter had reached a concluding stage of hearing by that time .It was a matter of common knowledge in the corridors of the Bar that Justice Sudhir Agarwal had already dictated a substantial part of the judgment by then. Justice Rafat Alam took a view that as his name had been cleared for Chief Justice ship of another High Court,he would not continue to sit in the bench to hear the matter .There was no justification for him to take such a view .If he had not taken such a stand the suits could have been disposed of by the time he took oath as Chief Justice of Madhya Pradesh High Court on 20.12.09.

Justice S U Khan joined the bench with a handicap, that the other two judges had virtually heard the matter finally and had already made up their minds and also started dictating the judgments .At this stage ,hearing started afresh because ,it became a different bench ,although ,the other two judges still remained in the bench. In a situation like this, it is quite obvious that the re-hearing of all the counsel in all the suits, before a bench of three judges, out of whom the two judges had already heard the matter at great length, the third judge would not be able to cope up with the process of deciding independently and he would be influenced by the opinion already framed by the other two judges. This aspect is reflected in the following observations of the Judgment of Justice S U Khan.

“My judgment is short, very short. Either I may be admired as an artist who knows where to stop, particularly in such sensitive, delicate matter or I may be castigated for being so casual in such a momentous task. Sometimes patience is intense action, silence is speech and pauses are punches.

I have not delved too deep in the history and the archaeology. This I have done for four reasons. First, this exercise was not absolutely essential to decide these suits. Second, I was not sure as to whether at the end of the tortuous voyage I would have found a treasure or faced a monster (treasure of truth or monster of confusion worst confounded). Third, having no pretence of knowledge of history I did not want to be caught in the crossfire of historians. Fourth, the Supreme Court, in Karnataka Board of Waqf vs. Government of India, 2004 (10) SCC 779 has held in Para -8 as follows:-“As far as a title suit of civil nature is concerned, there is no room for historical facts and claims.”

It seems that Justice S.U.Khan was over conscious of his being a Muslim Judge ,in this Mandir –Masjid dispute .He also appears to have the apprehension that ,there may be violent agitations by one party or the other after the Judgment ,which is quite evident by the following observations in his Judgment .

“As this judgment is not finally deciding the matter and as the most crucial stage is to come after it I remind both the warring factions of the following. “The one quality which epitomized the character of Ram is tyag [sacrifice]. When Prophet Mohammad entered into a treaty with the rival group………”.

It appears that Justice S.U.Khan had to take a short cut on account of the aforesaid handicap. His over consciousness of being a Muslim Judge impelled him to make an appeal to the minority community which virtually amounts to suggesting them to accept that they are Second Class Citizens in a country where the Hindus are in Majority and therefore they should accept the Majority Verdict .This aspect is reflected in the following observations in his Judgment.

“Under the sub-heading of demolition, I have admired our resilience. However we must realize that such things do not happen in quick succession. Another fall and we may not be able to rise again, at least quickly. Today the pace of the world is faster than it was in 1992. We may be crushed. “Only those species survived which collaborated and improvised” Muslims must also ponder that at present the entire world wants to know the exact teaching of Islam in respect of relationship of Muslims with others. Hostility, peace, friendship, tolerance, opportunity to impress others with the Message, opportunity to strike wherever and whenever possible, or what? In this regard Muslims in India enjoy a unique position. They have been rulers here, they have been ruled and now they are sharers in power (of course junior partners).

They are not in majority but they are also not a negligible minority (after Indonesia, India has the highest number of Muslims in the world). In other countries, either the Muslims are in huge majority, which makes them indifferent to the problem in question, or in negligible minority, which makes them redundant. Indian Muslims have also inherited huge legacy of religious learning and knowledge. They are therefore in the best position to tell the world the correct position. Let them start with their role in the resolution of the conflict at hand.”

Over consciousness of Justice S U Khan and his feeling of short coming for joining the bench late is also reflected by the following observation of his Judgment:

“Before parting I thank Hon,ble the Chief Justice C.K.Prasad (now an Hon,ble Judge of Supreme Court ) for giving me the responsibility and providing opportunity to me to decide this historical case by inducting me in this Bench. We are also thankful to Hon,ble the Chief Justice H.L.Gokhale (now an Hon,ble Judge of Supreme Court )for inducting Hon,ble Sudhir Agarwal ,J in this bench who is extremely labourious , very upright and considerably balanced”.

The Race Between Two Major Political Parties

In 1984 Elections in which Rajiv Gandhi had a clean sweep, BJP could secure only 2 seats in Lok Sabha .The Sangh Parivar started a campaign for the construction of a magnificent Ram Janam Bhoomi Temple at the site and by 1985 built up a sizeable support in the Hindu Community.In January 1986, locks were removed from the mosque and Ram bhakts were permitted to offer prayers to Ram lala .It is said that the Prime Minister Rajiv Gandhi ordered the Chief Minister Veer Bahadur Singh to do so who got the District Administration to ensure this .The two major political parties BJP and the Congress started a race on pandering to communal Hindu sentiments .In 1988 ,Hindutva Organizations led by the RSS organized a mass campaign for building a grand temple exactly where the Mosque stood .They claimed that the Mosque stood at the precise site where Ram was born .By the time of the fifth and final suit was filed in July 1989 the political climate had changed beyond recognition

Union Home Minister Buta Singh signed an agreement with the VHP on 17th August 1989,that bricks for constructing the temple would be allowed to be brought from all over UP without hindrance and collected at the plot No. 586 near the mosque .This agreement was in violation of an order of the Allahabad High Court given on 14th August that no construction activity could be taken at that spot.

Later ,the VHP announced that ‘kar sewa’ would be performed to lay the foundation stone .This was also a violation of the judgment given two days ago,prohibiting any such activity .This repeated defiance ,of the orders of the court did not weigh with the Prime Minister who inaugurated the campaign of Congress Party the next day from twin city of Faizabad , and announced that the objective of the party was to establish Ram Rajya .Soon thereafter the BJP President Advani ,at Palampur ,after the National Executive Meeting ,announced that the inclusion of the construction of the temple in its Election Manifesto “would fetch votes “ for it .It would thus appear that the two major political parties were in a race on this issue.

“A new dimension was added to the campaign for the construction of the temple with the formation of the Government in Uttar Pradesh in June 1991 by the Bhartiya Janta Party (BJP) which declared its commitment to the construction of the temple………….The focus of the temple construction movement from October 1991 was to start construction of the temple by way of ‘kar-sewa’ on the land acquired by the Government in Uttar Pradesh while leaving the disputed structure intact.”has been noticed by( The Supreme Court in M.Ismail Farooqui’s case,(AIR 1995 SC 605)

“ The judgments delivered by the Lucknow Bench of Allahabad High Court on September 30 on the Babri Masjid cases not only flagrantly violate the law and the evidence but a binding unanimous judgment of the Supreme Court on the Babri Masjid case itself (M. Ismail Faruqui and Others vs Union of India and Others (1994)6 Scc 360. It sanctified the conversion of a historic mosque ,which stood for 500 years into a temple.” Says A.G.Noorani in his article “Muslims Wronged” in Oct 22 ,2010 issue of Frontline .

Noorani further says in the same article , “On the Babri Masjid ,for 60 years from 1950 to 2010, Muslims have been woefully wronged by every single court ruling ,including that of the Supreme Court after the demolition of the mosque on Dec 6, 1992”.

“The absence of any condemnation of the vandalism of the demolition of the Babri Masjid on Dec 6, 1992 is a conspicuous aspect of the Ayodhya verdict of the Allahabad High Court .” says T.R.Andhyarujina , an eminent jurist and Senior Advocate of Supreme Court in his article ( The Hindu )Oct 5,2010.

T.R.Andhyarujina further says in the same article : “The Ayodhya judgments of the Allahabad High Court make no note of the vandalism of Dec 6, 1992 .On the other hand ,they take the demolition as a fait accompli, as if the disputed 2.77 acre site was vacant land .After holding that the area beneath the central dome of the erstwhile Masjid must be allotted to Hindus because of their faith that Lord Ram’s place of birth was there ,and the areas covered by the Ram Chabutara and Sita Rasoi should be allotted to the Nirmohi Akhara ,the court has said that the remaining area of the disputed site should be divided , two-thirds to the two Hindu plaintiffs and one third to the Muslim plaintiff by metes and bounds .These judgments, therefore legalize and legitimize the 1992 demolition, as the decree of the court proceeds on the basis that there is no Masjid on the disputed site today .

It is an elementary rule of justice in courts that when a party to a litigation takes the law into its own hands and alters the existing state of affairs to its advantage,(as the demolition in 1992 did in favour of the Hindu plaintiffs ),the court would first order the restitution of the pre-existing state of affairs .”

It may be noticed here that the Supreme Court in its judgment of 1994 said of the demolition: “Within a short time, the entire structure was demolished and razed to the ground .Indeed, it was an act of ‘national shame’. What was demolished was not merely an ancient structure, but the faith of the minorities in the sense of justice and fair play of the majority .It shook their faith in the rule of law and constitutional processes”.

The Muslims today are once again feeling dismayed and betrayed by legitimization of the Masjid –demolition by the Ayodhya judgment .

The suits were transferred to the High Court to be tried by a Special Bench of three Judges in the wake of a high –profile campaign ,after the trial started in the High Court ,the profile became all the more high on subsequent developments ,starting from the demolition on 6th Dec 1992 followed by setting up of Librahan Commission and CBI Investigation and prosecutions of L.K.Advani and other big-wigs ,who even came into power in the Centre and many States ,while the investigations were still going on. But for this hype ,this Judgment instead of running into 6000 pages would may well have been given only in 6 pages .The two points which required verdict in these suits were:-

1. Was the place under Babri Masjid the birth place of Lord Ram.
2. Was there or not a temple on the land on which Babri Masjid was built.

Mr.Rajinder Sachar only 4 days before the verdict came i.e. on Sep 26 2010 ,in an article which was published in “JANATA” rightly said that it was impossible for any Court to give a finding about place of birth of Lord Rama and even if there was a temple on the land 400 years ago on which Babri Masjid was built ,the suit would be barred by time . He said in the aforesaid article:

“I say this in view of the precedent of the case of Masjid Shahid Ganj in Lahore decided by the Privy Council in (1940). In that case there was admittedly a Mosque existing since 1722 A.D. But by 1762, the building came under Sikh rule and was being used as a Gurdwara. It was only in 1935 that a suit was filed claiming the building was a Mosque and should be returned to Muslims.

The Privy Council while observing “their Lordship have every sympathy with a religious sentiment which would ascribe sanctity and in violability to a place of worship, they cannot under the Limitation Act accept the contentions that such a building cannot be possessed adversely” and then went on to hold “The Property now in question having been possessed by Sikhs adversely to the waqf and to all interests there under for more than 12 years, the right of the mutawali to possession for the purposes of the waqf came to an end under Limitation Act. “On the same parity of reasoning even if temple existed prior to the building of Masjid 400 years ago, suit by VHP etc has to fail”.

The controversy was thus concluded by Judgment of Privy Council in Masjid Shahid Ganj case and could have been decided by a Short Judgment.

India became Independent on 15th August 1947 .The idols were surreptitiously placed in Dec 1949 .The first suit was filed on 16.1.1950 .We became Republic on 26.1.1950 The first Parliamentary Elections took place in 1952. Looking back ,we find that the people of this country had an urge to participate in the political process ,and this was evident in the elections that took place till 1967 and then in 1977 and 1989 ,and even a common man could then hope to get elected ,because by that time poll politics had not come in the vicious grip of casteisation, communalization and criminalization.It was in 1989 ,when the 5th suit was filed and all the suits were transferred to the High Court that the Poll politics came in the vicious grip of Casteisation , communalization and criminalization.In1991 ,when the coffers were found empty ,the Government led by Narasimha Rao with Dr. Manmohan Singh as his Finance Minister threw the country into the debt trap of the World Bank under the guise of liberalization and economic “reforms”.All these gave rise to nexus between criminals ,unscrupulous politicians and corrupt bureaucrats.

After 1989 ,issues started becoming non-issues and non-issues became issues .There is a terrible economic in-equality ,disease ,illiteracy and human sufferings .Millions are exploited .We require a United India to restore our economic and political sovereignty and achieve the objectives contained in Part IV of the Constitution .

Monday, May 16, 2011

''अयोध्या विवाद : एक पत्रकार की डायरी''



अरविंद कुमार सिंहअरविंद कुमार सिंह
4 दिसंबर से ही पत्रकार विहिप की गिरफ्त में थे : नई दिल्ली 17 दिसम्बर। अयोध्या में काले रविवार यानि 6 दिसंबर को देशी-विदेशी प्रेस के साथ क्या कुछ घटा इसकी चर्चा अभी धीमी नहीं पड़ी है, अपितु इसमें नए-नए आयाम जुड़ते जा रहे हैं। पत्रकारों और छायाकारों पर संगठित हमले के लिए सभी लोग जिला प्रशासन से लेकर विहिप और भाजपा के प्रमुख नेताओं तक को गुनाहगार बता रहे हैं। वे गुनहगार हैं भी, क्योंकि उन्होंने ही हर पत्रकार की सुरक्षा का ठेका ले रखा था। सभी जानते हैं कि 7 दिसंबर तक अयोध्या विहिप शासित क्षेत्र हुआ रहा था, जहां कारसेवक राजा थे,जबकि बाकी सभी प्रजा। 
इन कारसेवकों ने 3 दिसंबर से ही पत्रकारों के साथ अपना बाहुबल दिखाना शुरु कर दिया था और कई पत्रकारों और उनके ड्राइवरों का गला जय श्रीराम का नारा लगाते-लगाते बैठ गया था। कारसेवक उनसे जबरदस्ती  नारा लगवा रहे थे। नारा न लगाने पर उनके साथ दुर्व्यवहार भी होता था। अयोध्या से 6 दिसंबर के हादसे के बाद अधिकतर पत्रकार और छायाकार वहां से वापस चले गए थे और उन्हीं के अनुभवों के आधार पर राष्ट्रपति और उ.प्र. के राज्यपाल के अलावा आम लोगों को यह पता चल सका कि अयोध्या में प्रेस के साथ क्या बीती है। पर अयोध्या के स्थानीय पत्रकारों तथा वहां मौजूद रहे बाहर के उन पत्रकारों के साथ अयोध्या में 6 दिसंबर के बाद भी क्या-क्या बीता, यह बात प्रकाश में नही आयी। व्यावसायिक दबाव और अन्य कारणों से बहुत से पत्रकारों को नितांत विपरीत परिस्थितियों में काम करना पड़ा। अयोध्या कांड के सबसे बड़े शिकार तो छायाकार और महिला पत्रकार बने थे। 3 से 15 दिसंबर के बीच मैं और अमर उजाला के हमारे कई और साथी अयोध्या-फैजाबाद में तैनात रहे थे। वहां अन्य तथ्यों के साथ प्रेस पर बीती घटनाओं का भी ब्यौरा भी हमने इकठ्ठा किया।
दरअसल 3 दिसंबर से ही पत्रकार अयोध्या में कारसेवकों के दुर्व्यवहार का शिकार बनने लगे थे। लेकिन तब तक बात सहनीय थी। 5 दिसंबर के सांयकाल रामकथा कुंज पर आयोजित जनसभा में अशोक सिंघल ने बी.बी.सी. लंदन के खिलाफ बाकायदा एक निंदा प्रस्ताव पास कराया। तभी से उग्र कारसेवकों को जैसे विदेशी पत्रकारों से दुव्र्यवहार करने का लाइसेंस सा मिल गया। संयोग से बी.बी.सी. लंदन के मशहूर पत्रकार मार्क टुली, रामदत्त त्रिपाठी एक साथ ही थे। मार्क टुली और हम लोग शताब्दी एक्सप्रेस से 3 दिसंबर को नयी दिल्ली से लखनऊ पहुंचे थे। शताब्दी एक्सप्रेस में जिस कोच में हम थे, उसमें एक टाइम बम बरामद हुआ जिसे पुलिस ने साहिबाबाद में निष्क्रिय कर दिया गया। इस बम के विस्फोट में चंद मिनट ही बाकी थे। उस समय लखनऊ से अयोध्या के लिए उपलब्ध ट्रेनें हो या बसें, सब पर कारसेवकों का ही कब्जा था। मार्क टुली या बाकी पत्रकार शताब्दी एक्सप्रेस में भले सकुशल निकले पर अशोक सिंघल के फतवे के बाद मार्क टुली अगर उग्र कारसेवकों के हाथ पड़ जाते तो उनकी हत्या हो सकती थी।
संयोग से मार्क टुली को देश भर से जुटी कारसेवकों की जमात में कम ही लोग पहचानते थे। इस कारण उनकी निगाह में हर विदेशी पत्रकार मार्क टुली बन गया था। तभी विदेशी पत्रकारों के साथ ही सबसे ज्यादा घटनाएं हुईं और कइयों का तो धन भी लूट लिया गया। दरअसल 6 दिसंबर के पूर्व बी.बी.सी. लंदन ने अयोध्या की स्थिति पर एक फीचर दिया था जिसमें 1990 में हुई अयोध्या की घटनाओं के फाइल फोटो भी दर्शाए गए थे। खास घटनाओं के समय ऐसे फाइल फोटो का उपयोग आम बात है। पर इसे देखने के बाद अहमदाबाद के एक विहिप समर्थक ने अशोक सिंघल को फोन पर बताया कि बी.बी.सी. में ऐसी स्टोरी चली है। आप उसका खंडन करें नहीं तो बवाल हो सकता है। बिना तथ्यों की जांच-पड़ताल किए अशोक सिंघल ने कारसेवकों को ललकार दिया। बी.बी.सी. के खिलाफ सिंघल का निंदा प्रस्ताव 5 दिसंबर को रामकथा कुंज पर दिए गए 4 बजे के भाषण में आया। मार्क टुली को उसी के आधे घंटे के बाद उग्र कारसेवकों ने धर लिया। वे पूरे दो घंटे तक बंधक की हालत में रहे तथा बाद में कुछ वरिष्ठ साधुओं और जिलाधिकारी की मदद से सुरक्षित निकल सके। 
6 दिसंबर की सुबह मैं 2.77 एकड़ क्षेत्र पर बने चबूतरे पर मार्क टुली के साथ घंटे भर था। उस समय उनका एक-एक पल सफाई देने में बीत रहा था। वे सबको यही समझा रहे थे कि उन्होंने कोई गलत खबर नही भेजी थी। जो फाइल फोटो चलायी गयी उसी से भ्रम खड़ा हो गया था। वहीं आरएसएस नेता कु.सी. सुदर्र्शन ने भी परिसर में मार्क टुली से बातचीत की और इस बात पर अफसोस जताया कि थोड़ी गलती दोनों ओर से हो गयी थी। बी.बी.सी. को पुरानी फोटो नहीं दिखानी चाहिए थी। उससे लोग घबड़ा गए थे और जगह-जगह से फोन आने लगे थे। यह बात इतनी बढ़ गयी कि देर रात मार्क टुली को अपनी फाइल की गयी पूरी स्टोरी अशोक सिंघल को दिखानी पड़ी। अशोक सिंघल का कहना था कि कल हम इस बारे में कारसेवकों के बीच सब कुछ साफ कर देंगे। लेकिन उनकी ओर से कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। इसी नाते 6 दिसंबर को सुबेरे परिसर में मार्क टुली से साधु-संत यही सफाई मांग रहे थे आप जैसे गंभीर आदमी ने ऐसी गलती कैसे कर दी ? 6 दिसंबर को विवादित ढंाचे तथा परिसर के इर्द-गिर्द देशी-विदेशी 300 के करीब छायाकार-पत्रकार और स्तंभकार बगैरह रहे होंगे।
इन लोगों में अमर उजाला के हमारे सहयोगी आशीष अग्रवाल (बरेली ), सुनील छइयां (मेरठ), भानुप्रताप सिंह(आगरा), त्रियुग नारायण तिवारी (अयोध्या) और ओंकार सिंह (कानपुर) और मैं एक साथ थे। हमारे कुछ और साथी भी इर्द-गिर्द थे। करीब 11.30 बजे के करीब हमें भूख लगी तो आशीष अग्रवाल और सुनील छइयां के साथ मैं हनुमानगढ़ी की गली की ओर रवाना हुआ। पर आसपास उमड़ रही भीड़ और बढ़ रहे तनाव को देख कर सुनील बीच से ही लौट गए। तय हुआ कि उनके लिए हम खाने का कुछ सामान साथ लाएंगे। वहां उस दिन प्राय: दुकानें बंद थी। हनुमानगढ़ी के पास ही एक चाट की दुकान से हमने कुछ खाना शुरू ही किया था कि भगदड़ सी मची दिखी। फैजाबाद के अतिरिक्त जिला अधिकारी यू.सी. तिवारी भी दौड़ते चले आ रहे थे। अयोध्या में उनको ए.डी.एम. रामलला के नाम से जाना जाता है। वहां से हम तत्काल राम जन्मभूमि न्यास कार्यालय की ओर से होकर मानस भवन की तरफ बढ़े, ताकि वस्तुस्थिति को आंखों से देख सकें और गोलीबारी होने की स्थिति में भी सुरक्षित रह सकें। उस समय लोग गुबंद पर चढ़ रहे थे और भाजपा-विहिप के नेता कारसेवकों को उतारने के लिए लाउडस्पीकर से अनुरोध कर रहे थे। पर कारसेवक किसी की सुन नहीं रहे थे। ढांचे पर जहां कारसेवकों ने हमला कर दिया था वहीं साथ ही पत्रकारों की पिटाई भी शुरू चालू थी। पीटने और लूटने वाले यह भी नही देख रहे थे कि प्रेस का कार्ड लगाए लोगों में वे उनको भी पीट रहे हैं, जो भाजपा-विहिप और संघ के सहयोगी अखबारों के संवाददाता हैं। पांचजन्य के मुख्य संवाददाता सुभाष सिंह के साथ भी ऐसा ही घटा। पत्रकारों के गायब सामानों और लूटपाट की सूची तो बहुत लंबी होगी।
लेकिन राम जन्मभूमि न्यास द्वारा जारी प्रेस का बिल्ला लगाए पत्रकारों में शायद ही कोई रहा हो जो न पिटा हो। मानस भवन की छत पर आशीष अग्रवाल तो चढऩे में सफल रहे लेकिन मैं फंस गया। वहां कारसेवक सीढिय़ों पर एक दक्षिण भारतीय फोटोग्राफर का बैग लूट कर कैमरा छीनने की कोशिश कर रहे थे। मैंने बीच-बचाव करके उसे छुड़ाना चाहा तो वे मुझ पर यह कहते हुए टूट पड़े कि इसका रिश्तेदार भी आ गया है, इसे न छोडऩा। इसी दौरान फोटाग्राफर भाग निकला। तभी हमारे साथी आशीष छत पर बंद पड़े दरवाजे को खुलवा कर लौटे और मुझे अपने साथ यह कह कर वापस ले गए कि यह भी प्रेस के ही हैं, आने क्यों नहीं देते। संयोग से मेरा प्रेस कार्ड मिल नहीं रहा था।  मानस भवन की छत से नीचे और सामने गुबंद पर जो तूफान दिख रहा था, उसकी अभिव्यक्ति करने लायक शब्द नहींं मिल रहे हैं। ढांचे के साथ ढह रहे पत्रकारों की भी कमी नहीं थी। कुछ कैमरे तो मानस भवन की छत से भी फेंके जा रहे थे। इस घटना के दौरान हमें अपने सहयोगी सुनील छइयां की विशेष चिंता हो रही थी, पर कुछ नुकसान उठा सुनील छइयंा ने बहादुरी से इन गुंडों का मुकाबल किया और निश्चिंत भाव से  मानस भवन तक आ पहुंचे।
आगरा के हमारे साथी भानुप्रताप सिंह के लिए यह अयोध्या का प्रथम दर्शन था। वे यहां की गलियों से अनजान थे। पर घटना के तत्काल बाद वे गुपचुप यहां से निकल गये और अमर उजाला, आगरा के दफ्तर में फोन करके 12.30 बजे तक का सारा ब्यौरा भी नोट करा दिया। लेकिन वहां उन्हें शिवसेना के कुछ हथियारबंद लोग मिले जिन्होंने धमकी दी कि शाम तक कोई खबर भेजी गयी तो ठीक नहीं होगा। इसके बाद में हम अपनी गाड़ी की तलाश में हम काफी भटके और फिर एक लंबा रास्ता पकड़ कर कोई 7 कि.मी. का सफर तय करके लौटे। राह में भी कई जगह लूटपाट हो रही थी। हमारी गाड़ी का मुस्लिम ड्राइवर ढांचे पर हमले के बाद ही वहां से भाग गया था। उस गाड़ी में हमारे गर्म कपड़े थे। समय याद नहीं कि हम अपने ठिकाने पर कब पहुंचे। थोड़ी ही देर में हमारे साथी ओंकार यह खबर लेकर पहुंचे कि कारसेवकों ने तीसरा गुंबद भी गिरा दिया है।
पत्रकारों की ओर से राष्ट्रपति को ज्ञापन देने के पहले भी बहुत सी खबरें अखबारों में छप चुकी हैं। लेकिन कुछ सवाल अभी भी अनुत्तरित है तथा कुछ भ्रम भी जिनमें (1) क्या कुछ छायाकारों ने कारसेवकों को ललकारते हुए यह कहा कि ढांचे पर नहीं चढोगे तो फिर बढिय़ा फोटो कैसे बनेगी ? (2) क्या पीएसी के कुछ जवानों ने (जो ढांचे की सुरक्षा के लिए तैनात थे) कारसेवकों के पथराव के बाद सुरक्षा से बगल होते हुए छायाकारों और पत्रकारों की ओर इशारा किया और कहा कि हम तो तुम्हारी मदद कर रहे हैं, लेकिन यह लोग ही हमारी नौकरी ले लेंगे। तभी वे पत्रकारों और फोटोग्राफरों की ओर मुखातिब हो गए। लेकिन इन दोनों अफवाहों पर यकीन नहीं किया जा सकता है। विहिप-भाजपा  के लोग पत्रकारों पर हमले और लूटपाट का जिम्मेदार किसे ठहराएं,यह 10 दिसंबर तक तय नहीं कर सके। पत्रकारों के प्रेस पास राम जन्मभूमि न्यास की ओर से जारी हुए थे। न्यास के अध्यक्ष रामचन्द्र दास परमहंस और उपाध्यक्ष नृत्यगोपाल दास ने 10 दिंसबर को देशी-विदेशी पत्रकारों पर 6 दिसंबर को हुए हमलों की माफी मांगी। इसके बाद औरों ने भी माफी मांगी। पर पत्रकार अभी तक इस नतीजे पर नहीं पहुचें यह हमला सुनियोजित था या अकस्मात। चूंकि अभी तक एक भी कैमरा या सामान की रिकवरी नहीं हो सकी हैं, ऐसे में यह तो साफ है कि यह सब अपराधी किस्म के लोगों का काम है। पर कुछ ऐसे वरिष्ठ पत्रकार भी हैं, जिन्हें यह सुनियोजित लगता है। अयोध्या के वरिष्ठ पत्रकार त्रियुग नारायण तिवारी कहते हैं प्रेस पर हमले बाकायदा एक संकेत के तहत हुए। ढांचा ढहाने की योजना बनाने वालों ने प्रेस के लिए भी एक दस्ता बना रखा था और वे ही कैमरे तोडऩे, पत्रकारो को पीटने और उन्हें बंधक बनाने के साथ अयोध्या में टेलीफोन के तार काटने में लगे थे, ताकि खबर तत्काल बाहर न जा सके।
प्रेस पर हमले का प्रत्यक्ष दोषी तो विहिप का अपना मीडिया सेंटर है जिसने इस बार कवरेज में पत्रकारों को परेशानी न हो, इसके मद्देनजर राम जन्मभूमि न्यास की तरफ से प्रवेश पत्र जारी किया था। बिना इसके प्रवेश नहीं हो सकता था। हर पत्रकार को वह परिचय पत्र डिस्प्ले करना था। जिसा प्रशासन को भी पता था कि यहां बड़ी संख्या में विभिन्न प्रांतों के साथ विदेशी पत्रकार भी पहुंचे हैं। फिर भी उनकी हिफाजत का काम उन्होंने पुलिस को नहीं सौंपा। विहिप के लोग यह दर्शाते रहे कि उनकी ही छत्रछाया में पत्रकार सुरक्षित हैं। घटना के हफ्ते भर बाद 12 दिसंबर को न्यास के मीडिया सेंटर के निदेशक रामशंकर अग्निहोत्री  का बयान आया कि निश्चय ही इस घटना मे अपराधी तत्वों का हाथ था, जो अनियंत्रित होकर मानस भवन की पत्रकार दीर्घा में जबरन घुसे। विहिप तथा संघ परिवार इससे दुखी है। उनका कहना है कि चूंकि उस दिन पत्रकारों को न्यास ने आमंत्रित किया था, लिहाजा न्यास अपने दायित्व बोझ से मुक्त नहीं हो सकता। लेकिन विहिप को कवर करने वाले पत्रकार जानते हैं कि न्यास तो एक मोहरा है और इसको नाहक दोषी ठहराने का षडयंत्र रचा जा रहा है। मुख्य दोषी तो विहिप के नेता और उनके आमंत्रण पर अयोध्या पहुंचे कथित कारसेवक हैं जिन्होंने कारसेवा में लूट-डकैती के साथ महिला पत्रकारों से अभद्रता और छेड़छाड़ तक का काम किया है।
प्रेस ने जो भोगा, उसका अर्धसत्य ही सामने आया
नई दिल्ली, 18 दिसम्बर : अयोध्या कांड में प्रेस के साथ जो सलूक हो चुका है, उसकी अनदेखी करते हुए मीडिया के लोग ही दो हिस्सों में बंट चुके हैं। दो बड़े पत्रकार संगठनों में एक-दूसरे के आरोपों को गलत ठहराने की होड़ लगी है। अयोध्या में  प्रेस के साथ क्या गुजरा, वह कुछ लोगों को अतिरंजित लग रहा है, जबकि कुछ लोग पत्रकार संगठनों के आंदोलन के तौर-तरीकों से असहमत हैं। इसी कारण अयोध्या में प्रेस के साथ जो कुछ घटा है, उसका अर्धसत्य ही सामने आ सका है। दरअसल, अयोध्या में जो पत्रकार उस समय मौजूद थे, वे यह इसाइनमेंट लेकर नहीं पहुंचे थे कि उन्हें अयोध्या में पत्रकारों की पिटाई पर लिखना है। उस दिन अयोध्या-फैजाबाद में एक साथ इतनी घटनाएं हुई थीं कि साधन संपन्न 20 लोगों का ब्यूरो भी पत्रकारों की व्यथा के मुद्दे पर स्टोरी नहीं बना सकता था। जब दुनिया की उस दिन की सबसे बड़ी खबर अयोध्या बन गयी थी तो पत्रकार अपने पर बीती को खबर भला कैसे बना सकते थे?
वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में देखी-विदेशी पत्रकार 7 दिसंबर को इस सूचना पर होटलों से चेकआउट करा कर लखनऊ की ओर रवाना हो गए कि कारसेवकों का एक जत्था पत्रकारों पर धावा बोलने आ रहा है। हमारे पास दो गाडिय़ां थीं फिर भी कारसेवकों के आतंक के नाते हम लोग साधन विहीन होकर अयोध्या में  6 दिसंबर की रात भर पड़े रहे और फैजाबाद के अपने होटल शान-ए-अवध तक नहीं पहुंच सके। अयोध्या से बाहर कहीं फोन भी नहीं मिल रहे थे। प्राय: पत्रकारों के घरवालों ने दफ्तर में पहुंची स्टोरी के आधार पर ही कयास लगाया कि वे सुरक्षित हैं। आनंद बाजार पत्रिका और टेलीग्राफ के दिल्ली कार्यालय के प्रमुख छायाकार जगदीश यादव की 6 दिसंबर की बाबरी मस्जिद ध्वंश से संबंधित दो फोटो रीलें मेरे पास थी। जब पत्रकार-छायाकार वहां पिट रहे थे, तो पड़ोस की एक झाड़ी के पास से जगदीश यादव निकले और रेशान हो रहे थे। हमारे सहयोगी सुनील छइयां ने जोखिम लेकर जो रील बनाई थी, उसे लखनऊ भेजना भी जटिल समस्या थी। इस काम के लिए सुबह जो गाड़ी हम तय करके लाए थे और विवादित ढांचे के पीछे जिसे खड़ा कराया था, उसमें हमारे कानपुर कार्यालय के एक सहयोगी बैठे थे। गाड़ी का ड्राइवर और हमारे सहयोगी दोनों वहां से ढांचे की तोडफ़ोड़ के साथ भाग खड़े हुए, क्योंकि पत्रकार सामने पिट रहे थे पीछे उनकी गाडिय़ां टूट रही थीं। मुश्किल से एक गाड़ी जुटाकर हम ओंकार सिंह को लखनऊ रवाना कर सके। तब तक अयोध्या-फैजाबाद में कफ्र्यू लग चुका था। ओंकार सिंह लखनऊ से 7 दिसंबर की शाम तक बड़ी मुश्किल से फैजाबाद वापस पहुंचे। मैं खुद अयोध्या-फैजाबाद के सरहद पर खड़ी प्रेस की एक गाड़ी में, जिसमें पहले से ही ड्राइवर समेत सात लोग सवार थे, उससे लिफ्ट लेकर फैजाबाद पहुंचा, ताकि अपने सहयोगियों का कफ्र्यू पास बनवा सकूं।
प्रशासन यहां प्रेस को कितना सहयोग दे रहा था, यह इसी से साबित है कि रात में आदेश जारी होने के बाद भी कफर््यू पास 8 दिसंबर की दोपहर तक बन कर हमारे पास पहुंचा। प्रशासन ने कफ्र्यू के  दौरान उन पत्रकारों के लिए जरुर छूट दे दी थी जिनके पास पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) भारत सरकार या राज्य सरकारों के प्रेस मान्यता कार्ड थे। लेकिन कई सुरक्षा जवान इन कार्डो को भी मान नहीं रहे थे। नए कलेक्टर और कमिश्नर की प्रेस से पहली मुलाकात 8 दिसंबर की शाम को जब पीआईबी की अधिकारी स्वतंत्रा राधाकृष्णन की सलाह पर हुई, तो पत्रकारों ने सबसे अधिक हल्ला कफर््यू पास को लेकर ही मचाया। न्यूज ट्रैक की कैमरा तथा काफी सामान गंवा बैठी टीम के कुछ सदस्यों ने कमिश्नर को बताया कि उन्होंने जो एफ.आई.आर. लिखवायी थी उसकी कापी तक हमें अभी नहीं मिली है। प्रेस को यहां केवल एक ही जगह ऐसी दिखी, जहां उनके लिए सम्मानजनक व्यवस्थाएं विद्यमान थीं। वह था फैजाबाद का केंद्रीय तार घर है। वहां प्रेस रुम से लेकर काफी इंतजाम थे।
अयोध्या में पत्रकारों और छायाकारों ने जिस आतंक और असुरक्षा में समय बिताया, वह दिल्ली और लखनऊ में सुनाई गई पत्रकारों की व्यथा से बहुत अधिक है।  जिन होटलों में पत्रकार ठहरे थे, वहां खतरा होने के बाद भी एक सिपाही तक तैनात करने की बात प्रशासन के दिमाग में नहीं आयी। प्रेस और प्रशासन में यहां इतनी गहरी संवादहीनता थी कि फैजाबाद में प्रशासन क्या करने जा रहा है, यह जानकारी अयोध्या में पत्रकारों को लखनऊ की खबरों को पढऩे के बाद मिलती थी। इन सबसे इतर जिससे पत्रकार किसी सुरक्षा की उम्मीद कर सकते थे, वह उ.प्र. पुलिस थी। लेकिन वह तो खुद ही पत्रकारों को पीटने के लिए कारसेवकों को उकसा रही थी। इसी नाते कई पत्रकारों को कारसेवकों का भेष बना कर रामनामी दुपट्टा धारण कर भागना पड़ा। पत्रकार क्यों पिटे ? इसके लिए अगणित कहानियां और किस्से अब तक गढ़े जा चुके हैं। एक कहानी मार्क टुली और कुछ विदेशी पत्रकारों को लेकर उछाली हुई है। यह कि वे बिस्कुट उछाल कर कारसेवकों का भिखारी-सा पोज लेना चाहते थे। इसी से स्वाभिमान के चक्कर में पत्रकारों की पिटाई शुरु हो गई, लेकिन जो मार्क टुली को जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि वे किसी भी भारतीय पत्रकार से अधिक भारतीय हैं और यहां के लोगों और परंपराओं तथा रीति-रिवाजों को तो गहराई से जानते ही हैं और स्थानीय कई बोलियों का भी उनको ज्ञान है। पर कहानी गढऩे से रोक कौन सकता है? गनीमत है मामला बिस्कुट तक है। पर दुव्र्यवहार का अंत 6 दिसंबर को ही नहीं हुआ। यह आगे भी जारी रहा।
डेकन क्रॉनिकल की पत्रकार प्रभा, जनमोर्चा की सुमन गुप्ता, वरिष्ठ पत्रकार सुश्री रुचिरा गुप्ता, स्वतंत्र भारत की सरिता सिंह समेत कई महिला पत्रकारों पर भी कारसेवकों का कोप बरपा। इन्होंने किसी का क्या बिगाड़ा था? कुछ महिला पत्रकारों के साथ ऐसी बदसलूकी हुई कि अगर आम दिनों में हुई होती तो शायद ऐसा करने वालों को अयोध्या के स्थानीय लोग मार ही डालते। पर कारसेवकों की बदतमीजी के आगे सभी चुप थे। कई विदेशी-देशी पत्रकारों और छायाकारों की कम से कम सवा करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ है और 50 पत्रकारों-छायाकारों की बुरी तरह पिटाई हुई है। जो मौके की नजाकत देख भागने में सफल रहे, वे ही पूर्णतया सलामत हैं। किसका कैमरा छिना, किसकी घड़ी और पर्स, ये बातें तो प्रकाश में आ ही गई हैं।  पर अयोध्या के वरिष्ठ पत्रकार वी.एन. दास से लेकर कृपा शंकर पांडे और त्रियुग नारायण तिवारी किस हालात में काम कर रहे थे या अयोध्या फैजाबाद के पत्रकारों पर क्या बीती यह किसी को क्या पता?  फैजाबाद अंचल कार्यालय में नेशनल हेराल्ड के ब्यूरो प्रमुख कृपाशंकर पांडे कहते हैं कि 30 साल से अधिक की पत्रकारिता में उन्होंने कभी न ऐसी घटना देखी है और न सुनी है। यह सब बड़े-बड़े नेताओं की मौजूदगी में घटा। श्री पांडे को सहयोग देने लखनऊ कार्यालय से कौमी आवाज के संवाददाता ओबैदुल्ला नासिर, नेशनल हेराल्ड के पी.के. दामोदरन और मुख्य फोटोग्राफर नैयर जैदी के साथ 6 दिसंबर को जो बीती उससे वे इतना आतंकित थे कि 7 दिसंबर को अयोध्या ही नहीं गए। इनकी पिटाई हुई और कैमरा तोड़ दिया गया। श्री पांडेय ने जब हेराल्ड के महाप्रबंधक  से कहा कि वे कहीं नजर नहीं आ रहे हैं तो उनका जवाब था कि आप ही जो कुछ रिपोर्ट कर सकें वही ठीक है, वे लोग बेहद डर गए हैं।  
विहिप की हिटलिस्ट में शामिल फैजाबाद के अखबार जन मोर्चा की वरिष्ठ पत्रकार सुश्री सुमन गुप्ता का कैमरा छीन लिया गया और उनके साथ दुव्र्यवहार हुआ। इसी तरह अमृत प्रभात इलाहाबाद के फोटोग्राफर एस.के. यादव द्वारा खींची गई रील को कब्जे में लेने के लिए कारसेवकों ने उनकी आयातित जैकेट का चीथड़ा कर डाला। 7 दिसंबर को भी कैमरा रील वीडियो कैमरा छीनने की घटनाएं घटीं। लालकृष्ण आडवाणी के आगमन पर भी कुछ पत्रकार अकबरपुर में भी पिटे, जबकि 12 दिसंबर को वीडियो फिल्मांकन को लेकर फैजाबाद जिला अस्पताल में दो लोग कारसेवकों की चपेट में आए। अयोध्या में पत्रकारों पर क्या बीती, यह पता राम जन्मभूमि थाने से नहीं लग सकता। फिर भी अयोध्या जांच आयोग और भारतीय प्रेस परिषद अगर वास्तव में इन घटनाओं की तह में जाना चाहते हैं, तो उसका काफी ब्यौरा फैजाबाद के तीन मुख्य होटलों में ठहरे पत्रकारों के पते और अखबारों के मार्फत मिल सकता है। अयोध्या में भारतीय प्रेस परिषद को मलबा भी नहीं मिलेगा। उसे भी वे राम भक्त उठा ले गए हैं, जिनके सबसे बड़े शत्रु पत्रकार थे। क्या आयोग भविष्य के लिए कुछ ऐसा पुख्ता बंदोबस्त कराने में मददगार हो सकेगा जिससे दोबारा ऐसी घटनाएं न घटे। इस कांड में केवल विहिप दोषी हैं और प्रशासन साफ-सुथरा, ऐसा भी नहीं है? गलतियां दोनो तरफ से हुई हैं। पर देखना यह है कि सजा किसे मिलती है? जहां तक पत्रकारों का सवाल हो तो जिसने अयोध्या में यह सब देखा है, उन्हें यह मंजर जिंदगी में कभी भूलेगा नहीं। 
(वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह की किताब ''अयोध्या विवाद : एक पत्रकार की डायरी'' से साभार)

Wednesday, May 11, 2011

es press note ko jari karen


छात्रों की हालत खराब,विश्वविद्यालय प्रशासन लापरवाह

नई दिल्ली 11 may। भूख हड़ताल पर बैठे जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय के   मास कम्यूनिकेशन छात्रों की हालत खराब होने लगी है। इस बाबत छात्रों ने आज वीसी नजीब जंग,प्रधानमंत्री कार्यालय और मानव संसाधन विकास मंत्री को फैक्स भेजा। छात्रों का कहना है कि भूख हड़ताल पर बैठे छात्रों की हालत खराब हो रही है लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन इस पूरी घटना पर लापरवाह रवैया अख्तियार किए हुए है। वीसी ने अब तक छात्रों से कोई भी सकारात्कम बातचीत नहीं की है। ऐसे में अगर छात्रों को कुछ होता है तो उसकी सारी जिम्मेदारी विश्वविद्यालय प्रशासन की होगी। आपको बता दें कि मास कम्यूनिकेशन की परीक्षा में शामिल होने देने की मांग को लेकर पिछले पांच दिनो से भूख हड़ताल पर हैं। छात्रों को कक्षा में कम उपस्थिति के चलते परीक्षा से वंचित कर दिया गया है।

हड़ताल पर बैठे छात्रों की हालत ठीक नहीं है। विश्वविद्यालय प्रशासन उपस्थिति के तमाम नियमों को बताकर छात्रों को परीक्षा से वंचित करने पर तुला हुआ है। उपस्थिति कम होने की स्थिति में मेडिकल सर्टिफिकेट जमा करने पर परीक्षा में शामिल होने का प्रावधान है लेकिन विश्वविद्यालय किसी भी तरह के प्रमाण पत्र को स्वीकार करने से इंकार कर रहा है।

विश्वविद्यालय प्रशासन छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करने पर अड़ा हुआ। इसबीच इस मामले में कुछ छात्र-छात्राएं और पत्रकार संगठन, जनर्लिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) के सदस्यों ने मंगलवार  को प्रधानमंत्री कार्यालय, केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल और  विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष प्रोफेसर वेद प्रकाश को मिलकर बात चित कर मांगपत्र  सौंपा।

वीसी को भेजी चिट्ठी

प्रतिष्ठा मे, 

श्री नजीब जंग

कुलपति, जामिया मिल्लिया इस्लामिया

नई दिल्ली

महोदय,

आपको सूचित करना है कि  मास कम्यूनिकेशन छात्र पिछले पांच दिनों से अनिश्चितकालीन भूख हडताल पर बैठे हुए हैं लेकिन आपकी हठधर्मिता के कारण इन छात्रों का स्वास्थ्य हर पल बिगडता ही जा रहा है.

जेयूसीएस आपको इस पत्र के माध्यम से बताना चाहता है कि यदि किसी भी हडताली छात्र के साथ कुछ अनहोनी होती है तो उसके लिए आप व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होंगे।

साभार
जेयूसीएस

 
प्रति,
PMO ,HRD minister,sec.DCP south delhi
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shah alam
09873672153
http://www.jucsindia.blogspot.com/

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Journalist's Union for Civil Society (JUCS)
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Monday, May 9, 2011

पत्रकारिता पाठ्यक्रम को क्लास के दायरे से बाहर करो, सामाजिक बनाओ


विश्वविद्यालय प्रशासन की तानाशाही के खिलाफ आंदोलन और भूख हड़ताल कर रहे छात्रों ने कुलपति नजीब जंग के सामने अपनी मांगे रखी हैं।उनका कहना है कि मास मीडिया के छात्र एवं छात्राएं विश्वविद्यालय द्वारा किए जा रहे व्यवहार को लेकर दुखी है। अपनी नाराजगी को जाहिर करने के लिए संवैधानिक लोकतंत्र में दिए गए अधिकारों का उपयोग करते हुए आंदोलन कर रहे हैं। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन उन्हें संविधान के अधिकारों का उपयोग करने से रोकने की हरसंभव कोशिश कर रहा है।छात्रों ने इसकी इसकी निंदा की है और साथ ही ये साफ कर दिया है कि वे अपनी मांगों के समर्थन में आंदोलन करते रहेंगे।

छात्रों का कहना है कि  मास मीडिया के कोर्स के स्वभाव और प्रकृति और विश्वविद्यालय की इसके बारे में  समझ में एक दूरी बनी हुई है। मास मीडिया के कोर्स के बारे में शायद यह बुनियादी समझ भी गायब है कि  इस कोर्स के जरिये उन्हें लोकतंत्र की सुरक्षा और उसे मजबूत करने के उद्देश्य से पीढ़ी तैयार करनी है। मास  मीडिया के छात्र छात्राएं पहले तो इस बात को लेकर दुखी है कि विश्वविद्यालय उसके कई विद्यार्थियों को परीक्षा में शामिल होने से रोक रहा है। इनमें ज्यादातर छात्राएं हैं। हमने मास मीडिया के कोर्स के स्वभाव और प्रकृति के अनुकूल बड़ी मेहनत से परीक्षा के लिए खुद को तैयार किया है। उन्होने मांग की है कि वीसी तत्काल सभी विद्यार्थियों को परीक्षा में बैठने की अनुमति प्रदान करें। इस कोर्स के विद्यार्थियों के बारे में कहा जा रहा है कि वे एक न्यूनतम संख्या में कक्षाओं में उपस्थित नहीं रहे हैं। जबकि छात्रों का कहना  है कि हमने व्यवहारिक तौर पर अधिकतम कक्षाएं की है। कक्षाओं में तकनीकी तौर पर उपस्थिति नहीं होने के कई कारण हो सकते हैं। एक निश्चित समय में चलने वाली कक्षाओं के समय में विद्यार्थियों को शारीरिक , पारिवारिक, सामाजिक ऐसी समस्याएं खड़ी हो सकती हैं जिन्हें तत्काल नजरअंदाज किया जाना संभव नहीं होता है। मास मीडिया के कई विद्यार्थी तकनीकी जरूरत के तौर पर अपना मेडिकल प्रमाण पत्र भी दिया हैं लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन उसे लेने से इंकार कर दिया। छात्रों ने इसे विश्वविद्यालय की तानाशाही करार दिया है। जामिया के पत्रकारिता विभाग के छात्रों की इन मांगो का जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी ने भी समर्थन किया है।
छात्रों की मांगे निम्नलिखित हैं।
1)       मास मीडिया के सभी विद्यार्थियों को परीक्षा में बैठने की अनुमति दी जाए।
2)      मास मीडिया के कोर्स की प्रकृति और स्वभाव की समझ विकसित करने की प्रक्रिया शुरू की जाए।
3)      मास मीडिया के कोर्स के अब तक के अनुभव और बदलती हुई परिस्थितियों में उनकी उपयोगिता का मूल्यांकन किया जाए।
4)      मास मीडिया कोर्स के व्यवहारिक पक्ष पर जोर दिया  जाए।
5)      मास मीडिया के विद्यार्थियों के साथ हर तीन महीने पर कुलपति के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू किया जाए।
6)      मास मीडिया की दुनिया से विद्यार्थियों के लगातार संपर्क में रखने के उद्देश्य से एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन सुनिश्चित किया जाए।
7)      मास मीडिया के विद्यार्थियों का दूसरे विषयों के विद्यार्थियों के साथ संवाद की कक्षाएं आयोजित की जाए।
8)      मास मीडिया की जो पुस्तकें कक्षा में पढ़ाई जाती है उनकी उपयोगिता का मूल्यांकन किया जाए।
9)      मास मीडिया में महात्मा गांधी नरेगा  जैसे कार्यक्रमों को शामिल किया जाए। ग्रामीण अंचलों में सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों का अध्ययन करने के लिए विद्यार्थियों के दौरे की कक्षाएं अनिवार्य की जाए।
जामिया के छात्रों और जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसाईटी (jucs) की तरफ से जारी
शाहआलमअली अख्तरगुफरान,शारिकअवनीश रायविजय प्रतापऋषि कुमार सिंहफहद हसन,उदयन विश्वास,आरहन सेठ,डेजी डेका, कजरी अख्तर,नाबिला जेहरा जैदी,ओलिम्का यफ्तो,सबा रहमान,सना जमाल, सानिया अहमद,स्मृति दीवान,सुर्पना सरकार, राघवेंद्र प्रताप सिंहअरूण कुमार उरांव,प्रबुद्ध गौतमअर्चना महतोविवेक मिश्राराकेशदेवाशीष प्रसूनदीपक रावप्रवीण मालवीयओम नागरतारिकमसीहुद्दीन संजरीवरूणमुकेश चौरासे,.शाहनवाज आलमनवीन कुमार,
9873672153, 9910638355, 9313139941, 09911300375

Sunday, May 8, 2011

वीसी के इशारे पर छात्रों पर पुलिस का हमला

जामिया में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठै छात्रों को वीसी नजीब जंग के इशारे पर पुलिस और जामिया प्रशासन ने दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। मास कम्युनिकेशन के ये छात्र परीक्षा के लिए एडमिट कार्ड न दिए जाने के विरोध में  भूख हड़ताल पर बैठे थे। कल शाम से भूख हड़ताल पर बैठे इन छात्रों का दोष सिर्फ इतना था कि उन्होने कुलपति के खिलाफ नारेबाजी की थी। मास कम्युनिकेशन  के 12 छात्रों को कम उपस्थिति का बहाना बनाकर एडमिट कार्ड देने से मना कर दिया गया था। आज शाम ये छात्र विश्वविद्यालय परिसर के बाहर शांतिपूर्ण धरना दे रहे थे। धरने से किसी भी तरह की दिक्कत नहीं पैदा हो रही थी सिवाय इसके कि कुलपति की तानाशाही को चुनौती मिल रही थी। पुलिस ने बिना किसी नोटिस और चेतावनी के छात्रों को बर्बर तरीके से पीटा और उनके सामान को फेंक दिया। पुलिसवालों ने धरने पर बैठी छात्राओं से भी बदसलूकी की और उन्हें भी पीटा। इसके बाद पुलिस ने सभी आंदोलनरत छात्रों को जामिया थाने में बंद कर दिया। इन छात्रों को किस आरोप में बंद किया गया है पुलिसवालों ने ये बताने की  जहमत भी नहीं उठाई। पूरे मामले पर जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) के शाहआलम ने जामिया नगर पुलिस स्टेशन के एसएचओ के खिलाफ एसीपी के पास शिकायत दर्ज कराई है। जेयूसीएस ने अपनी शिकायत में धरने पर बैठे छात्रों के खिलाफ बल प्रयोग किये जाने का विरोध किया है।

Monday, April 11, 2011

Screening & discussion on documentary film “SAFFRON WAR”


Date - 16 April 2011, Saturday
Time - 2: 4 PM
Venue - UP Press Club


Friends,
             The hindutva politics conducted  from the Gorakhnath Peeth has been attacking the communal harmony of our state for a long time. The fascist ideology of this politics has its manifestations in some of the dreaded terror blasts in Malegaon, Samjhauta Express, Mecca masjid, Ajmer shrine etc. ‘‘Saffron War’’ is an attempt to understand & analyse the various social, religious, historical & political aspects of this phenomenon, which tends to convert this land of Buddha, Gorakh & Kabir into the battlefield to wage a war against secular India .You all are invited in this discussion.

Realesed by- Md Shoaib, Sandeep Pandey, S.R Darapuri, Arundhati Dhuru, Ambreesh Kumar, Siddhartha Kalhans, Randheer Singh ‘Suman’. Ekta Singh, Ravi Shekhar.
Cotact- 09415012666] 09415022722] 09307140390] 09369444528

Monday, March 7, 2011

सरकारी कैद में ‘आजाद’ पत्रकारिता

विजय प्रताप

पत्रकारों की वैश्विक संस्था ‘रिपोर्टस विदाउट बॉर्डर’ ने पिछले महीने एक अपील जारी कर भारत सरकार से पत्रकारों के सुरक्षा की मांग की। संस्था की मांग से लगता है कि वह भारत में पत्रकारों पर बढ़ रहे हमलों से चिंतित है। हालांकि संस्था की मांग एक मायने में विरोधभासी भी है। भारत में अभी तक पत्रकारों पर जितने भी हमले हुए हैं, उसमें से ज्यादातर में भारत सरकार या उसकी सुरक्षा एजेंसियों का हाथ रहा है। ऐसे में हमलावर से ही सुरक्षा की मांग हास्यास्पद है।
इस अंतरराष्ट्ीय संस्था की यह मांग ऐसे समय में आई है, जब एक भारतीय पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी को 5 फरवरी को एक साल पूरे हो जाएंगे। सीमा आजाद को अगर भारत में गिरफ्तार या सरकारी प्रताड़ना के शिकार पत्रकारों में से उदाहरण के बतौर चुने तो इसके निहितार्थ समझे जा सकते हैं। पत्रकार सीमा आजाद अपनी गिरफ्तारी से पूर्व तक उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से ‘दस्तक’ नाम की मासिक पत्रिका निकाला करती थी। पिछले वर्ष उन्हें 5 फरवरी को दिल्ली पुस्तक मेले से वापस इलाहाबाद लौटते समय पुलिस ने उन्हें और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रनेता व राजनीतिक कार्यकर्ता विश्वविजय को
स्टेशन से ही उठा लिया। दोनों को दो दिनों तक अवैध हिरासत में प्रताड़ित करने के बाद पुलिस ने उन्हें 7 फरवरी को इलाहाबाद की स्थानीय अदालत में पेश किया। पुलिस का आरोप था कि उनके पास से माओवादी साहित्य बरामद हुआ है और उनका संबंध कुछ माओवादी नेताओं से है। इस आधार पर उन पर राजद्रोह का केस दायर कर दिया गया। फिलहाल पत्रकार सीमा आजाद पिछले एक साल से जेल की सलाखों के पीछे हैं।
इस पुलिसिया कहानी से इतर सीमा आजाद की गिरफ्तारी की सच्चाई कुछ और ही है। सीमा आजाद पत्रकार होने के साथ-साथ मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं। वह पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज पीयूसीएल उत्तर प्रदेश की संगठन सचिव भी हैं। उन्होंने एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की हैसियत से उत्तर प्रदेश में कई गंभीर मुद्दों को उठाया और उस पर अपनी पत्रिका में लगातार लिखती भी रहीं। सोनभद्र में नक्सली नेता कमलेश चौधरी की फर्जी पुलिस मुठभेड़ में हत्या के मामले को उन्होंने अपने संगठन के माध्यम से उठाया। इसके अलावा गंगा एक्सप्रेस वे के निर्माण और उससे बेदखल होने वाले किसानों की समस्याओं पर उन्होंने अभियान छेड़ रखा था। जो लाजिमी तौर पर न तो प्रदेश सरकार को पंसद आ रहा था न ही उसके कारिंदों प्रशासकों को। गंगा एक्सप्रेस वे प्रदेश सरकार की स्वप्न परियोजना है, ऐसे में सीमा अपने उस अभियान से प्रदेश सरकार के निशाने पर थीं। इसका नतीजा उनकी गिरफ्तारी के रूप में सामने आया।
सीमा आजाद और उसके बाद गिरफ्तार अन्य पत्रकारों के मामलों पर नजर दौड़ायें तो कमोबेश ऐसी ही घटनाएं देखने को मिलेंगी। नये साल के शुरुआत में ही 2 जनवरी को महाराष्ट् से पत्रकार सुधीर धवल की गिरफ्तारी भी सीमा आजाद की कड़ी को आगे बढ़ती है। सुधीर धवल स्वतंत्र रूप से एक मासिक पत्रिका ‘विद्रोही’ निकाला करते थे। गिरफ्तारी के बाद उन पर एक प्रतिबंधित संगठन भाकपा माले से संबद्ध होने का आरोप लगाते हुए, राजद्रोह का केस लगा दिया गया। धवल की गिरफ्तारी से पूर्व पिछले वर्ष दिसम्बर के आखिरी सप्ताह में मणिपुर की राजधानी इंफाल से निकलने वाले कई अखबार नहीं छपे। अखबार नहीं छापने का यह निर्णय वहां के पत्रकारों ने अपने ही एक पत्रकार साथी और मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन के प्रदेश उपाध्यक्ष मोबी सिंह की गिरफ्तारी के विरोध में लिया। मोबी सिंह इंफाल से निकालने वाले दैनिक सालीबक से जुड़े हैं। पुलिस ने उन पर प्रतिबंधित संगठन कांग्लीपक कम्युनिस्ट पार्टी से संबंध होने का आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
इन सभी गिरफ्तारियों में पत्रकारों का माओवादी संगठनों से संबंध होने का आरोप आम है। वर्तमान दौर में यह ऐसा हथियार बन गया है, जिसके नाम पर कभी भी किसी पत्रकार को उठाया जा सकता है। उसके पास से माओवादी साहित्यों की बरामदगी दिखाई जा सकती है और उस पर राजद्रोह का केस दायर किया जा सकता है। हालांकि ये माओवादी साहित्य क्या हैं, इस सवाल का जवाब कभी भी पुलिस के पास नहीं होता। माओवादी होने के आरोप में उत्तराखंड के पत्रकार प्रशांत राही पिछले चार सालों से जेल की सलाखों के पीछे हैं। ऐेसे पत्रकारों की एक और आम खासियत है कि यह सामान्य पत्रकारों की तरह रोजाना की खबरों तक अपने सरोकार सीमित रखने वालों में से नहीं हैं। बल्कि इन सभी पत्रकार, अपने पेशे की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए, जनसरोकारों से जुड़ी खबरों पर स्वतंत्र रूप से या वैकल्पिक पत्रिकाओं के माध्यम से सत्ता को लगातार चुनौती देते रहे। ऐसे में शासकवर्ग को इन पत्रकारों से खतरा महसूस होना स्वाभाविक है। इसी खतरे को मौजूदा दौर में माओवाद का आवरण पहना दिया गया है। माओवाद चूंकि इस समय सत्ता द्वारा तैयार सबसे बड़े खतरों में से एक है। पत्रकारों की गिरफ्तारियों को भी माओवाद के नाम पर वैधता प्रदान करने की कोशिश की जाती है।
सरकार द्वारा पत्रकारों की गिरफ्तारी की खुली छूट ने न केवल पुलिस के जेहन से मीडिया के डर को खत्म किया है, बल्कि अन्य कट्टर संगठनों को भी पत्रकारों को नियंत्रित करने की खुली छूट दे दी है। छत्तीसगढ़ में ऐेसे ही सरकारी संरक्षण में पनप रही संस्था मां दंतेश्वरी स्वाभिमानी आदिवासी मंच ने वहां के तीन पत्रकारों एन आर के पिल्लई, अनिल मिश्रा और यशवंत यादव को पत्र लिखकर माओवादियों के पक्ष में खबरें न लिखने की धमकी दी। पत्रकारों पर माओवाद के नाम पर हमले ज्यादा हो रहे हैं। लेकिन कई जगह पत्रकारों को प्रशासन या पुलिस के खिलाफ थोड़ी सी भी तिखी खबर लिख देने का नतीजा भुगतना पड़ रहा है। चेन्नई के ऐेसे ही एक पत्रकार एस मणि को पुलिस में भ्रष्टाचार पर खबर लिखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। वहीं दूसरी तरफ बिहार में बहुचर्चित पुर्णिया के भाजपा विधायक हत्याकांड में वहां के स्थानीय अखबार के संपादक नवलेश पाठक को गिरफ्तार कर लिया गया। उनका दोष महज इतना था कि उन्होंने विधायक की हत्या आरोपी महिला के विधायक पर यौन दुराचार के आरोपों को अपने अखबार में जगह दी थी।
यह वर्तमान समय में पुलिस और प्रशासन की ‘सहनशीलता’ का उदाहरण है। इसका खामियाजा जनपक्षधर पत्रकारों को भुगतना पड़ रहा है। पत्रकारों के साथ ऐसी घटनाएं इसलिए भी चिंताजनक हैं, क्योंकि यह सबकुछ भारत की चुनी सरकारों के इशारों पर हो रहा है। देश और दुनिया की तमाम संस्थाएं इन्हीं सरकारों से पत्रकारों के संरक्षण व सुरक्षा की मांग कर रही हैं।


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