Wednesday, September 29, 2010

कुलपति की तानाशाही खत्म करो, छात्रों की मांग पर ध्यान दो ! - जेयूसीएस

भोपाल, 29 सितम्बर । जर्नलिस्ट्स यूनियन फॉर सिविल सोसायटी ;जेयूसीएसद्ध की मध्य प्रदेश ईकाइ ने केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय से मांग की है कि वो माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्ीय पत्रकारिता व संचार विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष को हटाने के मामले की स्वतंत्र जांच कराए। संगठन का आरोप है कि कुलपति बी.के. कुठियाला, विश्वविद्यालय को राजनीति का अखाड़ा बनाने पर तुले हैं और सभी मुख्य पदों पर संघी विचारधारा वाले लोगों की नियुक्तियां चाहते हैं। पुष्पेन्द्र पाल सिंह को
उनके पद से हटाये जाने के पीछे भी मुख्य वजह यही है।
संगठन ने विश्वविद्यालय में अनशन कर रहे छात्रों के संघर्ष में कदम से कदम मिलाकर चलने का वादा किया। संगठन के नेताओं ने कहा कि अनशनरत छात्रों की अनदेखी विश्वविद्यालय और मंत्रालय की निर्ममता का नमूना है। नेताओं ने कहा कि देश के कई विश्वविद्यालयों को वहां के कुलपति अपनी जागीर बनाए हुए है, जिसके चलते छात्रों में आक्रोश है। माखनलाल विश्वविद्यालय की ही तरह महात्मा गांधी अंतरराष्ट्ीय हिंदी विश्वविद्यालय में भी कुलपति ने मनमाने तरीके से वहां के योग्य प्रोफेसर अनिल चमड़िया को हटाया था। कुलपतियों की इस तरह की तानाशाही का खामियाजा छात्रों को भुगतना पड़ता है, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। संगठन ने मंत्रालय से मांग की कि विश्वविद्यालयों में किसी भी पद पर नियुक्ति या हटाए जाने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। कुलपतियों के मनमाने हस्तक्षेप पर अंकुश लगाया जाना चाहिए और विश्वविद्यालयों को उनके चंगुल से मुक्त कराया जाना चाहिए।
 
द्वारा जारी -
विवके मिश्रा, दीपक राव, प्रवीण मालवीय, प्रकाश, मुकेश चौरासे, राजलक्ष्मी शर्मा, उपेन्द्र, राजीव यादव, शाहनवाज आलम, शाह आलम, विजय प्रताप, ऋषि कुमार सिंह, अवनीश राय, अरुण उरांव, देवाशीष प्रसून, दिलीप, शीत मिश्रा, प्रबुद्ध गौतम, श्वेता सिंह, राकेश, गुफरान, अली और अन्य सदस्य।

जर्नलिस्ट्स यूनियन फॉर सिविल सोसायटी, मध्य प्रदेश ईकाइ
संपर्क - 09617648633,09015898445,07870597406

Saturday, September 25, 2010

भगवा ब्रिगेड कमांडर राजेश बिडकर गिरफ्तार - जेयूसीएस के अभियान का असर

भगवा ब्रिगेड के राजेश बिड़कर पर रासुका नाकाफी- JUCS
राजेश बिड़कर भाजपा और विश्व हिंदू परिषद से जुड़ा था- जेयूसीएस


भगवा ब्रिगेड और उसके नेताओं पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करो- जेयूसीएस


भगवा ब्रिगेड को तत्काल प्रतिबंधित करो- जेयूसीएस

चिदंबरम- दिग्विजय अब तो मुंह खोलो भगवा ब्रिगेड पर- जेयूसीएस

जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी ;श्रन्ब्ैद्ध ने मध्य प्रदेश में हिंदू योद्धा भर्ती अभियान चलाने वाले भगवा ब्रिगेड के नेता राजेश बिड़कर की गिरफ्तारी और रासुका लगाने को अपर्याप्त मानते हुए मांग की है कि इस संगठन के दूसरे नेता दामोदर यादव समेत इसके अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया जाय और इस संगठन को तत्काल प्रतिबंधित किया जाय। भगवा ब्रिगेड के इंदौर स्थित कार्यालय समेत इसके जो भी ठौर ठिकाने अड्डे हों उनको तत्काल प्रभाव से सीज किया जाय।
     जेयूसीएस ने मध्य प्रदेश सरकार और विपक्षी कांग्रेस सरकार की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए कहा कि भगवा ब्रिगेड जैसे सांप्रदायिक और आतंकी संगठनों को वे पाल रहे हैं। मध्य प्रदेश भाजपा सरकार संघ के दबाव मंे ऐसा कर रही है जिसने अबकी भाजपा को अयोध्या मसले पर आ रहे फैसले पर पीछे रहने को कहा है और भगवा ब्रिगेड जैसे आतंकी संगठनों को आगे कर सांप्रदायिक तनाव फैलाने की रणनीति अपना रही है। जेयूसीएस को मालूम चला है कि रासुका में पाबंद राजेश बिड़कर भाजपा और विश्व हिंदू परिषद से जुड़ा था। ऐसे में यह सवाल और भी अहम हो जाता है क्योंकि इसके पहले देश में हुयी विभिन्न आतंकी वारदातों में पकड़े गए लोग ऐसे ही संघ गिरोह या हिन्दुत्ववादी संगठनों के थे। भगवा ब्रिगेड के इस पूरे मामले की उच्च स्तरीय जांच हो।
     जेयूसीएस ने भगवा ब्रिगेड जैसे सांप्रदायिक-आतंकी संगठन पर चिदंबरम और दिग्विजय की चुप्पी पर कहा कि वे सिर्फ भगवा आतंक के बयानों तक सीमित हैं। उन पर किसी कार्यवाई से लगातार बचते हैं। आज हमने प्रमाण दिया है कि मध्य प्रदेश में ऐसे संगठन गुप-चुप नहीं बल्कि खुलेआम अपनी कार्यवाईयों को अंजाम दे रहे हैं तो फिर इस गंभीर मसले पर वे अब तक क्यों चुप हैं।

द्वारा जारी-

शाहनवाज आलम, विजय प्रताप, राजीव यादव, शाह आलम, ऋषि सिंह, अवनीश राय, 
नीरज कुमार, गुफरान, फहीम, लारेब अकरम, रियाज अहमद, मिथलेश, फहद, शिवदास,
 सैयद अली अख्तर, राकेश कुमार, फहद हसन, मो आरिफ

राघवेंद्र प्रताप सिंह, अरुण उरांव, विवके मिश्रा, देवाशीष प्रसून, अंशु माला सिंह, शालिनी बाजपेई, महेश यादव, संदीप दूबे, तारिक शफीक, नवीन कुमार, प्रबुद्ध गौतम, शिवदास,  ओम नागर, हरेराम मिश्रा, मसीहुद्दीन संजरी, राकेश, रवि राव।


संपर्क - 09415254919, 09452800752,09873672153, 09015898445

'बटला हाउस मुठभेड़ की न्यायिक जांच हो' - जेयूसीएस के विरोध का असर

नारायण बारेठ
बटला हाउस मुठभेड़

दिग्विजय सिंह आज़मगढ़ भी गए थे और न्यायिक जांच की मांग को जायज़ ठहराया था लेकिन बाद में वो अपने बयान को निजी राय बताकर मामले को रफ़ा दफ़ा कर दिया था.

कांग्रेस पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह अब भी दो साल पहले दिल्ली के बटला हाउस में हुई मुठभेड़ की न्यायिक जांच के हक़ में है.दिग्विजय सिंह ने कहा कि इसकी न्यायिक जांच में क्या हर्ज है.

अयोध्या मामले में अदालत के फ़ैसले पर उन्होंने कहा कि भारत में अब वैसा माहौल नहीं है जो वर्ष 1992 में था. उन्होंने कहा, ''कांग्रेस ने अपने सभी नेताओं को उनके इलाक़ो में रहने और मुल्क में सदभाव बनाए रखने में हर संभव योगदान के लिए कहा है.''

'न्यायिक जांच का आधार नहीं'

राजस्थान की यात्रा पर आए दिग्विजय सिंह ने कहा कि वो बटला हाउस मुठभेड़ का मुद्दा उठाते रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार और माननीय प्रधानमंत्री का मानना था कि इस घटना की न्यायिक जांच का कोई आधार नहीं है और ऐसी जांच भारत के मानव अधिकार आयोग द्वारा की जानी चाहिए.ये क़ानूनी बाध्यता भी है और आयोग ऐसी हर घटना की जांच करता है.

उन्होंने कहा की राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने इस बात को ख़ारिज कर दिया कि ये मुठभेड़ नकली थी, मगर यूपी और अन्य भागों में अल्पसंख्यक युवा वर्ग के लिए ये एक भावनात्मक मुद्दा था कि इस घटना की न्यायिक जांच होनी चाहिए.

इस घटना में जो दो लोग मारे गए थे, उनमें से एक के सर पर पांच गोलियां लगी थी.किसी भी इन्काउंटर में पांच गोलियां सर में नहीं लग सकती. इससे ऐसा लगता है कि ये मुठभेड़ सही नहीं थी.

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री सिंह ने कहा कि '' इस घटना में जो दो लोग मारे गए थे, उनमें से एक के सर पर पांच गोलियां लगी थी.किसी भी इन्काउंटर में पांच गोलियां सर में नहीं लग सकती. इससे ऐसा लगता है कि ये मुठभेड़ सही नहीं थी.''

सिंह ने कहा कि इसीलिए हमने फिर से जांच की मांग की थी. ''जो लोग इस घटना में पकड़े गए हैं ,हम ये नहीं कहते कि उनको छोड़ देना चाहिए,मगर हम ये कह रहे हैं कि इस मामले में शीघ्र न्याय के लिए कार्रवाही होनी चाहिए.''

दिग्विजय को काला झंडा

इससे पहले मंगलवार को दिल्ली में भी दिग्विजय सिंह ने बटला हाउस मुठभेड़ की बात उठाई थी.

बटला हाउस मुठभेड़ के दो साल हो जाने पर जामिया टीचर्स सालीडैरिटी एसोशिएसन की तरफ़ से 'आतंकवाद' और संदेह की राजनीति पर आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में बोलते हुए दिग्विजय सिंह नें कहा कि वो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने ये मुद्दा दोबारा उठाएंगे. उन्होंने कहा कि वो न्यायिक जांच की मांग करते रहें हैं लेकिन उनकी अपनी सीमाएं हैं और वो उनसे बाहर जाकर कोई काम नहीं कर सकते.

इस मौक़े पर जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी ने दिग्विजय सिंह को काले झंडे दिखाए.

जेयूसीएस के पचासों नेताओं और दर्जनों कार्यकर्ताओं ने साजिद-आतिफ के हत्यारे दिग्विजय वापस जाओ, आजमगढ़ को आतंक की नर्सरी के नाम से तब्दील करने वाले कांग्रेसी दिग्विजय वापस जाओ, साजिद और आतिफ की हत्या पर विजय मनाने वाले काग्रेंसी दलाल वापस जाओ, बाटला हाउस आंदोलन को तोड़ने वाले दिग्विजय वापस जाओ के नारे लगाए और पर्चे फेंके.

बाद में इस पर दिग्विजय सिंह ने कहा कि राजनीतिक जीवन में ऐसी चिज़े होती रहती हैं और इससे वो नहीं घबराते.

बीबीसी हिंदी से साभार

बाटला मुद्दा सोनिया के समक्ष उठाएंगे - जेयूसीएस के विरोध का असर

कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह बाटला हाउस मुद्दा सोनिया गांधी के समक्ष रखेंगे।

वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों और शिक्षकों से कहा कि बाटला हाउस मुठभेड़ जांच का मुद्दा वह पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के समक्ष उठाएंगे।

मुठभेड़ के दो साल पूरे होने के अवसर पर सिंह को हालांकि छात्रों के एक तबके की ओर से विरोध का सामना भी करना पड़ा। विरोध करने वाले छात्रों का आरोप था कि जब दिग्विजय आजमगढ़ गए तो उन्होंने कुछ और कहा तथा दिल्ली में कुछ और।

ज्ञात हो कि दिल्ली के जामिया में मंगलवार को जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी ने जामिया विश्वविद्यालय में आतंकवाद विषय पर हो रहे सम्मेलन में दिग्विजय सिंह को काले झंडे दिखाए।

जेयूसीएस के पचासों नेताओं और दर्जनों कार्यकर्ताओं ने साजिद-आतिफ के हत्यारे दिग्विजय वापस जाओ, आजमगढ़ को आतंक की नर्सरी के नाम से तब्दील करने वाले कांग्रेसी दिग्विजय वापस जाओ, साजिद और आतिफ की हत्या पर विजय मनाने वाले काग्रेंसी दलाल वापस जाओ, बाटला हाउस आंदोलन को तोड़ने वाले दिग्विजय वापस जाओ, हमारा मानवाधिकार आंदोलन जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए दिग्विजय वापस जाओ के पर्चे फेके।

कार्यक्रम में मौजूद लोगों ने भी समर्थन में नारे लगाए।दिग्विजय सिंहं के आने का जमकर विरोध किया गया। सम्मेलन में शिरकत कर रहे कार्यकर्ता इस बात से बेहद नाराज थे कि बटला हाउस एनकाउंटर के मसले पर दिग्विजय सिंह और उनकी पार्टी के विचार अलग-अलग है।

'समय लाइव डॉट काम' के संपादक पाणिनी आनंद ने बातचीत में कहा कि कार्यकर्ताओं द्वारा दिग्विजय सिंह के प्रति ऐसे विरोध के संकेत पहले से मिल रहे थे। उन्होंने कहा कि इस मसले पर उनका विरोध होना लाजिमी था।

उन्होंने कहा कि जिस वक्त ये घटना हुई थी तब राज्य में और केंद्र में कांग्रेस की सरकारें थी उसके बावजूद इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया गया और ना ही इसकी कोई गंभीर जांच हुई।
     
जेयूसीएस के संयोजक शाह आलम और विजय प्रताप ने कहा कि आजमगढ़ आज पूरे देश में आतंकवाद के नाम पर बेकसूरों के उत्पीड़न के आंदोलन का केंद्र है। बटला हाउस के बाद बने जामिया टीचर्स सालीडैरिटी एसोशिएसन फोरम पर हम आरोप लगाते हैं कि वह इस आंदोलन को दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसी दलालों को बुलाकर कमजोर कर रही है।

जेयूसीएस ने कहा कि दिग्विजय को काला झंडा दिखाकर हमने आजमगढं के आदोलन की परंपरा को बरकरार किया। जिसने इसी तरह फरवरी में आजमगढ़ जाने पर दिग्विजय को काले झंडे दिखाए थे।

इस यात्रा का विरोध जामिया टीचर्स सालीडैरिटी एसोशिएसन फोरम ने भी किया था वो बताए कि क्या दिग्विजय ने बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की न्यायिक जांच करवा दी है जो उसे इस तरह मंचों से वो नवाज रही है।

इस मसले पर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा कि मुझे पता था कि मैं वहां जाउंगा तो लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ी। उन्होंने कहा कि मैं काले झंडे दिखाने से नहीं डरता। विरोध के दौरान दिग्विजय सिंह चुपचाप बैठे रहे या मुस्कुराते रहे।

उन्होंने कहा कि हमारी भी सीमाएं है और हम लोगों को सोनिया जी और प्रधामंत्री से मिलवा सकते है लेकिन बाटला हाउस एक इमोशनल मुद्दा है जो एनएचआरसी का भी मुद्दा है लेकिन हम पार्टी में इसकी चर्चा फिर से करेंगे।

समय लाइव से साभार

दिग्विजय को जामिया में दिखाया काला झंडा

दिग्विजय अगर आदोलन तोड़ने से बाज नहीं आए तो अगली बार पोतेंगे कालिख JUCS


दिल्ली 21 अगस्त 10/ जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (JUCS)  ने दिल्ली में जामिया विश्वविद्यालय में आतंकवाद विषय पर हो रहे सम्मेलन में दिग्विजय सिंह को काले झंडे दिखाए। जेयूसीएस के पचासों नेताओं और दर्जनों कार्यकर्ताओं ने साजिद-आतिफ के हत्यारे दिग्विजय वापस जाओ, आजमगढ़ को आतंक की नर्सरी के नाम से तब्दील करने वाले कांग्रेसी दिग्विजय वापस जाओ, साजिद और आतिफ की हत्या पर विजय मनाने वाले काग्रेंसी दलाल वापस जाओ, बाटला हाउस आंदोलन को तोड़ने वाले दिग्विजय वापस जाओ, हमारा मानवाधिकार आंदोलन जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए दिग्विजय वापस जाओ के पर्चे फेके। कार्यक्रम में मौजूद लोगों ने भी समर्थन में नारे लगाए।
    
जेयूसीएस के संयोजक शाह आलम और विजय प्रताप ने कहा कि आजमगढ़ आज पूरे देश में आतंकवाद के नाम पर बेकसूरों के उत्पीड़न के आंदोलन का केंद्र है। बटला हाउस के बाद बने जामिया टीचर्स सालीडैरिटी एसोशिएसन फोरम पर हम आरोप लगाते हैं कि वह इस आंदोलन को दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसी दलालों को बुलाकर कमजोर कर रही है। जेयूसीएस ने कहा कि दिग्विजय को काला झंडा दिखाकर हमने आजमगढं के आदोलन की परंपरा को बरकरार किया। जिसने इसी तरह फरवरी में आजमगढ़ जाने पर दिग्विजय को काले झंडे दिखाए थे। इस यात्रा का विरोध जामिया टीचर्स सालीडैरिटी एसोशिएसन फोरम ने भी किया था आज वो बताए कि क्या दिग्विजय ने बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की न्यायिक जांच करवा दी है जो उसे इस तरह मंचो से वो नवाज रही है।
  
 काले झंडे दिखाने वाले जेयूसीएस नेताओं नीरज कुमार, सैयद अली अख्तर, रियाज अहमद, राकेश कुमार, फहद हसन, मो आरिफ ने कहा कि दिग्विजय बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की न्यायिक जांच के लिए नहीं बल्कि इस आंदोलन को तोड़ने के लिए यहां आए। इसी साजिस के तहत देश की सबसे बड़ी सांप्रदायिक पार्टी जिसने चौरासी, बानबे, बाटला हाउस और न जाने कितने ही बार बेकसूरों के खून से अपने हाथ रंगे ने सिर्फ आजमगढ़ मंे मुंह दिखाने के लिए सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे का गठन किया और इसी आंदोलन से जुड़े अमरेश मिश्र जैसे लोगों को प्रभारी बनाया। दिग्विजय ने आजमगढ़ में बेशर्मी की हद पार कर दी एनकाउंटर पर पहले संदेह व्यक्त किया और फिर पलट गए। आजमगढ़ में काले झंडे दिखाने पर कहा था कि मैं कितना अहम हूं यह बताता है यह प्रदर्शन अब बोले दिग्विजय? दिग्विजय अगर आदोलन तोड़ने से बाज नहीं आए तो हम अगली बार कालिख पोतेंगे।
  
द्वारा जारी-
शाह आलम, विजय प्रताप 
संयोजक जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (JUCS) दिल्ली ।
मो0- 09873672153, 09015898445









साथियों, 


       इस कार्यक्रम में बाटला हाउस में साजिद और आतिफ की हत्या करवाने वाली कांग्रेस के एजेंट दिग्विजय सिंह का हम अपने संगठन जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (JUCS) की तरफ से विरोध करते हैं। यह विरोध हम फासीवाद के खिलाफ लोकतंत्र के लिए लड़ रही आजमगढ़ की जनता के आंदोलन को देखते हुए कर रहे हैं। जिसने काले झंडों से इनका स्वागत किया था। यही दिग्विजय सिंह आजमगढ़ में साजिद और आतिफ के गांव संजरपुर गए थे और कहा था कि इन दोनों को लगी गोलियां एनकाउंटर नहीं दर्शाती हैं और दूसरे ही दिन आजमगढ़ में ही प्रेस कांफ्रेस में सवाल पूछने पर अपनी बात को यह कहते अपना दोहरा कांग्रेसी चरित्र दिखा दिया कि यह मेरी व्यक्तिगत राय है। दिग्विजय सिंह अगर व्यक्तिगत स्तर पर आ रहे हैं तो उनके धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के बारे में बताया जाय कि जिस एनकाउंटर पर वो संदेह करते हैं उसी कांग्रेस के वो पैरोकार हैं जिसने साजिद और आतिफ की हत्या कर आतंकवाद पर विजय पाने का एलान किया था। अगर व्यक्तिगत राय रखने वाला यह व्यक्ति एक हत्यारी पार्टी के प्रमुख पद पर है तब ऐसे में हम नहीं समझते कि इस व्यक्ति को हमें किसी भी प्रकार का मंच देना चाहिए और जिन व्यक्तियों के समकक्ष इसे बैठाया जा रहा है वो कोई नासमझी नहीं बल्कि आंदोलन को कमजोर करने की साजिस है और दिग्विजय को वैधता देना है। 
      
हम जामिया टीचर्स सालीडैरिटी एसोशिएसन द्वारा इस कार्यक्रम में दिग्विजय सिंह को बुलाने की कडे़ शब्दों में निंदा करते हैं और इस बात को पूछना चाहते हैं कि जब यह संगठन बाटला हाउस के बाद बना था और आजमगढ़ में चल रहे राष्ट्ीय स्तर के आंदोलन की कड़ी बना था उस वक्त और आज कांग्रेस या उसके इस नुमाइंदे दिग्विजय की नीतियों में क्या परिवर्तन आ गया? हम पूछना चाहते हैं कि अभी पिछली फरवरी में जब दिग्विजय आजमगढ़ गए थे तो इसी जामिया टीचर्स सालीडैरिटी एसोशिएसन ने उनका विरोध किया था आज वो कौन सी परिस्थितियां आ गयीं की दिग्विजय को मंच दिया जा रहा है? क्या भूल गए कि आजमगढ़ के चट्टी-चौराहों पर काले झंडे से इसी दिग्विजय का स्वागत हुआ था और लाजवाब दिग्विजय के पास कोई जवाब नहीं था। 
       
जामिया में इस तरह का राजनीतिक कार्यक्रम निःसदेह काबिले तारीफ है। इसे राजनीतिक नासमझी या बुद्धिजीवियों का कार्यक्रम कह कर नहीं टाला जा सकता। क्योंकि इसी दिग्विजय सिंह ने आजमगढ़ जाने से पहले आजमगढ़ वालों को झासा देकर समर्थन लिया कि जांच करवा देंगे और वहां अपनी वैधता हासिल करने के बाद कभी पूछने तक नहीं गए और आंदोलन को हर स्तर पर तोड़ने की कोशिश की। 
   




द्वारा जारी- शाह आलम, विजय प्रताप, नीरज कुमार, गुफरान, फहीम, लारेब अकरम, रियाज अहमद, मिथलेश, फहद, शिवदास, राकेश आदि। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (JUCS) दिल्ली इकाई। मो0- 09873672153, 09015898445




 दिग्विजय वापस जाओ!
 ऐसे में हम इस कार्यक्रम में शिरकत कर रहे बुद्धिजीवियों से अपील करते हैं कि इसका  विरोध करें क्योंकि दिग्विजय एक सांप्रदायिक पार्टी के नुमाइंदे हैं और ऐसे लोगों के साथ मंचासीन होने से सांप्रदायिकता और फासीवाद को ही बल मिलेगा।

Saturday, September 18, 2010

JUCS ने भगवा ब्रिगेड नेता राजेश बिड़कर से बातचीत का टेप जारी किया

 
 
 
 
 
 
 
भगवा ब्रिगेड पर चिदंबरम चुप क्यों - JUCS
भाजपा सरकार के साए में पल रहा भगवा ब्रिगेड - JUCS
 

JUCS से बातचीत में भगवा ब्रिगेड ने किया खुलासा

  • हमारा टारगेट केवल मध्य प्रदेश है
  • हम लोग एक कट्टर वैचारिक संगठन तैयार कर रहे हैं

 मध्य प्रदेश में भगवा बिग्रेड की तरफ से चलाए जा रहे 'हिंदू योद्धा भर्ती अभियान' पर केन्द्र व प्रदेश सरकार  की चुप्पी अभी जारी है। जर्नलिस्ट्स यूनियन फॉर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) ने इस पूरे मामले की जानकारी गुरुवार 16 सितम्बर को ही सरकारी व अन्य मीडिया एजेंसियों को दे दी थी। लेकिन अभी तक इस पर कुछ कार्रवाई होती नहीं दिख रही। इस बीच जेयूसीएस की दिल्ली ईकाइ के स्वतंत्र पत्रकार विजय प्रताप ने एक स्टिंग ऑपरेशन में बिग्रेड के नेता राजेश बिडकर से उनके मोबाइल नंबर 09977900001 पर सुबह 9.29 बजे व 9.32 बजे पर दो बार उनसे बात की। स्वतंत्र पत्रकार शाह आलम ने भी 11.45 बजे बिडकर से बात की। इस बातचीत में राजेश बिडकर ने स्वीकार किया की वो कट्टर हिंदूवादी संगठन के है और भारत को अलग हिंदूराष्ट् बनाने की मांग को लेकर चल रहे है। कामकाज के तरीके के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि हमारे लोग आप से मिलकर बताएंगे कि कब क्या करना है।


इस पूरी बातचीत से यह साफ है कि यह हिंदुत्ववादी संगठन खतरनाक मंसूबे पाले हुए है। इतने पर्याप्त सबूतों के बावजूद भी केन्द्र सरकार की चुप्पी 'भगवा आतंकवाद' को बढ़ावा देने वाली है, जिस पर पिछले दिनों गृहमंत्री ने लोकसभा में चिंता जाहिर की थी।

 

JUCS  की तरफ से पत्रकार विजय प्रताप द्वारा की गई बातचीत का पूरा ब्यौरा हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं-


विजय: हैलो !

 

राजेश बिडकर: वन्दे मातरम !


विजय: भगवा बिग्रेड से बोल रहे हैं क्या?


राजेश बिडकर: हां,


विजय: कौन बोल रहे हैं?


राजेश: राजेश बिडकर।


विजय: अच्छा, राजेश जी, मैं विजय प्रताप बोल रहा हूं।


राजेश: कहां से?


विजय: मैं दिल्ली से बोल रहा हूं...

 

राजेशः कहां से...


विजय: दिल्ली से बोल रहा हूं। मेरे एक साथी ने आपके बारे में बताया था। वो आप लोगों के संगठन से जुड़ रहा है। आपके संगठन से जुड़ने के लिए क्या करना पड़ेगा।


राजेश: आप कहां से बोल रहे हैं?


विजय: मैं तो दिल्ली में हूं, लेकिन रहने वाला जबलपुर का हूं।


राजेश: हूं हूं..पूरा मामला मैं बताता हूं। ये कट्टरवादी विचारधारा वाले युवाओं का संगठन है।हमको भारत को हिंदू राष्ट् बनाने की मांग का उद्देश्य लेकर चल रहे हैं। तीसरा की अन्य हिंदूवादी संगठन जो कि चक्का जाम कर दिया, तोड़-फोड़ कर दी, थाने घेर दी, ट्क रोक लिया। हम लोग ये काम नहीं करते हैं।


विजय: आपका क्या काम-काज है?


राजेश: हम लोग एक कट्टर वैचारिक संगठन तैयार कर रहे हैं दस हजार लोगों का और हम समय-समय पर अपने फरमान जारी करेंगे मुस्लिमों को... और उसका पालन कराना होगा दस हजार लोगों को। और कट्टर विचार ऐसे नार्मल विचारधारा वाले लोग नहीं होने चाहिए ज्यादा से ज्यादा लोग जुड़े नहीं


विजय: आम हिंदू नहीं जो हिन्दुत्व में विश्वास रखते हैं उन्हीं को...


राजेश: आम हिंदू नहीं, जो कट्टर हैं।


विजय: अच्छा कट्टर होने चाहिए...


राजेश: हां।


विजय: आप कह रहे हैं कि फरमान जारी करेंगे, उसकी पालना कैसे कराई जाएगी। क्या हम लोगों को उसकी पालना करानी होगी?


राजेश: कल हमारी बेवसाइट लांच हो रही है, समय-समय पर लोगों को क्या करना है तो वो तो आप तक जानकारी पहुंच जाएगी हाईटेक माध्यम से जानकारी होनी चाहिए। या फिर व्यक्तिगत तौर या फिर पत्र-वत्र... आप तक जानकारी पहुंच जाएगी की क्या करना है।


विजय: ये देश भर में और भी जगहों पर होगा या आप अभी सिर्फ मध्यप्रदेश को टारगेट किए हैं?

 

राजेश: अभी हमारा टारगेट केवल मध्य प्रदेश है, हमारा सीधा सा मानना है कट्टर हिंदूवादी हैं हम किसी का सर नहीं फुडवाना चाहते न शहर बंद कराना चाहते हैं।


विजय: वहीं मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि हमें करना क्या होगा?


राजेश: करना क्या है, हमारे लोग आप से मिल लेंगे...आप ने अपना नाम बताया, काम बताया हमें लगाता है तो हमारे लोग आप से मिलना चाहिए तो मिलेंगे और बातचीत करेंगे। आप हिंदुस्तान के बारे में क्या सोचते हैं हिंदू समाज के बारे में क्या सोचते हैं हमें लगता है तो हम आपको ले लेंगे। और ये न..ऐसे तो एक हजार हिंदू संगठन चल रहे हैं हिंदुस्तान में...


विजय: हां सही बात सब वोट बैंक की राजनीति करने लगते हैं।


राजेश: आप की आवाज सही नहीं आ रही है...


विजय: अभी ये जो फैसला आने वाला है, उसमें भी कुछ करना है क्या?


राजेश: नहीं ये तो हमारे राष्ट्ीय स्वाभिमान का प्रश्न है ही, पर मुझे जो लगता है कि आने वाले कई वर्षों तक हमें हिंदू समाज के बीच में काम करना है। ये सिर्फ अयोध्या का नहीं है....ये हिंदू समाज का विषय है और कहीं न कहीं हमें कट्टरवादी हिंदू की तैयारी करनी होगी। ऐसे कुछ होने वाला नहीं है।


विजय: इधर भी अपनी कुछ तैयारी है क्या इस फैसले को लेकर?


राजेश: यह जो फैसला आ रहा है इस पर हमारी भूमिका इस लिए नहीं है कुछ...आज दिल्ली में हमारी प्रेस कॉन्फ्रेंस है।


विजय: दिल्ली में कहां, आप बताते तो मैं चला जाता


राजेश: हां...हैलो.... (खरखराहट)

 

द्वारा जारी-

शाहनवाज आलम, विजय प्रताप, राजीव यादव, शाह आलम, ऋषि सिंह, अवनीश राय, राघवेंद्र प्रताप सिंह, तारिक शफीक, अरुण उरांव, विवके मिश्रा, देवाशीष प्रसून, अंशु माला सिंह, शालिनी बाजपेई, महेश यादव, संदीप दूबे, नवीन कुमार, प्रबुद्ध गौतम, शिवदास, ओम नागर, हरेराम मिश्रा, मसीहुद्दीन संजरी, राकेश, रवि राव।

 

संपर्क - 09415254919, 09452800752,09873672153, 09015898445

Thursday, September 16, 2010

हिंदू योद्धा भर्ती अभियान को तत्काल रोके सरकार - JUCS

भगवा ब्रिग्रेड पर तत्तकाल लगे प्रतिबंध  - JUCS

मध्य प्रदेश भाजपा सरकार स्थिति स्पष्ट करे - JUCS

चिदंबरम और दिग्विजय सिंह भगवा ब्रिगेड पर चुप क्यों - JUCS

 

जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (JUCS) की मध्य प्रदेश ईकाई ने जबलपुर रेलवे स्टेशन पर 'भगवा ब्रिगेड का हिंदू योद्धा भर्ती अभियान' का पोस्टर पाया। यह पोस्टर पूरे मध्य प्रदेश में सार्वजनिक स्थानों पर लगा है। इस पोस्टर में हिन्दुत्वादियों द्वारा प्रस्तावित अयोध्या में राम मंदिर के ढ़ंाचे का छाया चित्र लगा है। इस पोस्टर में स्पष्ट रुप से लिखा है 'म0 प्र0 में 10000 हिंदू योद्धा की भर्ती अभियान की शुरुआत की है हम हिंदू युवाओं से इस मिशन से जुड़ने की अपील करते हैं' तब ऐसे में JUCS भाजपा शासित सरकार और मुख्य विपक्ष कांग्रेस की मंशा पर सवाल उठाता है।


इस पोस्टर में भगत सिंह, शिवाजी, चंद्रशेखर आजाद, भीम राव अंबेडकर समेत महान और क्रांतिकारी व्यक्तित्वों के छाया चित्र के साथ सावरकर जैसे व्यक्ति जिसने अग्रेंजों से माफी मांगी थी के छाया चित्र का इस्तेमाल करके भगवा ब्रिगेड युवाओं को अपने सांप्रदायिक एजेंडे पर भड़काना चाहता है। हिंदू योद्धा की भर्ती अभियान की बात करने वाले भगवा ब्रिगेड ने इस तथ्य को प्रमाणित कर दिया है कि हिंदू युवाओं को भड़काकर ऐसे संगठन उनका सैन्यकरण कर सांप्रदायिक और आतंकवादी देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त करते हैं।


इस पोस्टर पर भगवा ब्रिगेड के मार्ग दर्शक दामोदर सिंह यादव और संयोजक राजेश विड़कर के छाया चित्र लगे हैं और इनका पता 752 जनता क्वाटर्स, नंदानगर इंदौर और मोबाइल नंम्बर 8120002000, 9977900001 है। ऐसे में JUCS भगवा ब्रिगेड के दोनों नेताओं समेत इस संगठन के पदाधिकारियों और सदस्यों पर देश द्रोह के तहत कार्यवायी करने और दिये हुए पते के मकान को तत्तकाल सीज करने की मांग करता है। ऐसे में JUCS तत्काल प्रभाव से इस भगवा ब्रिगेड के पोस्टर समेत इस संगठन पर प्रतिबंध लगाते हुए इसकी उच्च स्तरीय जांच की मांग करता है क्यों की मध्य प्रदेश से लगातार हिन्दुत्ववादियों के आतंकवादी घटनाओं में लिप्त होने के मामले पिछले दिनों आए हैं।


ऐसे दौर में जब अयोध्या मसले पर फैसला आने वाला है तब ऐसे पोस्टरों का मध्य प्रदेश में जारी होना भाजपा सरकार की मंशा को बताता है कि वो हर हाल में देश का अमन-चैन बिगाड़ने पर उतारु है। वो अब अपने लंपट गिरोह के बजरंगियों को सड़क पर उत्पात करने को छोड़ दी है जैसा बानबे में यूपी में और 2002 में गुजरात में की थी। ऐसे में हम मांग करते हैं कि भाजपा सरकार अपनी स्थिति स्पष्ट करे।


JUCS  ने मध्य प्रदेश में मुख्य विपक्ष कांग्रेस पर आरोप लगाया है कि वह हिंदू वोट बैंक के खातिर इस गंभीर मसले पर शांत है। क्योंकी सांप्रदयिक तनाव में वह अपना भविष्य खोज रही है। मध्य प्रदेश के पूर्व कांग्रेसी मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह जो संघ गिरोह के आतंक पर यूपी में आकर राजनीति करते हैं वो इस मसले पर क्यों चुप हैं। गृह मंत्री पी चिदंबरम जो इस मसले पर काफी बोल रहे हैं उनको JUCS भगवा ब्रिगेड के इस सांप्रदायिक करतूत को बता रहा है। गृह मंत्री इस गंभीर सांप्रदायिक मसले पर अपनी स्थिति स्पष्ट करें।


द्वारा जारी-

शाहनवाज आलम, विजय प्रताप, राजीव यादव, शाह आलम, ऋषि सिंह, अवनीश राय, राघवेंद्र प्रताप सिंह, अरुण उरांव, विवके मिश्रा, देवाशीष प्रसून, अंशु माला सिंह, शालिनी बाजपेई, महेश यादव, संदीप दूबे, तारिक शफीक, नवीन कुमार, प्रबुद्ध गौतम, शिवदास,  ओम नागर, हरेराम मिश्रा, मसीहुद्दीन संजरी, राकेश, रवि राव।


संपर्क - 09415254919, 09452800752,09873672153, 09015898445

Saturday, September 11, 2010

साम्प्रदायिक खबरों को रोकने के लिए भारतीय प्रेस परिषद पहुंचे

मीडिया स्टडीज ग्रुप और जर्नलिस्टस यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (JUCS) की तरफ से वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया, विजय प्रताप, शाह आलम, और ऋषि कुमार सिंह आज अयोध्या में मंदिर मस्जिद विवाद पर अदालती फैसले के मद्देनजर परिषद द्वारा खबरों पर निगरानी रखने की मांग को लेकर भारतीय प्रेस परिषद पहुंचे।


प्रति- 
अध्यक्ष , 
भारतीय प्रेस परिषद
नई दिल्ली

विषय- अयोध्या में मंदिर मस्जिद विवाद पर अदालती फैसले के मद्देनजर परिषद द्वारा खबरों पर निगरानी रखने की अपेक्षा

हमें समाचार माध्यमों से जानकारी मिली है कि अयोध्या में मंदिर-मस्जिद विवाद संबंधी मुकदमें का फैसला कुछ दिनों में आने वाला है।न्यायालय ये फैसला करेगी कि बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि पर मालिकाना हक किसका है ।हमने ये पाया है कि साम्प्रदायिक शक्तियां एक बार फिर सामाजिक वातावरण बिगाडने की पृष्ठभूमि तैयार करने में सक्रिय हो गई है। साम्प्रदायिक दंगे भड़काने या साम्प्रदायिक माहौल को खराब करने में मीडिया की भी प्रमुख भूमिका रही है। प्रेस परिषद ने भी अपने अध्ययन में ये पाया है कि कुछ मीडिया संस्थानों की साम्प्रदायिक दंगे फैलाने में अहम भूमिका रही है। 

हम समाज के जागरूक नागरिक और संस्था होने के नाते मीडिया द्वारा किए जाने वाले समाज और संविधान विरोधी व्यवहारों को लेकर अपनी एक जम्मेदारी महसूस करते हैं। हमने समय-समय पर समाचारों या समाचार माध्यमों की उन दूसरी सामग्रियों के के प्रति पाठकों, दर्शको और श्रोताओं को सचेत करते हैं जिसका समाज पर खराब असर होता है। मीडिया में काम करने वाले लोगों के प्रति भी अपनी जिम्मेदारी महसूस करते हुए हमने उनके साथ एक संवाद बनाने की प्रक्रिया अपनायी और हमने समय-समय पर मीडिया के व्यवहारों को दुरूस्त करने का एक मौहाल बनाने की कोशिश की है। अतीत की तरह इस बार भी हमने मीडियाकर्मियों के बीच यह संवाद किया कि किस तरह से खबरों को साम्प्रदायिक होने से बचाया जा सकता है। हमने ये भी अपेक्षा की कि मीडिया में जो लोग साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ मिलकर वातावरण खराब करना चाहते हैं, उनपर भी हम नजर रखेंगे। उनकी खबरों या दूसरी सामग्री के प्रति लोगों को सचेत करने की प्रक्रिया चलाएंगे। हम आपकी सुविधा के लिए मीडियाकर्मियों के नाम की गई एक अपील की प्रति संलग्न कर रहे हैं। साथ ही हम कैसे खबरों के साम्प्रदायिक होने से बच सकते हैं और खबरों की साम्प्रदायिक सदभाव बनाने में भूमिका को लेकर भी अपने सुझाव अपने साथियों के समक्ष पेश किया है। 

हम आपसे अनुरोध करना चाहते हैं कि अतीत के अनुभवों के मद्देनजर परिषद को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिए। परिषद को भी खबरों और दूसरी सामग्री पर निगाह रखने का एक ढांचा विकसित करना चाहिए। ये कदम इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के आने से पहले तत्काल उठाना चाहिए। संस्थान की भूमिका साम्प्रदायिक दंगों के बाद मीडिया संस्थानों की भूमिका की जांच या अध्ययन करने में तो देखी गई है लेकिन हम आपसे अपेक्षा करते हैं कि हमें घटनाओं की आशंका के आलोक में ही कोई कारगऱ कदम उठाना चाहिए। हमें भरोसा है कि आप इस मामले की संवेदनशीलता को महसूस करते हुए इसे गंभीरता से लेंगे। 

हम है
मीडिया स्टडीज ग्रुप एवं जर्नलिस्टस यूनियन फ़ॉर सिविल सोसायटी (JUCS)

खबरों की साम्प्रदायिकता पर जर्नलिस्टस यूनियन फॉर सिविल सोसायटी और मीडिया स्टडीज ग्रुप की अपील


साथियों,
'साम्प्रदायिकता का खबर बनना उतना खतरनाक नहीं है, जितना खतरनाक खबरों का साम्प्रदायिक होना है।' 17 सितम्बर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले में कोर्ट का फैसला संभावित है। इसके मद्देनजर फिर मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। हालांकि यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका हमेशा ही महत्वपूर्ण होती है, लेकिन 1992 में अय़ोध्या कांड के बाद व अन्य कई साम्प्रदायिक दंगों के समय भारतीय मीडिया की भूमिका को देखते हुए हमें कुछ बातें याद दिलानी जरूरी लगती हैं, ताकि पत्रकारिता के इतिहास में कोई और काला अध्याय नहीं जुड़े। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की '92 में संघ व हिंदुत्ववादी संगठनों के नेतृत्व में जो नृशंस इतिहास रचा गया उसमें मीडिया का भी अहम रोल था। जब बाबरी विध्वंस पर कोर्ट का फैसला संभावित है, मीडिया का वही पुराना चेहरा दिखने लगा है। खासकर उत्तर प्रदेश में अखबारों ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज कर दिया है। धर्म विशेष के नेताओं के भड़काउ बयान अखबारों की मुख्य खबरें बन रही हैं। इन खबरों का दीर्घकालीन प्रभाव साम्प्रदायिकता के रूप में देखने को मिलेगा।

ऐसे में देश के तमाम प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, वेब और अन्य समाचार माध्यमों के पत्रकारों/ प्रकाशकों/संचालकों से विनम्र अपील है कि वो साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने का माध्यम न बने। आपकी थोड़ी सी सावधानी साम्प्रदायिक शक्तिओं को समाज में पीछे धकेल सकती है, और असावधानी सामाजिक ताने-बाने को नष्ट कर सकती है। ऐसे में यह आपको तय करना है कि आप किसके साथ खड़े हैं।

 संभावित फैसले के मद्देनजर अपने समाचार माध्यम में प्रकाशित होने वाली खबरों में निम्न सावधानियां बरतें -

1. अपने प्रिंट/ इलेक्ट्रॉनिक/ वेब समाचार माध्यम को यथा संभव संविधान की मूल भावना के अनुरूप धर्मनिरपेक्ष बनाए रखें। किसी भी तरह की धार्मिक कट्टरता का खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है। आपको यह समझना होगा कि मंदिर-मस्जिद से कहीं बड़ा इस देश का सामाजिक ताना-बाना है। राजनीतिक स्तर पर लोकतांत्रिक ढांचा है। एक जिम्मेदार पत्रकार व नागरिक होने का कर्तव्य निभाते हुए आप इन्हें मजबूत करने में अपना योगदान दें।

2. बतौर मीडिया हमारी सबसे बड़ी ताकत आम जनता की विश्वसनीयता है। देश का नागरिक ही हमारा पाठक वर्ग/ दर्शक/श्रोता भी है। उसके हित में ही आपका हित है। अभी तक के इतिहास से यह साफ हो चुका है कि आम नागरिकों का हित कम से कम दंगों में नहीं है। अतः आप शुद्ध रूप से व्यावसायिक होकर भी सोचे तो हमारा पाठक वर्ग तभी बचेगा जब यह देश बचेगा। और देश को बचाने के लिए उसे धर्मोन्माद और दंगों की तरफ धकेलने वाले हर कोशिश को नाकाम करना होगा। मीडिया की आजादी भी तभी तक है, जब तक कि लोकतंत्र सुरक्षित है। इसलिए आपका कर्तव्य है कि लोकतांत्रिक ढांचे को नष्ट करने वाले किसी भी राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक या सरकारी प्रयासों का विरोध करें और लोकतंत्र के पक्ष में जनमत निर्माण करें।

3. आपको यह नहीं भूलना चाहिए की हमारी छोटी सी चूक हजारों लोगों की जान ले सकती है। (दुर्भाग्यवश हर दंगे से पहले मीडिया यह भूल ही जाती है) अतः खबरों के प्रकाशन से पहले उसके तथ्यों की जांच जरूर कर लें। आधारहीन, अपुष्ट व अज्ञात सूत्रों के हवाले से आने वाली खबरों को स्थान न दें।

4. कई अखबारों व समाचार चैनलों में यह देखा गया है कि झूठी व अफवाह फैलाने वाली खबरें खुफिया एजेंसियों के हवाले से कही जाती हैं। लेकिन किस खुफिया एजेंसी ने यह बात कही है इसका उल्लेख नहीं किया जाता। किसी भी गुप्त सूत्र के हवाले से खबरें छापना गलत नहीं है। हम पत्रकारों के स्रोतों की गोपनीयता का भी पूरा सम्मान करते हुए भी यह कहना चाहेंगे कि अज्ञात खुफिया सूत्रों के हवाले से छपने वाली खबरें अक्सर फर्जी और मनगढंत होती है। दरअसल यह खबरें खुफिया एजेंसियां ही प्लांट करवाती हैं, जिसका फायदा वह अपने आगामी अभियानों के दौरान उठाती हैं। बाबरी विध्वंस के संभावित फैसले के मद्देनजर उत्तर प्रदेश में एक बार फिर से खुफिया एजेंसियों ने आईएसआई और नेपाली माओवादियों के गड़बड़ी फैलाने की आशंका वाली खबरें प्लांट करना शुरू कर दिया है। पिछले कुछ दिनों में दैनिक जागरण सहित कई अखबारों में ऐसी खबरें देखी गई। लेकिन सही मायनों में उत्तर प्रदेश की जनता आईएसआई/माओवादियों के कथित खतरनाक मंसूबों से ज्यादा संघियों/बजरंगियों/हुड़दंगियों के खतरनाक मंसूबों से डर रही है। इसलिए खबर लिखने से पहले जनता की नब्ज टटोलें, न कि खुफिया एजेंसियों की।

5. अपने प्रिंट/इलेक्टॉनिक/वेब समाचार माध्यम में धार्मिक-सामाजिक संगठनों व राजनैतिक दलों के नेताओं या धर्मावलम्बियों चाहें वो किसी भी धर्म का हो की उत्तेजक व साम्प्रदायिक बातों को स्थान न दें। फैसले के मद्देनजर ऐसे नेता व धर्मावलंबी अपना हित साधने के लिए अपनी बंदूक की गोली की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। सर्तक रहें।

6. ऐसे धार्मिक राजनीतिक सामाजिक संगठनों की प्रेस कॉन्फ्रेंस/विज्ञप्ति/सूचनाओं का बहिष्कार करें जो "सड़कों पर होगा फैसला" टाइप की उत्तेजक घोषणाएं कर रहे हैं। इन संगठनों की मंशा को समझे और उन्हें नाकाम करें। ऐसे लोगों की सबसे बड़ी ताकत मीडिया ही होती है। अगर उनके नाम व फोटो समाचार माध्यमों में दिख जाते हैं तो वह अपने मंसूबों को और तेज कर देते हैं। वह सस्ती लोकप्रियता के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। किसी को जला सकते हैं मार सकते हैं। ऐसे लोगों को बढ़ावा न दें।

7.खबरों की भाषा पर भी विशेष ध्यान देना होगा। हिंदी पत्रकारिता का मतलब हिंदू पत्रकारिता व उर्दू पत्रकारिता का मतलब मुस्लिम पत्रकारिता नहीं है। ये भाषाएं हमारी साझा सांस्कृतिक की अभिव्यक्ति का माध्यम रही हैं। हिंदी मीडिया में अक्सर उर्दू शब्दों का प्रयोग मुस्लिम धर्म व लोगों की तरफ संकेत देने के लिए किया जाता है। मसलन की हिंदी मीडिया के लिए 'जेहादी' होना आतंकी होने के समान है और धार्मिक होना सामान्य बात है। जबकि दोनों के अर्थ एक समान हैं। इससे बचना होगा।दरअसल किसी भाषा के शब्दों के जरिये मीडिया ने साम्प्रदायिक खेल खेलने का ही एक रास्ता निकाला है। कोई अगर यह कहता है कि "सड़कों पर होगा फैसला" तो आपको इसके मायने समझने होंगे। 1992 में अयोध्या सहित पूरे देश और 2002 में गुजरात में 'सड़कों पर हुए फैसलों' की विभीषिका को याद रखना होगा।

8. भारतीय संविधान में लोगों को किसी भी धर्म में आस्था रखने और किसी धर्म को छोड़ने की स्वतंत्रता मिली है। किसी मीडिया संस्थान में काम करते हुए भी आपको किसी धर्म में आस्था रखने का पूरा अधिकार है। लेकिन हमारी आस्था तब खतरनाक हो जाती है, जब यह पूर्वाग्रह पूर्ण हमारी खबरों में प्रदर्शित होने लगती है। पत्रकार कट्टर धार्मिक होकर सोचने ,समझने और लिखने लगता है। अपने यहां काम करने वाले ऐसे लोगों की शिनाख्त करने की मीडिया संस्थानों की जिम्मेदारी है। उन्हें ऐसी खबरों या बीटों से अलग रखा जाए जिसमें वह व्यक्तिगत आस्था के चलते बहुसंख्यक आम जन की आस्था को चोट पहुंचाते हों या ऐसे संगठनों को बढ़ावा देता हो जो साम्प्रदायिक हैं।

द्वारा जारी-
विजय प्रताप, शाहनवाज आलम, राजीव यादव, शाह आलम, ऋषि सिंह, अवनीश राय, राघवेंद्र प्रताप सिंह, अरुण उरांव, विवके मिश्रा, देवाशीष प्रसून, अंशु माला सिंह, शालिनी बाजपेई, महेश यादव, संदीप दूबे, तारिक शफीक, नवीन कुमार, प्रबुद्ध गौतम, शिवदास, लक्ष्मण प्रसाद, प्रवीन मालवीय, ओम नागर, हरेराम मिश्रा, मसीहुद्दीन संजरी, राकेश, रवि राव।

मीडिया स्टडीज ग्रुप की अपील

अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जमीन पर राम मंदिर बनाने के विवाद ने हजारों जानें अब तक ले ली हैं। इस विवाद ने सामाजिक ताने बाने को क्षति पहुंचाने में भी बड़ी भूमिका अदा की है।साम्प्रदायिक सद्भाव को नष्ट किया है। राजनीति के सामाजिक कल्याण के बुनियादी उद्देश्यों से भटकाने में कारगर मदद की है। 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू करने के फैसलें में इस मुद्दे ने मदद इस रूप में की कि समाज धार्मिक कट्टरता के आधार पर बंट गया और उसने इस साम्राज्यवादी साजिश को एकताबद्ध होकर विफल करने की जिम्मेदारी से चूक गया। 17 सितंबर को अयोध्या –बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला संभावित है। ऐसे में साम्प्रदायिक और साम्राज्यवादी समर्थक शक्तियां फिर से 1992 जैसे हालात पैदा करना चाहती है। हम चाहते हैं कि मीडिया की उस समय जैसी भूमिका थी हम उस पर अंकुश ऱखने के लिए पहले से निगरानी रखें। हमें पता है कि साम्प्रदायिक तनाव बढाने और समाज में साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। कई सरकारी और गैर सरकारी जांच समितियों ने भी इसकी पुष्टि की है कि किस तरह से मीडिया ने साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में अहम भूमिका अदा की। हम चाहते हैं कि मीडिया का कोई हिस्सा अब इस साजिश को अंजाम नहीं दे सकें। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) ने इस मायने में एक सार्थक पहल की है कि मीडिया में अयोध्या से संबंधी खबरें और टिप्पणियों पर नजर रखेंगी। वह उनके साम्प्रदायिक मंसूबों को उसका असर दिखाने से पहले ही धवस्त करेंगी। मीडिया स्टडीज ग्रुप ने इस पहल का स्वागत किया है। उसने देश भर में अपने सदस्यों और लोकतंत्र समर्थक पत्रकार बिरादरी के सदस्यों के नाम अपील जारी की है कि वह इस मुहिम में शामिल हो। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू या किसी भी भारतीय भाषा में प्रकाशित और प्रसारित खबरों पर वे नजर रखें। उन खबरों या टिप्पणियों का तत्काल विशेलेषण प्रस्तुत करें कि वे कैसे साम्प्रदायिक उन्माद में शामिल हो रही है। वैसी खबरों और टिप्पणियों के प्रति हम लोगों को सचेत करें। ब्लाग्स , वेबसाईट के अलावा समाचार पत्रों में वैसी खबरों और टिप्पणियों पर अपना विश्लेषण हम प्रस्तुत करेंगे। हम अपने सदस्यों और दूसरे जागरूक लोगों से अपील करते हैं कि वे ऐसी खबरों और टिप्पणियों के बारे में हमें तत्काल सूचित करें और उन पर अपना विश्लेषण भी भेंजे।
मीडिया स्टडीज ग्रुप की तरफ से अनिल चमड़िया

दास्तान-ए-हिन्दू पत्रकारिता

अयोध्या मसले पर जनमाध्यमों में आ रही सांप्रदायिक खबरों को राकने के जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) और मीडिया स्टडीज सेंटर के अभियान के तहत हम फैजाबाद से निकलने वाले जनमोर्चा के पत्रकार रहे कृष्ण प्रताप सिंह के लेख को प्रसारित कर रहे हैं। यह लेख उन पत्रकार साथियों के लिए है जो उस दौरान अयोध्या में मीडिया की भूमिका को नहीं समझ पाए या फिर उसके बाद पत्रकारिता की दुनिया में आए।

कृष्ण प्रताप सिंह

यह एक संयोग (कायदे से दुर्योग) ही था कि उधर विश्वहिन्दू परिषद ने अयोध्या को रणक्षेत्रा में बदलने के लिए दाँत किटकिटाए और इधर मेरे भीतर सोये नन्हं पत्राकार ने आँखें मलनी शुरू कीं. जिस फैजाबाद जिले में अयोध्या स्थित है उसके पूर्वांचल के एक अत्यन्त पिछड़े हुए गाँव से बेहद गरीब बाप के दिये नैतिक व सामाजिक मूल्यों की गठरी सिर पर धरकर यह पत्राकार चला तो उसका सामना विश्वहिन्दू परिषद द्वारा दाऊ दयाल खन्ना के नेतृत्त्व में सीतामढ़ी से निकाली जा रही रथयात्रा से हुआ 'आगे बढ़ो जोर से बोलो, जन्म भूमि का ताला खोलो' जैसे नारे लगाती आती यह यात्रा अन्ततः, आम लोगों द्वारा अनसुनी के बीच, तत्कालीन प्रधानमंत्राी श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या से उफना उठे सहानुभूति के समन्दर में डूब गयी थी. और डूबती भी क्यों नहीं, श्रीमती गाँधी ने अपने प्रधानमंत्री रहते इसकी बाबत कोई टिप्पणी तक नहीं की. उन्हें मालूम था कि उनकी टिप्पणी से व्यर्थ ही इस यात्रा का भाव बढ़ जायेगा. संघ परिवार इससे अति की हदतक निराश हुआ.

फिर तो इस परिवार की राजनीतिक फ्रंट भाजपा भी 'गाँधीवादी समाजवाद' के घाट पर आत्महत्या करते-करते बची. लेकिन राजीव गाँधी के प्रधानमंत्राी काल में इन दोनों ने 'नया जीवन' प्राप्त करने के लिए नये स्वांगों की शरण ली तो असुरक्षा के शिकार प्रधानमंत्राी और उनके दून स्कूल के सलाहकार ऐसे आतंकित हो गये कि उनको इन्हें मात देने का सिर्फ एक तरीका दिखा. वह यह कि अपनी ओर से ताले खोलने का इंतजाम करके तथाकथित हिन्दू कार्ड छीनकर इन्हें 'निरस्त्रा' कर दिया जाये. फिर क्या था, मुख्यमंत्राी वीर बहादुर सिंह ने इसके लिए अपनी सेवाएं प्रस्तुत कर दीं और इस बात को सिरे से भुला दिया गया कि यों ताले खुलना विवाद का अन्त नहीं, नये सिरे से उनका प्रारम्भ होगा. फिर तो उनमें से ऐसे-ऐसे जिन्न निकलने शुरू होंगे जिन्हें किसी भी बोतल में बन्द करना सम्भव नहीं होगा.

विहिप और भाजपा को तो यों भी ताले खुलने से तुष्ट नहीं होना था. इसलिए इन्होंने वही किया जो उन्हें करना चाहिए था. जैसे-जैसे राजीव गाँधी को मिले जनादेश की चमक फीकी पड़ती गयी और वे राजनीतिक चक्रव्यूहों में घिरते गये, ये रामजन्मभूमि पर भव्य मन्दिर के तथाकथित निर्माण के लिए अपनी कवायदें तेज करती गयीं. यहाँ रुककर 'रामजन्मभूमि' का अयोध्या-फैजाबाद में प्रचलित अर्थ जान लेना चाहिएः बाबरी नाम से जानी जानेवाली कई सौ साल पुरानी एक मस्जिद, जिसमें (पुलिस में दर्ज रिर्पाट के अनुसार) 22/23 दिसम्बर 1949 की रात फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधीश के के. नैयर और हिन्दू सम्प्रदायिकतावादियों की मिलीभगत से जबर्दस्ती मूर्तियाँ स्थापित कर दी गयी थीं और कह दिया गया था कि भगवान राम का प्राकट्य हो गया है. फिर यह तर्क भी दिया जाने लगा था कि ऐसा करना किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है क्योंकि यह मस्जिद एक वक्त मन्दिर को तोड़कर निर्मित की गयी और गुलामी की प्रतीक थी. बिना इस अर्थ को समझे पत्राकारों के वे विचलन दिखेंगे ही नहीं जो ऐसे तर्कशास्त्रिायों की संगति ने उनमें पैदा किये. इस अर्थ की कसौटी पर तो उनमें विचलन ही विचलन दिखायी देते हैं.

किस्सा कोताह, 1986 में ताले खुले और 1989 में राजीव गाँधी ने फिर हिन्दूकार्ड छीनने की कोशिश में 'वहीं' यानी गुलामी की प्रतीक उसी मस्जिद की जगह पर मन्दिर निर्माण के लिए शिलान्यास करा दिया. उनकी और मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की समझ यह बनी कि शिलान्यास से हिन्दू फिर खुश होकर कांग्रेस के खेमे में आ जायेंगे. फिर 'निर्माण' रोक देने से मुसलमान भी तुष्ट ही रहेंगे और कांग्रेस के दोनों हाथों में लड्डू हो जायेंगे. तब शाहबानो और बोफोर्स मामलों में फसंत के बावजूद चुनाव वैतरणी पार होने में दिक्कत नहीं होगी. मगर हुआ इसका ठीक उलटा. विहिप भाजपा ने शिलान्यास को अपनी बढ़ती हुई ताकत से डरकर सरकार द्वारा मोर्चा छोड़ देने के रूम में देखा और हर्षातिरेक में नये-नये दाँव पेचों की झड़ी लगा दी. फिर तो लोकसभा चुनाव में राजीवगाँधी का अयोध्या आकर प्रचार शुरू करने व रामराज्य लाने का वादा भी कुछ काम नहीं आया. 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस फैजाबाद लोकसभा सीट भी नहीं जीत सकी. आगे चलकर विश्वनाथ प्रताप सिंह, मुलायम सिंह यादव और पी.वी. नरसिंहराव/ कल्याण सिंह के राज में 1990-92 में कैसे 'अयोध्या खून से नहायी', 'सरयू का पानी लाल हुआ' और बाबरी मस्जिद इतिहास में समायी, यह अभी ताजा-ताजा इतिहास है.

हिन्दू कार्ड की छीना झपटी वाले इस इतिहास को वर्तमान के रूप में झेलना और पत्राकारीय जीवन का अब तक का सबसे त्रासद अनुभव था. मोहभंग के कगार तक ले जाने वाला. हालांकि इसके लिए मेरी नासमझी ही ज्यादा जिम्मेदार थी जिसके झाँसे में आकर मैं मान बैठा था कि पत्राकार होना सचमुच वाच डाग आफ पीपुल होना है. सच को सच की तरह समझने, कहने और पेश करने का हिमायती होना, मोह लोभ राग-द्वेष और छल प्रपंच से दूर होना, देश व दुनिया की बेहतरी के लिए बेड रूम से लेकर बाथरूम तक में सचेत रहना और जीवन में नैतिक, व प्रगतिशील मूल्यों का आदती होना भी. मुझे तो यह सोचने मे भी असुविधा होती थी कि कोई पत्राकार लोगों को स्थितियों और घटनाओं की यथातथ्य जानकारी देने के बजाय किसी संकीर्ण साम्प्रदायिक या धार्मिक जमात के हित में उन्हें गढ़ने व उनके उपकरण के रूप में काम करने की हद तक जा सकता है. मुझे तो पत्राकारिता की दुनिया भली ही सिर्फ इसलिए लगती थी कि यहाँ रहकर मैं जीवन के तमाम विद्रूपों का सार्थक प्रतिवाद कर सकता था. पूछ सकता था कि दुनिया इतनी बेदिल है तो क्यों है, लाख कोशिशें करने पर भी सँवरती क्यों नहीं है और कौन लोग हैं जो उसकी टेढ़ी चाल को सीधी नहीं होने दे रहे हैं?

इसलिए विहिप भाजपा की कवायदों में धार्मिक साम्प्रदायिक, व्यावसायिक और दूसरे न्यस्त स्वार्थों से पीड़ित पत्राकारों को लिप्त होते, उनके हिस्से का आधा-अधूरा और असत्य से भी ज्यादा खतरनाक 'सच' बोलते-लिखते पाता तो जैसे खुद से ही (उनसे पूछते का कोई अधिकार ही कहां था मेरे पास) पूछने लगता: भारत जैसे बहुलवादी देश में कुछ लोग धर्म का नाम लेकर युयुत्सु जमावड़े खड़े करने और लोकतंत्रा में प्राप्त सहूलियतों का इस्तेमाल उसे ही ढहाने, बदनाम करने में करने लगे हों, न संविधान को बक्श रहे हों न ही उसके मूल्यों को, दुर्भावनाओं को भावनाएं और असहिष्णुता को जीवन मूल्य बनाकर पेश कर रहे हों तो क्या पत्राकारों को उनके प्रति सारी सीमाएं तोड़कर सहिष्णु होना, उनकी पीठ ठोंकना, समर्थन व प्रोत्साहन करना चाहिए? क्या ऐसा करना खुद पत्राकारों का दुर्भावना के खेल में शामिल होना नहीं है?

दुख की बात है कि प्रतिरोध की शानदार परम्पराओं वाली हिन्दी पत्राकारिता के अनेक 'वारिस अयोध्या में दुर्भावनाओं के खेल में लगातार शामिल रहे हैं? सो भी बिना किसी अपराधबोध के. उनकी 'मुख्य धारा' तो शुरुआती दिनांे से ही इस आन्दोलन का अपने व्यावसायिक हितों के लिए इस्तेमाल करती और उसके हाथों खुद भी इस्तेमाल होती रही है. 1990-92 में तो इन दोनों की परस्पर निर्भरता इतनी बढ़ गयी थी कि लोग हिन्दी पत्राकारिता हिन्दू पत्राकारिता कहने लगे थे. भय, भ्रम, दहशत, अफवाहों और अविश्वासों के प्रसार में अपने 'हिन्दू भाइयों' को कदम से कदम मिलाकर चलने वाले हिन्दू पत्राकारिता के अलमबरदार चार अखबारोंµआज अमर उजाला, दैनिक जागरण और स्वतंत्रा भारत-की तो भारतीय प्रेस परिषद ने इसके लिए कड़े शब्दों में निन्दा भी की मगर उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. ऐसा नहीं है कि प्रतिरोध के स्वर थे ही नहीं? मगर वे नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गये थे. एक वाकया याद आता है: 1990 में विश्वनाथ प्रताप मुलायम के राज में दो नवम्बर को अयोध्या खून से नहायी (जैसा कि हिन्दू पत्राकारिता ने लिखा) तो मैं फैजाबाद से ही प्रकाशित दैनिक जनमोर्चा के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत था जिसके चैक, फैजाबाद स्थित कार्यालय में ही संवाद समितियों ने अपने कार्यालय बना रखे थे. एक संवाद समिति ने कारसेवकों पर पुलिस फायरिंग होते ही मृतकों की संख्या बढ़ा चढ़ाकर देनी शुरू कर दी तो दूसरी के मुख्यालय में 'दौड़ में पिछड़ जाने' की आशंका व्याप्त हो गयी. वहाँ से उसके संवाददता को फोन पर बुलाकर कैफियत तलब की गयी तो उसने चुटकी लेते हुए कहा 'देखिए, फायरिंग में जितने कारसेवक मारे गये हैं, उनकी ठीक-ठीक संख्या मैंने लिख दी है. बाकी की को उस संवाद समिति ने कब और कैसे मार डाला, आप को भी पता है. लेकिन कहें तो इसका मैं फिर से पता लगाऊँ. वैसे मृतकों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं तो प्लीज, एक काम कीजिए. बन्दूकें वगैरह भिजवा दीजिए. कुछ और को मारकर मैं यह संख्या प्रतिद्वन्द्वी संवाद समिति से भी आगे कर दूँ. लेकिन कार सेवक पाँच भरें और मैं पन्द्रह लिख दूँ, यह मुझसे नहीं होने वाला'

दूसरी ओर से बिना कोई जवाब दिये फोन काट दिया गया. लेकिन आत्मसंयम का यह बाँध ज्यादा देर तक नहीं टिका. मारे गये कारसेवकों की संख्या को बढ़ा चढ़ाकर छापने की प्रतिद्वन्द्विता में पत्राकारों व अखबारों ने क्या-क्या गुल खिलाये, इसे आज प्रायः सभी जानते हैं. आमलोगों में परम्परा से विश्वास चला आता था कि अखबारों में आमतौर पर पन्द्रह मौतें हों तो पाँच ही छपती हैं. कारसेवकों पर पुलिस फायरिंग ने इस भोले विश्वास को भी तोड़कर रख दिया. पत्राकार खुद मौतें पैदा करने में लग गये. सच्ची नहीं तो झूठी ही सही.

लखनऊ से प्रकाशित एक दैनिक ने तो, जो अब खुद को विश्व का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार बताता है, गजब ही कर दिया. दो नवम्बर को अपराह्न उसने अपने पाठकों के लिए जो स्पेशल सल्पिमेन्ट छापा उसमें मृत कारसेवकों की संख्या कई गुनी कर दी और लाउडस्पीकरों से सजे वाहनों में लादकर चिल्ला चिल्लाकर बेचा. मगर सुबह उसका जो संस्करण अयोध्या फैजाबाद आया उसमें मृतक संख्या घटकर बत्तीस रह गयी थी. जानकार लोग मजाक में पूछते थे कि क्या शेष मृतक रात को जिन्दा हो गये? बेचारे अखबार के पास यह तर्क भी नहीं था कि अयोध्या बहुत दूर थी और हड़बड़ी में उसे गलत सूचनाओं पर भरोसा कर लेना पड़ा. गोरखपुर से छप रहे एक मसाला व्यवसायी के दैनिक ने भी कुछ कम गजब नहीं ढाया. उपसम्पादकों ने पहले पेज की फिल्म बनवायी तो पहली हेडिंग में 150 कारसेवकों के मारे जाने की खबर थी. सम्पादक जी ने उसमें एक और शून्य बढ़वाकर 1500 करा दिया ताकि सबसे मसालेदार दिखें. वाराणसी के एक दैनिक से इन पंक्तियों के लेखक की बात हुई. पूछा गयाµसच बताइए, कितने मरे होंगे. मैंने बतायाµ30 अक्टूबर और दो नवम्बर दोनों दिनों के हड़बोंग में सोलह जानें गयी हैं और यह बहुत दुखदायी है. उधर से कहा गया छोड़िए भी. हम तो छाप रहे हैं सरयू लाल हो गयी खून से हजारों मरे. नहीं मरे तो हमारी बला से! मैं फोन करने वाले को यह समझाने में विफल रहा कि सरकार को ठीक से कटघरे में खड़ी करने के लिए फायरिंग में हुई जनहानि की वस्तुनिष्ठता व सच्ची खबरें ज्यादा जरूरी हैं अफवाहें नहीं.

मारे गये कारसेवकों की वास्तविक संख्या का पता करने का फर्ज तो जैसे पत्राकारों को याद ही नहीं रह गया था. कोई पूछेµकितने मरे? तो वे प्रतिप्रश्न करते थेµहिन्दुओं की तरह जानना चाहते हैं कि मुसलमानों की या फिर... और जो लोग 'हिन्दुओं की तरह' जानना चाहते थे, उनके लिए पत्राकारों के पास 'अतिरिक्त जानकारीयाँ भी थीं.µ 'पुलिस ही गोलियाँ चलाती तो इतने कारसेवक थोड़े मरते! पुलिस तो अन्दर-अन्दर अपने साथ ही थी. वह तो पुलिस की वर्दी में मुन्नन खाँ के आदमियों ने फायरिंग की और जमकर की. फिर लाशों को ट्रकों में भरकर सरयू में बहा दिया. मुसलमान पुलिस अफसरों व जवानों ने इसमें उनका सहयोग किया.' मुन्नन खाँ उन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश में समाजवादियों के मुलायम गुट के उभरते हुए नेता थे और उनकी बंग छवि के नाते विहिप-भाजपा ने उनमें भी एक 'मुस्लिम खलनायक' ढूँढ़ निकाला था और हिन्दू पत्राकार इसमें जी-जान लगाकर सहयोग कर रहे थे. उनको इस सच्चाई से कोई मतलब नहीं था कि अयोध्या में उस दिन किसी मुस्लिम पुलिस अधिकारी की तैनाती ही नहीं थी. फिर वह मुन्नन खाँ के कथित आदमियों को सहयोग क्या करता? लेकिन कहा जाता है न कि झूठ के पाँव नहीं होते लेकिन पंख होते हैं. इसीलिए तो कारसेवा समिति के प्रवक्ता वामदेव कह रहे थे कि दो नवम्बर की फायरिंग में उनके बारह कारसेवक मारे गये हंै. और अखबार... कैसा विडम्बना थी कि आन्दोलन का नेतृत्व करनेवाली संस्था अपनी जनहानि को 'कम करके' बता रही थी. अखबारों की 'सच्चाई' पर भरोसा करने पर यही निष्कर्ष तो निकलेगा. कोई चाहे तो यह निष्कर्ष भी निकाल ही सकता है कि 'हिन्दू' मानसिकता वाले जिस पुलिस प्रशासन ने प्रदेश सरकार द्वारा आरोपित यातायात प्रतिबन्धों को धता बताकर लाखों कारसेवकों को 30 अक्टूबर को शौर्य प्रदर्शन के लिए अयोध्या में 'प्रगट' हो जाने दिया था, उसी ने मौका मिलते ही उन्हें बेरहमी से भून डाला. पुलिस है न, उसने भून देने के लिए ही उन्हें वहाँ इकट्ठा होने दिया था. लेकिन तब भारत तिब्बत सीमा पुलिस का 'वह' अधिकारी सिर्फ इतनी-बात के लिए अखबारों के स्थानीय कार्यालयों का चक्कर क्यों काट रहा था कि कहीं दो लाइन छप जाए कि उसकी कम्पनी गोली चलाने वालों में शामिल नहीं थी, जिससे वह 'लांछित' होने से बच सके. पता नहीं वह बचा या नहीं लेकिन 'जो भी सच बोलेंगे मारे जायेंगे' की इस स्थिति की सबसे ज्यादा कीमत एकमात्रा दैनिक जनमोर्चा ने ही चुकायी. उसने मारे गये कारसवकों की वास्तविक संख्या छाप दी. तो उग्र कारसेवक इतने नाराज हुए कि सम्पादक और कार्यालय को निशाना बनाने के फेर में रहने लगे. इससे और तो और कई 'हिन्दू' पत्राकार भी खुश थे. वे कहते थे, 'ये साले (जनमोर्चा वाले) पिट जाएं तो ठीक ही है. हम सबको झूठा सिद्ध करने में लगे हैं. मुश्किल है कि ये सब भी ससुरे हिन्दू ही हैं. वरना...और सारे प्रतिबन्धों को धता बताकर, यथास्थिति बनाये रखने के अदालती आदेश के विरुद्ध, कारसेवा करने लाखों कारसेवक उस दिन अचानक अयोध्या की धरती फोड़कर निकल आए तो इस 'चमत्कार' में भी हिन्दू पत्राकारों का कुछ कम चमत्कार नहीं था. पत्राकार के तौर पर मिले व्यक्तिगत और वाहन पासों को मनमाने तौर पर दुरुपयोग के लिए इन्होंने कारसेवकों को सौंप दिया. कड़ी चैकसी के बीच जब अशोक सिंघल का अयोध्या पहुँचना एक तरह से असम्भव हो गया तो दैनिक 'स्वतंत्रा भारत' (लखनऊ) के सम्पादक राजनाथ सिंह उन्हें 'प्रेस' लिखी अपनी कार में छिपाकर ले आये. उन दिनों पत्राकारों में 'कारसेवक पत्राकारों' की एक नयी श्रेणी 'विकसित' हो गयी थी जो कारसवेक पहले थी और पत्राकार बाद में. 'जनसत्ता' के सलाहकार सम्पादक प्रभाष जोशी तो बहुत दिनों तक अपने लखनऊ संवाददाता के लिए 'जनसत्ता' के ही अपने 'कागदकारे' में 'कारसेवक पत्राकार' शब्द इस्तेमाल करते और इसकी पुष्टि करते रहे. जैसे कारसेवक पत्राकार थे वैसे ही कारसेवक अफसर व कर्मचारी भी और 'रामविरोधी' पत्राकारों व नेताओं से निपटने को लेकर इनमें अभूत पूर्व तालमेल था. बहुत कम लोगों को मालूम है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद में मूर्तियाँ रखी जाने की तिथि पर जो 'प्राकट्योत्सव' होता है, उसकी बुनियाद भी स्थानीय दैनिक 'नये लोग' के दो सम्पादकोंµ राधेश्याम शुक्ल और दिनेश माहेश्वरी ने रखी थी. राधेश्याम शुक्ल अब हैदराबाद से प्रकाशित 'स्वतंत्रा वार्ता' दैनिक के सम्पादक हैं. ज्ञातव्य है कि मन्दिर निर्माण के आन्दोलन की बुनियाद मोटे तौर पर यह हिन्दू पत्राकारों द्वारा प्रायोजित प्राकट्योत्सव ही बना था.

लेकिन यह समझना नादानी के सिवाय कुछ नहीं होगा कि कारसेवक पत्राकारों की जमात अचानक 90-92 में कहीं से आकर ठसक के साथ बैठ गयी और अपना 'दायित्व' निभाने लगी थी. कहते हैं कि 1977 में लालकृष्ण आडवाणी सूचना और प्रधानमंत्राी बने तो उन्होंने अपने दैनिक कृपापात्रों को विभिन्न अखबारों में उपकृत करा दिया था ताकि वक्त जरूरत वे काम आ सकें. बाबरी मस्जिद के पक्षकारों को तो हमेशा ही शिकायत रही है कि विहिप से दोस्ताना रवैया रखने वाले हिन्दी मीडिया ने भी उनको इन्साफ मिलने की राह रोक रखी है. वे कहते हैं: (1) इस मामले में हिन्दी मीडिया ने पीड़ित पक्ष से सहानुभूति की अपनी परम्परा 22/23 दिंसम्बर 1949 से ही छोड़ रखी है जब मस्जिद में जबरन मूर्तियाँ रखी गयीं. पीड़ित हम हैं और यह मीडिया पीड़कों के साथ है. (2) 1984 में विहिप ने सरकार पर मस्जिद के ताले खोलने का दबाव बढ़ाने के लिए रथयात्रा शुरू की तो इस मीडिया ने उसे किसी जनाधिकार के लिए 'जेनुइन' यात्रा जैसा दर्जा दिया. हर चंन्द कोशिश की कि लोगों में यह बात न जाए कि यह एक द्विपक्षी मामले को जो अदालत में विचारधीन है, और गैर वाजिब तरीके से प्रभावित करने की कोशिश है. (3) एक फरवरी 1986 को ताले खोले गये तो भी इस मीडिया ने यह कहकर भ्रम फैलाया कि राम जन्मभूमि में लगे ताले खोल दिये गये. ताले तो विवादित मस्जिद में लगाये गये थे. जिसको मीडिया बाद में शरारत 'विवादित रामजन्मभूमिµ बाबरी मस्जिद' कहने लगा और अब सीधे 'जन्मभूमि' ही कहता है. (4) ताले खोलने के पीछे की साजिश कभी भी इस मीडिया की दिलचस्पी का विषय नहीं रही. ताले दूसरे पक्ष को सुने बिना हाईकोर्ट के आदेश की अवज्ञा करके खोले गये, मगर यह तथ्य मीडिया ने या तो बताया नहीं या अनुकूलित करके बताया. (5) भूमि के एक टुकड़े पर स्वामित्व के एक छोटे से मामले को विहिप ने धार्मिक आस्था के टकराव का मामला बनाना शुरू किया तो भी इस मीडिया ने तनिक भी चिन्तित होने की जरूरत नहीं समझी. (6) 1989 में विवादित भूमि पर राममन्दिर के शिलान्यास और 1990 में कारसेवा का आन्दोलन विहिप भाजपा से ज्यादा इस मीडिया ने ही चलाया. इससे पहले विहिप की 'जनशक्ति' का हाल यह था कि लोग उसके आयोजनों को कान ही नहीं देते थे और उसे अयोध्या में लगनेवाले मेलों की भीड़ का इस्तेमाल करना पड़ता था. (7) 1990 में इस मीडिया ने लोगों में खूब गुस्सा भड़काया कि मुलायम सिंह यादव की सरकार ने अयोध्या के परिक्रमा और कार्तिक पूर्णिमा के मेलों पर रोक लगा दी. मगर विहिप यों बरी कर दिया कि पूछा तक नहीं कि क्यों उसने अपने संविधान व कानून विरोधी दुस्साहस के लिए इन मेलों का वक्त ही बारम्बार चुना? (8) मुुख्यमंत्राी मुलायम सिंह यादव के इस बयान का भी मीडिया ने जानबूझकर लोगों को भड़काने के लिए अनर्थकारी प्रचार किया कि वे अदालती आदेश की अवज्ञा करके 'बाबरी मस्जिद में परिन्दे को पर भी नहीं मारने देंगे.' जब 30 अक्टूबर 90 को कारसेवक मस्जिद के गुम्बदों पर चढ़कर भगवा झंडा फहराने में सफल हो गये तो एक कार सेवक सम्पादक, (राजनाथ सिंह, स्वतंत्रा भारत) आह्लादित होकर बोले 'परिन्दा पर मार गया. परिन्दा पर मार गया.' (9) कई अखबारों ने जानबूझकर नवम्बर की फायरिंग में मृतकों की संख्या बढ़ाकर छापने में एक दूजे से प्रतिद्वन्द्विता बरती. बाद में गलत सिद्ध हुए तो मृतकों के फर्जी नाम पते भी छाप डाले. ऐसे लोगों को भी फायरिंग में मरा हुआ बता दिया जो कभी अयोध्या गये नहीं और अभी भी जिन्दा हैं. इनके लिए विहिप की प्रेस विज्ञप्तियाँ ही खबरें होती हैं जिसके बदले में ये भाजपा द्वारा उपकृत होने की आशा रखते हैं. ऐसे कोई उपकृत चेहरे राज्यसभा में भी दिखते हैं. (10) 1992 में जब कल्याण सिंह सरकार ने विहिप और कारसेवकों को पूरी तरह अभय कर दिया कि उनके खिलाफ गोली नहीं चलायी जायेगी तो उन्होंने सिर्फ बाबरी मस्जिद का ही ध्वंस नहीं किया. उन्होंने 23 अविवादित मस्जिदों को नुकसान पहुँचाया, कब्रें तोड़ीं और मुस्लमानों के 267 घर व दुकानें जला दीं. इतना ही नहीं, उन्होंने सत्राह लोगों की जानें भी ले लीं. कजियाना मुहल्ले में एक बीमार मुस्लिम स्त्री को उन्होंने उसकी रजाई समेत बाँधकर जला दिया और उसके उस विश्वास की भी रक्षा नहीं की जो उसने उनमें जताया था. जब अन्य मुस्लमान अयोध्या से भाग रहे थे तो उसने जाने से मना कर दिया और कहा था कि भला वे मुझको मारने क्यों आयेंगे. तब कहर ऐसा बरपा हुआ था कि कोई छः हजार मुस्लमानों में से साढ़े चार हजार अयोध्या छोड़कर भाग गये थे. अपवादों को छोड़कर किसी भी हिन्दी अखबार को कारसेवकों के ये कुकृत्य नहीं दिखे . इनके लिए आज तक किसी को भी कोई सजा नहीं मिली क्योंकि सरकार ने मुकदमा चलाने की ही जरूरत नहीं समझी. आज की तारीख में कोई हिन्दी पत्राकार या अखबार इसे अपनी चिन्ताओं में शामिल नहीं करता. (11) हिन्दी मीडिया इस मामले में मुस्लिमों को खलनायक बनाने का एक भी मौका नहीं चूकता और इस तथ्य को कभी रेखांकित नहीं करता कि इस विवाद के शुरू होने से लेकर अब तक मुस्लिम पक्ष की ओ से गैर कानूनी उपचार की एक भी कोशिश नहीं की गयी है.

कई लोगों को उम्मीद थी कि छः दिसम्बर 1992 को कारसेवकों के हाथों अपने कैमरे और हाथ पैर तुड़वा लेने के बाद ये पत्राकार खुद को थोड़ा बहुत अपराधी महसूस करेंगे और आगे की रिपोर्टिंग में थोड़ा वस्तुनिष्ठ रवैया अपनायेंगे. मगर अटल बिहारी वाजपेयी के राज में मार्च, 2002 में हुए विहिप के शिलादान कार्यक्रम की रिपोर्टिंग ने इस उम्मीद को भी तोड़ दिया. विहिप भले ही इस कार्यक्रम में 90-92 जैसी स्थितियाँ नहीं दोहरा सकी मगर मीडिया में 90-92 जैसी स्थिति पैदा ही हो गयी गयी. प्रामाणिक खबरें देने के बजाय यह मीडिया फिर विहिप का काम आसान बनाने वाली कहानियाँ गढ़ने और प्रचारित प्रसारित करने में एक दूजे से आगे बढ़ने के प्रयत्नों में लग गया. पत्राकारीय मानदंडों को पहले जैसा ही रोंदते हुए. इस बार कारसेवक 'रामसेवकों' में बदल गये थे. वे आने लगे तो रेलों में डिब्बों पर अनधिकृत रूप से कब्जा कर यात्रियों को साम्प्रदायिक आधार पर तंग करने उनसे जबरिया जय श्रीराम के नारे लगवाने और लगाने की स्थिति में मारपीटकर ट्रेन से नीचे फेंक देने जैसी घटनाएं (जिनमें मौते भी हुईं) रुटीन हो गयीं. उन्होंने जगह-जगह महिलाओं से बदलसलूकी भी की. लेकिन आम यात्रियों के तौर पर ये घटनाएं खबरों का हिस्सा नहीं बनीं. जिस साबरमती ट्रेन के दो कोच गोधरा में जल गये और उनमें सवार रामसेवकों की जानें गयी. वह फैजाबाद जिले के रुदौली रेलवे स्टेशन से ही रामसेवकों की उद्दन्डता और उत्पात की गवाह बनी थी. लेकिन गोधरा को 'मुस्लिम प्रतिक्रिया' बता देने में पल भर भी न लगाने वाले मीडिया न उनके उत्पातों पर कोई भी प्रतिक्रिया देने से परहेज रखा. दैनिक जनमोर्चा को छोड़ कहीं भी इनकी खबरें नहीं छपीं. इससे गुजरात में हिन्दू प्रतिक्रिया' के सरदारों को कितनी सुविधा हुई, कौन नहीं जानता? वे न्यूटन तक को बीच में ले आए और खूँरेजी का औचित्य सिद्ध करने लगे.

सरकार ने रेलें बसें रोककर और जाँच पड़ताल का शिंकजा कसकर रामसेवकों के आने की गति धीमी कर दी तो भी अखबार और चैनल भी अब तो चैनल भी मैदान में थे, 'टकराव बढ़ने के आसार और 'रामसेवकों का आना जारी' जैसे शीर्षक ही देते रहे. विडम्बना यह कि वे सूने रामसेवक या कारसेवकपुरम की तस्वीरें छापते थे, वहाँ खौफनाक सन्नाटे की बात करते थे लेकिन उन हजारों कारसेवकों का उनके पास एक भी चित्रा नहीं होता था जिनका आना वे जोर-शोर से बता रहे थे. यह बेईमानी' इसलिए थी ताकि कम से कम इतनी भी भीड़ तो जुट ही जाए कि विहिप अपनी 'जनशक्ति' जता सके. एक दैनिक ने तो लिखा भी 'विहिप की जनशक्ति को लेकर किसी भुलावे में नहीं रहना चाहिए.'

दूसरी ओर अयोध्या, फैजाबाद के नागरिक कफ्र्यू से भी बुरी हालात में विहिप के रामसेवकों और सरकारी सेवकों के पाटों के बीच पिस रहे थे मगर उनके लिए मीडिया के पास समय नहीं था. कुछ पत्राकार नागरिकों की प्रतिबन्धों से आजादी के पक्ष में थे भी तो इस चालाकी में कि इसकी आड़ में रामसेवककों की घुसपैठ हो सके. हैरत की बात थी कि 2002 में भी पत्राकार विहिप को हिन्दुओं के 'विधिमान्य' वास्तविक प्रतिनिधि के रूप में ही प्रचारित कर रहे थे. उन्हें यह बताना गवारा नहीं था कि विहिप का समझौते कर लेने और मुकरकर समस्याएं खड़ी करने का इतिहास रहा है. कई पत्राकार विहिप के जटाजूटधारियों और साधुवेशियों को अनिवार्य रूप से सन्त बनाये हुए थे. लेकिन इन सन्तों की इस असलियत से उन्हें कोई मतलब नहीं था कि उनमें से कई बेपेंदी के लोटे हैं. उनकी बातें गाड़ी के पहिये की तरह चलती रहती हैं और आज कहकर कल मुकर जाने और कुछ और कहने लग जाने में वे अपना सानी नहीं रखते. 'शिला दानी' रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष रामचन्द दास पर महंत ने एलान किया हुआ था कि पन्द्रह मार्च को वे लाठी गोली की परवाह न करते हुए विहिप की कार्यशाला से तराशे गये पत्थर लेकर अधिग्रहीत परिसर जायेंगे. बाद में उन्होंने कह दिया कि वे वहाँ जायेंगे ही नहीं. एक बार एक पत्राकार ने उनसे पूछा कि आखिर उन्होंने रुष्ट होकर जान देने की घोषणा क्यों की. उनका जवाब था ऐसा न करता तो क्या तुम लोग मुझे घेरकर बैठते? किसी भी पत्राकार ने उनकी इस 'प्रचार प्रियता' का नोटिस नहीं लिया. विहिप के नेता इस पल अदालत का फैसला मानते थे और उस पल मानने से इनकार कर देते थे मगर कहीं भी पत्राकार इसके प्रति आलोचनात्मक नहीं थे.

2002 में विश्व हिन्दू परिषद के तमाशों से आजिज अयोध्यावासियों में गुस्सा भड़का हुआ था और वे उसे छिपा भी नहीं रहे थे पर मीडिया ने इसे भरपूर छिपाया. नागरिकों के स्वतःस्फूर्त और अराजनीतिक शांतिमार्च की खबर देने के लिए भी उसके पास शब्द नहीं थे. उसने फिर खुद को विहिप के साथ नत्थी कर लिया था हालांकि विहिप अपने शुभचिन्तक मीडिया के प्रति अभी भी सहिष्णु नहीं थी. एसोसिएटेड प्रेस के एक संवाददाता को तो विहिपवालों ने पीटा भी. फिर भी साम्प्रदायिक कारणों से विहिप के साथ नत्थी पत्राकार ऐसी खबरें गढ़ते रहे जिनसे अपने अयोध्या में बने रहने का औचित्य सिद्ध कर सकें. ऐसा ही उन्होंने 1990-92 में भी किया था.

इस सिलसिले में उनकी भाषा पर गौर किये बिना बात अधूरी रहेगी. विश्वहिन्दू परिषद देश की सबसे बड़ी अदालत के आदेशों की अवज्ञा और 'हर हाल में मनमानी' पर अड़ी हुई थी तो इसे उसका 'अडिग रहना' कहकर ग्लैमराइज किया जाता था. जैसे उसकी जिद किसी प्रशंसनीय उद्देश्य से जुड़ी हुई हो और उसके पूरी हो जाने से इस देश के लोगों में कम से कम हिन्दुओं की तमाम चिन्ताओं का एकमुश्त समाधान हो जाने वाला हो. विहिप अपनी बात से मुकर जाती तो मीडिया इसे उसका रणनीति बदलना कहता और विहिप के विरोधी यानी (रामविरोधी) अपनी बात की दोहराते तो कहा जाताµ वे अपनी हठधर्मी पर कायम हैं. मुलायम सिंह यादव के पिछले मुख्यमंत्रित्व काल में जब विहिप ने उनसे 'मिलकर' अयोध्या कूच का नारा दिया तो भी मीडिया अपने पुराने रंग में ही दिखा. अभी हाल में अलकायदा की ओर से अयोध्या के सन्तों को धमकी भरे पत्रों के कथित मामले को साम्प्रदायिक रंग देने में जुटे हिन्दू पत्राकारों को तब साँप सूँघ गया जब पता चला कि वे पत्रा तो महन्त नृत्य गोपाल दास के एक नाराज शिष्य का खेल था.

यह 'परम्परा' अभी भी अटूट है. इसीलिए कहा जाता है कि अयोध्या फैजाबाद में विहिप को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार उसकी समर्थक है अथवा विरोधी क्योंकि प्रशासन और पत्राकार प्रायः उसी के हाथ में खेलते रहते हैं. प्रतिगामिता की हद यह कि ऐसे में वे तनिक भी तार्किक नहीं होते. विहिप द्वारा प्रायोजित फासीवाद भी, कहीं आया हो या नहीं, और चाहे 'फैसला कुछ भी हो मन्दिर तो वहीं बनना चाहिए' कहने वालों पर भी कम व्यापा हो, इन पत्राकारों पर तो इस तरह नशा बनकर छाया है कि उतर ही नहीं रहा. उतर जाता तो वे समझ जाते कि साम्प्रदायिकता तो किसी भी समाज में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक तनावों का बाई प्रोडक्ट होती है और उसका कोई भविष्य नहीं होता. तब वे खुद (साम्प्रदायिक) हिन्दू होने के लिए प्रगतिशीलता और प्रतिरोध की गौरवशाली विरासत की धनी हिन्दी पत्राकारिता को शर्मसार करने पर न उतरे रहते. मरने वाले का धर्म पूछकर खुश या नाखुश नहीं होते. तब झूठ और फरेब मिलकर भी किसी अखबार में यह 'खबर' नहीं छपवा पाते कि 90 में कारसेवकों के 'दमन' करनेवाले एक पुलिस अधिकारी की ईश्वर के कोप से आँख ही बह गयी. तब दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला राम मन्दिर निर्माण का घोटाला इतना अचर्चित नहीं रहता. कोई न कोई शिलापूजन के दौरान देश-विदेश से प्राप्त हुई रत्नजटिता शिलाओं का अता-पता भी पूछता ही. मगर आज तो कोई उस 'हुतात्माकोष' के बारे में भी कोई सवाल नहीं उठया जाता जिसे विहिप ने फायरिंग में मारे गये कारसेवकों के परिजनों की मदद के लिए बनाया था. और जिसमें आयी धनराशि का ब्यौरा आज तक किसी को ज्ञात नहीं है. उससे किस कारसेवक के किस परिजन को कितनी मदद दी गयी. यह भी कोई नहीं जानता.

निष्कर्ष साफ है: हिन्दी पत्राकारिता इस तरह हिन्दू पत्राकारिता में ढलकर हिन्दी की लाज तो गँवायेगी ही गँवायेगी हिन्दुत्व की लाज भी नहीं बचा पायेगी. झुनझुना बनकर रह जायेगी, बस और लोग उस पर एतबार करना छोड़ देंगे. तब 'हिन्दुत्व' के अलमबरदारों के लिए भी 'हिन्दू पत्राकारों' का कोई इस्तेमाल नहीं रह जायेगा.

दैनिक जागरण अतिसर्तकता से क्यों घबरा रहा है?




दैनिक जागरण ने 31 अगस्त 2010 को अपने संपादकीय 'अति सर्तकता' में 'चिंता' जताई है कि बाबरी मस्जिद पर जैसे-जैसे फैसला आने का समय नजदीक आ रहा है वैसे-वैसे प्रदेश में प्रशासनिक स्तर पर सक्रियता क्यों बढ़ाई जा रही है। यहां यह सवाल उठता है कि बानबे की बजरंगी करतूतों से डरा हुआ समाज जब फिर से संघ गिरोह द्वारा खुलेआम इस धमकी से कि यदि फैसला उनके खिलाफ जाता है तो फिर से सड़क पर उतरेंगे, डरा हुआ है और उसके मन में बानबे की विभीषिका फिर से जिंदा हो उठी है ऐसे में हर अमन पंसद नागरिक इस बार एक चौकस व्यवस्था चाहता है। तब देश के सबसे ज्यादा लोगों के बीच पढ़ा जाने वाला अखबार बहुसंख्क जनता की इस चिंता को क्यों नजरंदाज कर रहा है। दैनिक जागरण को आम लोगों की तरह यह क्यों नहीं लगता कि अगर बानबे में तत्कालीन कल्याण सरकार ने चाक चौबंध व्यवस्था की होती तो बाबरी मस्जिद के विध्वंस जैसी बड़ी आतंकवादी घटना न हो पाती और न ही इतने लोग मारे गए होते।
दरअसल मामला समझदारी या मूर्खता का नहीं है। सवाल इस अखबार की इस देश के लोकतंत्र और उसके धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति संवेदनशीलता का है। जिस पर यह अखबार हमेशा कमजोर दिखा है। दरअसल उसकी यह कमजोरी ही थी कि उसने बानबे में संघ के पक्ष में 'सरयू लाल हुयी' टाइप की अफवाह फैलाने वाली खबरें लिखीं और संघियों को उत्पात करने के लिए प्ररित किया। जब प्रशासन से जुड़े हुए अधिकारी संघी गिरोहों में शामिल होकर, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की सुरक्षा की जिम्मेदारी से पीछे हटकर कारसेवकों को खुलेआम मदद पहुंचा रहे थे तब इस अखबार ने इतनी बड़ी प्रशासनिक विफलता को कभी खबर का हिस्सा नहीं बनाया। शायद तब उसे ये सरकारी अधिकारी अपना 'राजधर्म' निभाने वाले लगे हों। जबकि वहीं दूसरे अखबारों ने प्रशासनिक अधिकारियों के सांप्रदायिक रवैये के खिलाफ खबरें लिखीं। आज जबकि संघ पस्त है और प्रज्ञा-पुरोहित जैसे इनके गुर्गों को पुलिस पकड़ रही है और बाकी मारे-मारे, भागे-भागे फिर रहे हैं और सफाई देते-देते बेहाल हैं, तब शायद दैनिक जागरण चाक चौबंद व्यवस्था पर सवाल उठाकर बजरंगियों को फिर से तैयार रहने के लिए माहौल बना रहा है। शायद दैनिक जागरण बानबे के संघी प्रशासनिक अधिकारियों की तरह, जब बजरंगियों ने 'ये अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है' का उद्घोष करके पुलिस के अपने साथ होने का प्रमाण दिया था, जैसे खुली संघी पक्षधरता वाले पुलिस को न पाकर परेशान है।

संपादकीय के अंत में अखबार ने कहा है कि इस मसले का हल राजनीतिक दलों की आपसी बातचीत से हो सकता था लेकिन किसी ने इस पर ईमानदारी से पहल नहीं की। दरअसल, दैनिक जागरण यहां संघ परिवार के इस तर्क को ही शब्द दे रहा है कि मसले का हल कोर्ट के बाहर राजनीतिक स्तर पर हो यानी संसद में कानूून बनाकर। दूसरे शब्दों में जागरण बहुसंख्यकवाद में तब्दील हो चुके इस राजनीतिक व्यवस्था में इस मुद्दे का हल बहुसंख्यकों के पक्ष में तर्क के बजाय आस्था के बहाने करना चाहता है।

द्वारा जारी-
शाहनवाज आलम, विजय प्रताप, राजीव यादव, शाह आलम, ऋषि सिंह, अवनीश राय, राघवेंद्र प्रताप सिंह, अरुण उरांव, विवके मिश्रा, देवाशीष प्रसून, अंशु माला सिंह, शालिनी बाजपेई, महेश यादव, संदीप दूबे, तारिक शफीक, नवीन कुमार, प्रबुद्ध गौतम, शिवदास, लक्ष्मण प्रसाद, हरेराम मिश्रा, मसीहुद्दीन संजरी, राकेश, रवि राव।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) की दिल्ली और यूपी ईकाई द्वारा जारी। 

दैनिक जागरण ने फिर शुरु की अयोध्या पर खबरों की संघी राजनीति

दैनिक जागरण में 31 अगस्त 10 को प्रादेशिक खबरों के पेज पर 'आईएसआई
बिगाड़ सकती है माहौल' सुर्खी से छपी खबर से लगता है कि यह अखबार 1992 की
अपनी करतूतों को दोहराने पर उतारु हो गया है। गौरतलब है कि 1992 में
बाबरी मुद्दे पर अफवाह फैलाने के स्तर तक यह अखबार उतरा था और अपनी
सांप्रदायिक खबरों से इस घटना के बाद दंगों में मारे गए हजारों लोगों की
हत्या का भागीदार बना। हिंदी पत्रकारिता के बजाय हिन्दुत्वादी पत्रकारिता
के लिए जाने-जाने वाले इस अखबार की करतूतों से अखबारों की विश्वसनियता तो
कटघरे में खड़ी ही हुयी, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने भी अधिकृत तौर पर
संप्रदायिक खबरों के लिए इसे लताड़ लगायी थी।
मौजूदा खबर में बताया गया है कि अयोध्या मुद्दे पर फैसला आने के बाद
आईएसआई कानून व्यवस्था की समस्या खड़ी कर सकता है। यहां गौरतलब है कि
पूरा देश और समाज इस बात से दहशत में है कि संघ गिरोह कहीं फिर से बानबे
की तरह देश को दंगों की आग में न झांेक दे। हर तरफ लोग इस गिरोह के
गुर्गे बजरंगदल, विश्वहिंदू परिषद जैसे संगठनों से सहमें हुए हैं जिनके
शक को इस गिरोह के लोगों द्वारा सार्वजनिक तौर पर यह धमकी भी है कि कोर्ट
का फैसला अगर उनके खिलाफ गया तो वे सड़कों पर उतरेंगे। देश अपने अनुभव से
जान चुका है कि इस गिरोह के लोगों का सड़कों पर उतरने का मतलब फिर से
गुजरात और कंधमाल दोहराने की ही धमकी है। बावजूद इसके अखबार न तो जनता
में व्याप्त इस डर को अपनी खबर में रेखांकित करता है बल्कि पाकिस्तान और
आईएसआई का हव्वा खड़ा कर वास्तविक खतरे से ध्यान बटाना चाहता है।

इस खबर में खूफिया विभाग के 'सूत्रों' द्वारा जिस तरह बताया गया है वह इस
बात को दर्शाता है कि हमारी सरकारें किस तरह अपनी नाकामी और सांप्रदायिक
राजनीति को पाकिस्तान के खतरे का हव्वा खडा कर सांप्रदायिक राष्ट्वाद को
स्थापित करती हैं। उसी की यह कड़ी है। खूफिया के सूत्र आईएसआई का हव्वा
खड़ा कर इससे निपटने के नाम पर बजरंगियों को न्योता दे रहे हैं। जिससे एक
बार फिर सांप्रदायिकता और दंगों की फसल काटी जा सके।

खबर में भारत-नेपाल सीमा के 550 किलोमीटर के खुले होने के नाम पर जिस
आईएसआई का माहौल बनाया गया है उसकी राजनीति को समझना मुश्किल नहीं है।
दरअसल, राजग जरकार ने अपने शासन काल में भारत-नेपाल सीमा के मदरसों से
आईएसआई की गतिविधियां संचालित होने का आरोप लगातार लगाती, जिसे राजग कभी
पुष्ट नहीं कर पायी। लेकिन बावजूद इसके उसकी विचारधारा के अखबार लगातार
इस बाबत मुनादी पीटते रहे हैं।

दरअसल भारत-नेपाल के तराई की संवेदनशीलता के बहाने इस क्षेत्र में उग्र
हिंदुत्वादी राजनीति को संचालित करने वाले योगी आदित्यनाथ के लिए माहौल
बनाया जा रहा है। अपने अर्न्तद्वन्दों से जूझ रही भाजपा जहां चुनावों में
योगी का सहारा ले रही है तो वहीं इस मुद्दे पर भी वह योगी को ही सामने ला
रही है। इसकी खुलेआम शुरुआत योगी ने 29 अगस्त को आजमगढ़ में राष्ट् रक्षा
रैली करके की।

भाजपा और संघ के पक्ष में माहौल बनाने के उतावलेपन में खबर में यहां तक
बता दिया गया है कि इन सीमावर्ती जिलों में ऐसे लोगों की सूची तैयार की
जा रही है जो नेपाल के माओवादियों के संपर्क में हैं। यहां जेयूसीएस
दैनिक जागरण से सवाल पूछना चाहता है कि जब माओवादी नास्तिक व्यवस्था को
मानने वाले हैं तो उनका इस्लामिक धर्मतंत्र स्थापित करने वाले आईएसआई से
कैसा संपर्क हो सकता है। यह दरअसल भाजपा की राजनीतिक लाईन है जो
माओवादियों और आईएसआई को जोड़ने के लिए लंबे समय से कुतर्क गढ़ते रहे हैं
जिसमें दैनिक जागरण जैसे अखबार संघ गिरोह के कुतर्कों को फैलाने का
स्पोक्समैन बने हुए हैं।

जाहिर है अगर कोर्ट का फैसला संघ गिरोह के खिलाफ आता है और बजरंगी देश को
एक बार फिर दंगों की आग में झोंकने में सफल हो जाते हैं तो जिम्मेदार यह
अखबार भी उतना ही होगा जितना संघ गिरोह।

द्वारा जारी-
राघवेंद्र प्रताप सिंह, शाहनवाज आलम, विजय प्रताप, राजीव यादव, शाह आलम,
ऋषि सिंह, अवनीश राय, अरुण उरांव, विवके मिश्रा, देवाशीष प्रसून, अंशु
माला सिंह, संदीप दूबे, तारिक शफीक, लक्ष्मण प्रसाद, हरेराम मिश्रा,
मसीहुद्दीन संजरी, राकेश, रवि राव।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) की दिल्ली और यूपी ईकाई
द्वारा जारी।

अयोध्या मसले पर आ रही खबरों की जेयूसीएस करेगा मानिटरिंग

जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी ने निर्णय लिया है कि अयोध्या मसले
पर आ रहे न्यायालय के फैसले पर खबरों की मानिटरिंग की जाएगी। पिछले दिनों
से जैसे-जैसे फैसले की तारीख नजदीक आ रही है वैसे-वैसे प्रायोजित रुप से
सांप्रदायिक खबरों को परोसने की कवायद तेज हो गयी है। खबरों की यह
मानिटरिंग मुख्य रुप से उत्तर प्रदेश और दिल्ली के जनमाध्यमों की होगी।
जेयूसीएस ने मीडिया कर्मियों से अपील की है कि इस दौरान वे खबरों को
प्रसारित करते समय विशेष सतर्कता बरतें। सूत्रों की राजनीति की खबरों को
प्रसारित करते समय संस्थान खबर देने वाले व्यक्ति की बाई लाइन लगाएं।
जिससे यह शिनाख्त आसान हो जाए कि खबर कहां से दी जा रही है या लायी जा
रही है।

प्रेस काउंसिल ऑॅफ इंडिया को ऐसी खबरों पर तत्काल लगाम लगाने की जरुरत है
जिससे एक बार फिर बानबे की तरह पत्रकारिता पर कलंक न लगे और जो दोषी हों
उनके खिलाफ कार्यवायी हो। जेयूसीएस इस दौरान खबरों की मानिटरिंग रिपोर्ट
से प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को नियमित अवगत कराएगा।

जेयूसीएस ने कहा कि इस मानिटरिंग को अभी से शुरु करने की इसलिए आवश्यकता
हुयी जिससे कि कोई सांप्रदायिक घटना न हो सके। पिछले कुछ दशकों में देखा
गया है कि जनमाध्यमों द्वारा भ्रामक और प्रायोजित खबरों के संजाल ने देश
में सांप्रदायिक तनाव पैदा कराकर हजारों-हजार मासूम निर्दोषों का नरसंहार
करवाया। जेयूसीएस बुद्धिजीवी समाज से भी अपील करता है कि वो ऐसे किसी भी
ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रम में न जाएं जहां से सांप्रदायिकता हो बढ़ावा मिल
सकता है। यहां जेयूसीएस इस मुद्दे पर सहमत तमाम बुद्धिजीवियों, पत्रकारों
और सामाजिक कार्यकताओं से अपील करता है कि उनकी निगाह से ऐसी खबरें
गुजरें तो वे जेयूसीएस को अवगत कराएं।

द्वारा जारी-
राघवेंद्र प्रताप सिंह, शाहनवाज आलम, विजय प्रताप, राजीव यादव, शाह आलम,
ऋषि सिंह, अवनीश राय, अरुण उरांव, विवके मिश्रा, अंशु माला सिंह, संदीप
दूबे, तारिक शफीक, लक्ष्मण प्रसाद, मसीहुद्दीन संजरी, देवाशीष प्रसून,
राकेश, रवि राव।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी ;जेयूसीएसद्ध की दिल्ली और यूपी ईकाई
द्वारा जारी।