इलाहाबाद के क्राइम रिपोर्टरों की आजकल चांदी है। मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के प्रदेश संगठन सचिव और दस्तक की संपादक सीमा आजाद को कथित नक्सली बताकर पकड़े जाने के बाद इन क्राइम रिपोर्टरों में सनसनी फैलाने की कुकुरदौड़ मच गयी है। जिसमें सबसे आगे सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले दैनिक जागरण के क्राइम रिपोर्टर आशुतोष तिवारी हैं। जो जासूसी उपान्यासों के तर्ज पर खबरें परोस रहे हैं। ये वही क्राइम रिपोर्टर हैं जो पिछले साल ऐसी ही एक खबर जिसमें उन्होंने इलाहाबाद के हंडिया तहसील के धोबहा गांव की एक मस्जिद से एक 47 और कई बोरे विस्फोटक बरामद होने की फर्जी खबर लिख कर अपनी काफी थुक्का फजीहत करवा चुके हैं। बहरहाल हम यहां सीमा आजाद और माओवाद पर उनके द्वारा प्रदर्शित ‘पांडित्य’ पर बात करेंगे।14 फरवरी 2010 के दैनिक जागरण के प्रथम पृष्ठ पर छपे ‘माओवादियों की बंदूक, बाबू का निशाना’ में उन्होंने ‘रहस्योद्घाटन’ किया कि बाबू उर्फ अर्ताउरहमान जो आईएसआई का एजेंट है साथ ही बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी का साला है और भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या में आरोपित है, अब माओवादियों से हाथ मिला चुका है। तिवारी जी के मुताबिक वो पिछले तीन महीने से माओवादियों के साथ काम कर रहा है और उसके निशाने पर यमुना पार के युवा हैं।तिवारी जी की इस खबर पर टिप्पणी से पहले यह जान लेना जरुरी होगा कि पिछले दिनों नक्सलवाद और माओवाद की समस्या पर संसद में रिपोर्ट रखते हुए गृह मंत्री ने साफ कहा था कि "माओवादियों का आईएसआई या पाकिस्तान से संबंध जोड़ने का कोई तथ्य नहीं मिला है और न ही माओवादियों के पास से चीन निर्मित हथियार ही मिले हैं।" रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया है कि इस तरह की खबरें जिनमें माओवादियों को पाकिस्तान या चीन से जोड़ा जाता है मीडिया की अपनी उपज है।समझा जा सकता है कि आशुतोष तिवारी जैसे लोग जो सरकारी रिपोर्ट को ही स्रोत और पुलिसिया केस डायरी की नकल को पत्रकारिता समझते हैं उनकी यह रिपोर्ट खुद सरकारी स्टैंड के खिलाफ तो है ही गृह मंत्रालय के मुताबिक उनकी खबरें ‘मनगढ़ंत’ भी हैं।अब आते हैं ‘मुख्तार कनेक्शन पर’ सर्वविदित है कि भाजपा विधायक कृष्णा नंद राय पूर्वांचल के दुर्दांत माफिया थे, जिनका दबदबा गाजीपुर से सटे बिहार के जिलों में भी था। और खास तौर से बच्चों के अपहरण में जब-तब उनका नाम उछलता रहता था। मुख्तार अंसारी माफिया गिरोह द्वारा दिन दहाड़े की गयी कृष्णानंद राय की हत्या दो माफियाओं द्वारा वर्चस्व की लड़ाई का परिणाम था जिसे भाजपा और भगवा मानसिकता के पत्रकारों ने सांप्रदायिक रंग देने की खूब कोशिश भी की थी। जिसके तहत मुख्तार अंसारी के तार पाकिस्तान और आईएसआई से जोड़े जाने लगे लेकिन भगवा पत्रकारों की यह साजिश इसलिए नाकाम हो गयी कि कृष्णानंद राय की हत्या मुन्ना बजरंगी नाम के हिंदू अपराधी ने मुख्तार के कहने पर की थी। यह नाकामी एक कुंठा बन गयी बावजूद इसके आशुतोष तिवारी जैसे लोग अभी भी इस अभियान में लगे हैं और तरह-तरह से कुठा का प्रदर्शन कर रहे हैं। बाबू उर्फ अर्ताउरहमान जो तिवारी जी के अनुसार मुख्तार का साला और आईएसआई का एजेंट है और जिसने पूर्वांचल में माओवादी गतिविधियों का उन्हीं के शब्दों में ‘ठेका’ ले चुका है, का नाम अचानक उभरना इसी अभियान और कुंठा का हिस्सा है।आशुतोष जी की जानकारी के लिए पहले तो यह बताना जरुरी है कि आईएसआई समर्थित आतंकवाद भारत में इस्लाम का शासन स्थापित करना चाहता है। ठीक वैसे ही जैसे संघ परिवार धर्म निरपेक्ष भारत को हिंदू राष्ट् में तब्दील कर देना चाहता है। जबकि माओवादी अपनी अराजकता और उग्रवादी गतिविधियों से भारत में माओवादी शासन लाना चाहते हैं। अब आशुतोष जी जानें कि माओवाद एक भौतिकवादी दर्शन है और उसके मानने वाले नास्तिक होते हैं। इसी विचारधारा के चलते चीन ने जहां अनगिनत पैगोडा-बौद्ध मंदिर और उइगर के इस्लामी चरम पंथियों और उनके द्वारा संचालित संदिग्ध मदरसों और मस्जिदों को नेस्तनाबूद किया है। अब ऐसे नास्तिक माओवादियों का धर्म तंत्र स्थापित करने के लिए लड़ने वालों से कोई भी समझदार और गंभीर आदमी से संबंध जोड़ने की मूर्खता नहीं कर सकता। हां, पांचजन्य या ‘बिना हड्डी का कंकाल’ जैसा जासूसी उपन्यास पढ़ने वाला ऐसा जरुर कर सकता है।दरअसल तिवारी जी बाबू उर्फ अर्ताउरहमान को पूर्वांचल में माओवादी गतिविधियों का ‘ठेका’ लेने की खबर लिख कर पूर्वांचल में सक्रिय मुख्तार गैंग को इलाहाबाद के कथित माओवाद से जोड़कर एक मूर्खतापूर्ण लेकिन खतरनाक ‘हरा प्लस लाल’ कोरीडोर बना रहे हैं। लेकिन चूंकि वे मूल रुप से क्राइम रिपोर्टर हैं इसलिए ऐसी कल्पना लिखते समय उनका शब्द कोष आड़े आ जाता है और उन्हें ‘ठेका’ जैसे शब्द से काम चलाना पड़ता है। दरअसल तिवारी जी पर किसी भी ऐसी घटना को ‘यमुना पार’ से जोड़ने का पुलिसिया दबाव है। इसीलिए उन्होंने लिखा कि ‘बाबू की नजर यमुना पार के युवकों पर है।’ ऐसा इसलिए कि यमुना पार क्षेत्र में अखिल भारतीय किसान मजदूर संगठन जो संसदीय व्यवस्था में यकीन रखने वाली भाकपा माले न्यूडेमोक्रेसी का किसान संगठन है के नेतृत्व में निषाद जाति के लोग बालू माफिया, अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा के अध्यक्ष और बसपा सांसद कपिल मुनि करवरिया के खिलाफ जुझारु आंदोलन चला रहे हैं। इसीलिए किसी भी कथित और काल्पनिक माओवादी आंदोलन को वह यमुना पार से जोड़कर उस आंदोलन को जिसे वे और अन्य पत्रकार भी ‘लाल सलाम’ से संबोधित करते हैं, बदनाम करने के लिए ओवर टाइम में खट रहे हैं।बहराहाल इस खबर का रोचक तथ्य वह वाक्य है जिसमें वे लिखते हैं ‘बाबू ने नेपाल में सरकार के तख्ता पलट में भी अहम भूमिका निभाई थी।’ यहां गौरतलब है कि माओवादियों की ही सरकार का तख्ता पलट हुआ था। ऐसे में इसे हास्यास्पद ही कहा जाएगा कि माओवादियों की सरकार गिराने वाला ही माओवादियों का सरगना भी हो। बहरहाल आशुतोष जी का यह जासूसी उपन्यास अंश यहीं नहीं रुकता और पंद्रह फरवरी यानी अगले दिन प्रथम पृष्ठ पर छपे ‘लखनऊ जेल पर माओवादी हमले का प्लान’ (आश्चर्यजनक है कि प्रदेश भर के किसी भी पत्रकार को इस हमले की साजिश की जानकारी नहीं हुयी और आशुतोष जी ने इलाहाबाद डेट लाइन से लखनऊ में होने वाले इस काल्पनिक हमले की खबर लिख दी।) में लिखा कि कानपुर, लखनऊ और इलाहाबाद से माओवादियों की गिरफ्तारी एफबीआई की सहायता से हुयी। समझा जा सकता है कि जहां दूसरे पत्रकारों की कल्पनाएं गिरफ्तारी के पीछे सर्विलांस और पुलिस की सक्रियता को ही आधार बना रहे थे वहीं तिवारी जी की कल्पना सात समंदर पार अमेरिका स्थित एफबीआई तक पहुंच गयी। खैर जासूसी उपान्यास की तर्ज पर खबर लिखने वाले को अगर सांसद और पुलिस दोनों के दबाव में खटना पड़े तो ऐसी ही खबरें जन्म लेंगी।एक बात और ये वही पत्रकार हैं जिन्होंने सीमा आजाद की गिरफ्तारी के दूसरे दिन लिख दिया ‘विनायक सेन और प्रशांत हाल्दर से मिल चुकी है सीमा।’ अब तिवारी जी को कौन बताया कि विनायक सेन अब जेल में नहीं हैं, बाहर हैं और उनसे कोई मिल सकता है और प्रशांत हाल्दर बंगाल के जाने-माने लेखक हैं जो तमाम पत्र पत्रिकाओं में लिखते हैं।बहरहाल जेयूसीएस मानता है कि एक ऐसे समय में लेखन का क्रेज कम हो रहा हो, जासूसी उपान्यास जैसा लेखन भी प्रोत्साहन का हामी है। सवाल सिर्फ आशुतोष तिवारी पर से सांसद कपिलमुनि करवरिया और पुलिस के उस दबाव को खत्म करने का है। जिससे उनका मानसिक संतुलन कम पड़ गया है। हम उनके इस दबाव से उबरने की कामना करते हैं और हालांकि आशुतोष बुद्विजीवी की श्रेणी में नहीं आते लेकिन हम उन्हें किसन पटनायक लिखित ‘पुस्तक विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ का ‘चीन और भारतीय बुद्विजीवी’ पढ़ने का आग्रह करते हैं। उम्मीद है असर होगा अब ये असर कितना होता है इसका मूल्यांकन जेयूसीएस का मीडिया मानिटरिंग सेल उनकी आने वाली रिपोर्टों में करेगा।
अगर आप हमारी इन बातों से सहमत और खबर से असहमत हैं तो दैनिक जागरण इलाहाबाद के स्थानीय सम्पादक से भी अपनी असहमति दर्ज कराएं. संपर्क यहाँ करे 0532 - 2407618, 2408737 या allahabad@ald.jagaran.com
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा राष्ट्रहित में जारी-
शाहनवाज आलम, राजीव यादव, विजय प्रताप, अवनीश राय, लक्ष्मण प्रसाद, ऋषि कुमार सिंह, चंद्रिका, अरूण उरांव, अनिल, दिलीप, संदीप दुबे, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, देवाशीष प्रसून, राकेश कुमार, प्रबुद्ध गौतम, शालिनी वाजपेयी, नवीन कुमार, पंकज उपाध्याय, विनय जायसवाल, सौम्या झा, पूर्णिमा उरांव, अर्चना मेहतो,अभिषेक रंजन सिंह , तारिक शफीक, मसीहुद्दीन संजरी, पीयूष तिवारी व अन्य साथी
Wednesday, February 24, 2010
Monday, February 22, 2010
आतंकवाद, मीडिया और प्रतिरोध
विजय प्रताप*
आतंकवाद के नाम पर एक के बाद एक फर्जी गिरफ्तारियों के बाद आजमगढ़ में इसका सबसे संगठित व सशक्त प्रतिरोध देखने को मिला। जब ज्यादातर अखबार व समाचार चैनल आतंकवाद की नर्सरी के नाम पर आजमगढ़ को ‘आतंकगढ़’ के रूप में स्थापित करने में लगे थे, वहां लोगों ने अपने गांव के बाहर ‘‘साम्प्रदायिकता फैलाने वाले पत्रकार यहां न आए’’ का बैनर लटका दिया। बैनर प्रतिरोध का एक अहिंसक हथियार था। अहिंसक होते हुए भी यह लोकतंत्र के कथित चैथे स्तम्भ पर उस समाज का ऐसा तमाचा था, जिसे लगातार अलगाव में डालने की कोशिश की जा रही है। लोगों ने यहां प्रतिरोध का अपना तरीका विकसित किया।
आजमगढ़ की ही तरह राजस्थान में भी जयपुर विस्फोट के बाद कोटा, जोधपुर, अजमेर व कुछ अन्य ‘शहरों से मुस्लिम समाज के युवकों की अंधाधुंध गिरफ्तारियां हुई। सबसे ज्यादा कोटा के दो दर्जन से ज्यादा लड़के सिमी से संबंध रखने के आरोप में पकड़े गए। यहां मुस्लिम समाज ने काफी डरते-डरते प्रतिरोध किया। लेकिन लोगों ने प्रतिरोध का वो नायाब तरीका निकाला जिससे उन्हें आतंकवादी के रूप में चिन्हित करने वाली मीडिया को झुकना पड़ा। यहां लोगों ने मीडिया को गलत रिपोर्टिंग बंद करने पर मजबूर कर दिया। हालांकि मीडिया से जुड़े लोगों ने ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ पर हमला और कई अन्य तर्कों से लोकतंत्र के लिए खतरा बताया। लेकिन आतंकवाद के मुद्दे पर मीडिया ने जो ‘शक्ल अख्तिार किया था वो लोकतंत्र के लिए कहीं ज्यादा गैर
जिम्मेदाराना व घातक था।
पिछले साल जयपुर में श्रृंखलाबद्ध विस्फ्ोट के बाद राजस्थान पुलिस ने अपनी ऐतिहासिक भूल सुधारने के लिए सिमी का नेटवर्क तलाशने में जुट गई। नतीजन जल्द ही चालीस से पचास सिमी के ‘कुख्यात’ आतंकी उनकी हिरासत में थे। इसमें से ज्यादातर ऐसे युवा थे जिनका सिमी पर प्रतिबंध लगने से पहले कोई संबंध था। पुलिस को भी ज्यादातर के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिलने पर उन्हें छोड़ना पड़ा। लेकिन अभी भी जयपुर जेल में कोटा व जोधपुर के दर्जन भर युवक हिरासत में हैं। इन पर न तो अभी तक आरोप तय किए जा सके हैं और न ही मुकदमा चलाया जा रहा है। इनकी की गिरफ्तारी के बाद बिना किसी जांच के मीडिया ने अपने चिरपरिचत अंदाज व पुलिस की भाषा में सभी युवाओं को ‘खुंखार आतंकवादी’ व ‘आस्तीन का सांप’ करार दिया। खुफिया सूत्र जैसे बताते गए मीडिया आंख मंूद उसका अनुशरण करती रही। कोटा से ऐसी गिरफ्तारियों के कुछ ही दिन बाद खुफिया सूत्रों के हवाले से बताया गया कि कोटा की फलां दरगाह में आतंकवादियों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया गया था। सभी अखबारों व दिन-रात चैनलों के पत्रकार दरगाह की ओर लपके। आस-पास लोगों को टटोलने की कोशिश की। दरगाह के आस-पास रहने वाले लोगों को भी साहसा इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। लेकिन उनकी चुप्पी को ‘पाकिस्तान समर्थक’ से जोड़ दिया गया। खुद मीडिया वालों को भी दरगाह के आस-पास ऐसी कोई जगह नहीं मिली जो हथियारों के प्रशिक्षण के लिए उपयुक्त हो। लेकिन दूसरे दिन ग्राफिक्स, एनिमेशन, व काल्पनिक तस्वीरों के जरिए खुफिया एजेंसियों की भाषा में वही सबकुछ लिखा गया जो उन एजेंसियों के आकाओं ने मीडियाकर्मिंयों को बताई और जिसे तलाशने में उनका पूरा दिन निकल गया था। बाद में कुछ नहीं मिलाने पर यह भी प्रचारित किया गया की यहाँ इन कथित आतंकियों को वैचारिक प्रशिक्षण मिला था. बहरहाल ऐसे करके खुफिया एजेंसियों ने एक के बाद एक स्टोरी प्लांट की और मीडिया उसके आधार पर कोटा में भी आतंकवादियों को ‘स्लीपिंग मॉड्यूल’ की पुष्टि करती गई।
करीब दो लाख मुस्लिम आबादी वाले कोटा जिले में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों के बावजूद यहां कोई तात्कालिक प्रतिरोध देखने को नहीं मिला। इसका कारण था मुस्लिम समाज के लोगों में समाया एक अनजाना डर। लेकिन जब लोगों ने डर के बंधन तोड़ मीडिया के दुष्प्रचार के खिलाफ संगठित प्रतिरोध का निर्णय लिया तो उसकी खबर भी कानों कान किसी को नहीं लगी। दरअसल इस प्रतिरोध में भी एक तरह से अलगाव का मिश्रण था। प्रतिरोध का निर्णय सभी संप्रदायों के साथ मिलकर सामुहिक रूप से नहीं लिया गया था। इससे पहले मीडिया ने लोगों के दिलों में एक दूसरे के प्रति जो खाई पैदा की थी उसमें ऐसे किसी सामुहिक निर्णय की उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। बहरहाल प्रतिरोध का निर्णय मस्जिदों में लिया गया। मुस्लिम समाज ने पूर्वाग्रह से ग्रसित खबरों के विरोध में राजस्थान के दोनों मुख्य अखबारों ‘‘दैनिक भास्कर’’ व ‘‘राजस्थान पत्रिका’’ का बहिष्कार करना ‘शुरू कर दिया। ‘शहर काजी अनवार अहमद की तरफ से मुस्लिम समाज के लोगों मंे ‘इन अखबारों को न खरीदने, न बेचने और न ही इन्हें विज्ञापन देने’ की अपील जारी की गई। मन में विद्रोह की टीस दबाए लोगों ने इस अपील को हाथों-हाथ लिया और जल्द ही इसका परिणाम भी देखने को मिला। मुस्लिम बहुल मोहल्लों में हॉकरों को इन अखबारों को लेकर घुसने की हिम्मत नहीं हुई। अगले दिन से तीसरे नंबर के अखबार ‘‘दैनिक नवज्योति’’ के स्थानीय संस्करण ने अतिरिक्त कॉपियां छापनी ‘ाुरू कर दी। दोनों ही अखबारों के सरकुलेशन में करीब 20 से 25 हजार की गिरावट आ गई थी। इसके अलावा विज्ञापन की कमी ने और ज्यादा गहरा घाव किया। एक माह में दोनों अखबारों के प्रबंधन से स्थानीय संस्करण के अधिकारियों को नोटिस मिलनी ‘शुरू हो गई। साथ यह भी फरमान आया कि ‘किसी भी कीमत पर उन्हें (मुस्लिम समाज) मनाओ।’
मनाने की इस प्रक्रिया में सबसे पहले सबसे बड़े कॉरपोरेट मीडिया घराने के अखबार दैनिक भास्कर के प्रबंधन ने समर्पण किया। अखबार के स्थानीय संपादक और प्रबंधकद्वय ‘शहरकाजी के पास माफीनामा लेकर हाजिर हुए और उनसे प्रतिबंध हटाने की अपील की। बाद में पूर्वाग्रह से ग्रसित खबरें न छापने की ‘शर्त पर प्रतिबंध हटा लिया गया। भास्कर बिकने लगा तो पत्रिका के प्रबंधन में भी खलबली मची और उसने भी ‘मनाने’ का वही रास्ता अख्तियार किया। इन सबसे अलग इस घटना के बाद जो एक और बड़ा बदलाव नजर आया वो मुस्लिम समाज से जुड़ी खबरें जो पहले अखबारों बहुत कम या छोटी छपती थी, अब बड़ी नजर आने लगी। राजस्थान पत्रिका ने तो अपनी छवि सुधारने के लिए मुस्लिम मोहल्लों में साफ-सफाई के लिए अभियान ही छेड़ दिया। ऐसे मोहल्लों में निःशुल्क चिकित्सा शिविर और ईद पर अखबारों की तरफ से बधाईयों के बैनर भी नजर आने लगे। हालांकि यह अखबारों की संपादकीय नीति में बदलाव का कोई संकेत नहीं था, क्योंकि अभी भी जयपुर और अन्य संस्करणों से ऐसी बेतुकी खबरें छापने का सिलसिला चलता रहा। अभी हाल में ईद के दिन जयपुर जेल में बंद कोटा, जोधपुर व आजमगढ़ के आरोपियों को जेलर ने नमाज अदा नहीं करने दी और उन्हें बुरी तरह से प्रताड़ित किया। जिसका मुस्लिम समाज के कुछ संगठनों ने तगड़ा प्रतिरोध किया। कोटा में भी इसका असर दिखा, लेकिन खबरें छापने के मामले में स्थानीय पत्रकारों ने फिर हिंदूवादी रूख अपनाया। लेकिन दूसरे ही दिन प्रतिरोध होने पर अखबारों ने अपनी गलती स्वीकार की और ‘भूल सुधार’ किया।
प्रतिरोध का यह तरीका भले ही कोई मॉडल न बन सके, लेकिन एक समुदाय विशेष के लिए तात्कालिक राहत पहुंचाने वाला जरूर रहा। दुष्प्रचार से पीड़ित आजमगढ़ में लोगों ने उलेमा काउंसिल गठित कर प्रतिरोध का धार्मिक तरीका अपनाया। इसका असर यह हुआ कि चुनावों में उसके कुछ नेता राजनीतिक पार्टियों से मोल-तोल करने की स्थिति में आ गए। लेकिन वे भारी समर्थन के बावजूद भी उस व्यवस्था में परिवर्तन नहीं ला सके जो लगातार उनके खिलाफ घृणा के बीज बोए जा रही थी। उल्टे मीडिया ने उलेमा काउंसिल पर भी आतंकवादियों का समर्थक होने जैसे बेतुके आरोप लगाए। इससे इतर कोटा में मुस्लिम समुदाय ने काफी डरते-डरते प्रतिरोध किया। लेकिन उसने प्रतिरोध का जो तरीका अपनाया वह उस जड़ पर प्रहार किया जो उनके खिलाफ अन्य समुदाय में घृणा और हिंसा की मानसिकता बोए जा रही थी। भूमण्डलीकरण के इस दौर में सत्ता धार्मिक-सामाजिक आधार पर लोगों को बांटकर पूंजीवाद व अपनी कुर्सी को मजबूत करने में लगी है। इसमें मीडिया सत्ता की ‘बांटो और राज करो’ की नीति को प्रोत्साहित कर रही है। इस नीति के खिलाफ उठने वाली कोई भी आवाज जाहिर तौर पर सत्ता व उसकी पिठ्ठू मीडिया को पंसद नहीं आएगी। लेकिन यह भी सही है कि समाज में मौजूद प्रतिरोध की चेतना ऐसी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध के नित नए-नए तरीके भी ईजाद करती रहेगी।
* लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) से जुड़े हैं.
यह लेख साहित्यिक पत्रिका कथादेश के फ़रवरी 2010 के अंक में मीडिया खंड कोलम में प्रकशित हो चुका है.किसी मीडिया संस्थान में रहते हुए आप भी ऐसे किसी अनुभव से गुजरते हैं और उसे अन्य लोगों से बंटाना चाहते हैं कथादेश के लिए वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडिया को इस पते (namwale@gmail.com) पर लिख भेजे.
Saturday, February 20, 2010
कम्पैक्ट(अमर उजाला,इलाहाबाद) के संपादक के नाम खुला पत्र
‘‘विश्वविद्यालय में खंगाले जा रहे हैं माओवादियों के सूत्र’’ इस शीर्षक से इलाहाबाद में अमर उजाला के टैबलाइड अखबार कम्पैक्ट में एक खबर (चित्र देखें) 16 फरवरी को छापी गयी या कहें छपवायी गयी। इस खबर में बाईलान से नवाजे गए अक्षय कुमार की खोजी पत्रकारिता औरमार्क्सवाद की उनकी समझ और खुफिया आईबी से पत्रकारों के कैसे गठजोड़ और फिर कैसी अवैध खबरों की पैदाइश होती है, को आसानी से समझा जा सकता है।
पिछले दिनों जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी द्वारा जारी पत्र में हमने अपने पत्रकार साथियों से अपील की थी कि नक्सलवाद जैसे गंभीर मसले पर रिपोर्टिंग करने से पहले हमें सतर्कता और सावधानी बरतने की जरुरत है। अगर हम ऐसा नहीं करते तो इसका खामियाजा जनता और उसके लोकतंत्र के लिए लड़ रही आवाजों को भुगतना पड़ता है। नए टैबलायड अखबार या नौसिखिए पत्रकार कह हम इस मामले को टालते हैं तो यह हमारी भूल होगी क्योंकि यह एक रुपए का अखबार छात्रों को अधिक सुविधाजनक रुप से मिल जाता है।
कम्पैक्ट की इस खबर को इसलिए भी गंभीरता से लेने की जरुरत है क्योंकि इस नैसिखिए पत्रकार ने बीस-तीस साल के इलाहाबाद युनिवर्सिटी के इतिहास को खंगाले गए तथ्यों के आधार पर यह खबर बनायी जो उसके बस की बात नहीं है। और खबर की भाषा के हिचकोले बताते हैं कि उसको बताने वाला कोई खुफिया विभाग का आदमी है। मसलन "विश्वविद्यालय के एक विभाग के पूर्व अध्यक्ष ने सिवान में सर्वहारा वर्ग के समर्थन में ऐसा भाषण दिया कि उन पर निगाह रखी जाने लगी। वहां से लौटने के बाद उन्होंने विश्वविद्यालय में वामंपथी विचारधारा को फैलान का काम किया। इन लोगों के मार्क्सवादी नेताओं से सीधे संपर्क भी हैं।" इन लाइनों को पढ़ ऐसा लगता है कि सर्वहारा किसी विशेष उपग्रह का प्राणी है और मार्क्सवाद कोई छूआछूत की बीमारी। रही बात मार्क्सवादी नेताओं से सीधे संपर्क कि तो पत्रकार बन्धु को यह जान लेना चाहिए कि हमारे देश में भाकपा माओवादी प्रतिबंधित है न कि मार्क्सवाद या माओवाद। अगर मेरी इस बात का यकीन न हो तो किसी भी किताब की दुकान और विश्वविद्यालय के तमाम विभागों में इन विचारधाराओं की किताबों के जखीरे हैं। इस बात की जानकारी के बाद हो सकता है यह पत्रकार अगली खबर लिख दे कि किताबों की दुकानों और विश्वविद्यालय के विभागों में हैं नक्सली साहित्य के जखीरे।
दरअसल यह पत्रकार नहीं उसको सूचना देने वाले पुलिसिया सूत्र के दिमाग की उपज है जिसमें उन लोगों ने इस तरह से तमाम लोगों को नक्सली साहित्य के नाम पर पकड़ कर जेलों में डाल दिया। पिछले दिनों पत्रकार और मानवाधिकारा नेता सीमा आजाद को भी इसी तरह के झूठे आरोप लगाकर जेल में डाल दिया गया। पर एक पत्रकार और खुफिया विभाग के दिमाग और सोचने का तरीका तो एक नहीं हो सकता। मार्क्सवादी नेताओं से सीधे संपर्क पर अक्षय को कहां से जानकारी मिली इसकी भी पुष्टि हम कर देते हैं। पिछले दिनों वरिष्ठ वामपंथी नेता कामरेड ज्योति बसु पर एक कार्यक्रम निराला सभागार में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएम द्वारा कराया गया था। जहां सभी ने उनके बारे में और उनसे मुलाकातों के बारे में बात-चीत कर श्रद्वांजली दी। पर खुफिया मित्र के लिए यह अचरज की बात थी कि इतने कद्दावर नेता से भले कैसे कोई मिल सकता है, कोई न कोई बात जरुर है और रही-सही कसर वहां ज्योति बसु को दी जा रही लाल सलामी ने पूरी कर दी क्योंकि पिछले दिनों लाल सलाम का नारा लगाने वालों को नक्सली कहने का इलाहाबाद की पुलिस और मीडिया वालों की आदत बन गयी है।
पत्रकार साथी को उस अपने परिसर सूत्र के बारे में भी जानना चाहिए और पूछना चाहिए कि वो कौन लोग और कौन संगठन थे। छात्र राजनीति या किसी भी विचारधारा की लोकतांत्रिक तरीके से राजनीति करने का अधिकार संविधान देता है। क्या इतनी समझ इस पत्रकार को नहीं हैं। हो सकता है न समझ में आए तो उसके लिए सरकारों द्वारा दिए जा रहे माओवादियों पर बयानों को गंभीरता से पढ़ने की जरुरत है। सरकार इतने दिनों से लाखों रुपए खर्च कर सैकड़ों प्रेस कांफ्रेंसों में इस बात को कहती रही है कि माओवादी लोकतांत्रिक राजनीति की मुख्यधारा में आएं। यानि कि वही विचारधारा या लोग प्रतिबंधित है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को नहीं मानते। ऐसे में अगर कोई व्यक्ति विश्वविद्यालय जैसे जगहों पर मुख्यधारा में राजनीति करता है तो उसे कैसे प्रतिबंधित कहा जा सकता है। रहा मार्क्सवाद तो मार्क्सवाद एक गतिशील विचारधारा है जो किसी व्यक्ति में सोचने-समझने का नजरिया विकसित करती है। और सोचना समझना पत्रकारों के लिए बहुत आवश्यक है। कई पूर्व, वर्तमान शिक्षक, छात्र नेता निशाने पर हैं, इस बात को सिर्फ इस आधार पर नहीे कहा जा सकता कि वो मार्क्सवाद की समझ या उससे समस्याओं का राजनीति हल निकालते हैं, एक सतही सोच के शब्द हैं।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी के मीडिया मानिटरिंग सेल द्वारा लगातार इलाहाबाद के खबरों की मानिटरिंग की जा रही है। हम ऐसी खबरों पर पत्रकार, नागरिक समाज, गृह मंत्रालय और प्रेस काउंसिल ऑफ इडिया को लगातार अवगत कराते रहे हैं कि खबरें जो भविष्य की राजनीति तय करती है और आम जनता को आवाज देती हैं के माध्यमों को गृह मंत्रालय को सिर्फ कटिंग भेजने के लिए किस प्रकार पुलिस खुफिया और मीडिया गठजोड़ काम कर रहा है।
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राजीव यादव, शाहनवाज आलम, लक्ष्मण प्रसाद, विजय प्रताप, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चंद्रिका, अरूण उरांव, अनिल, दिलीप, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, देवाशीष प्रसून, राकेश कुमार, प्रबुद्ध गौतम, शालिनी वाजपेयी, नवीन कुमार, पंकज उपाध्याय, विनय जायसवाल, सौम्या झा, पूर्णिमा उरांव, अर्चना मेहतो, तारिक शफीक, मसीहुद्दीन संजरी, पीयूष तिवारी व अन्य साथी ।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा राष्ट्रहित में जारी-
पिछले दिनों जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी द्वारा जारी पत्र में हमने अपने पत्रकार साथियों से अपील की थी कि नक्सलवाद जैसे गंभीर मसले पर रिपोर्टिंग करने से पहले हमें सतर्कता और सावधानी बरतने की जरुरत है। अगर हम ऐसा नहीं करते तो इसका खामियाजा जनता और उसके लोकतंत्र के लिए लड़ रही आवाजों को भुगतना पड़ता है। नए टैबलायड अखबार या नौसिखिए पत्रकार कह हम इस मामले को टालते हैं तो यह हमारी भूल होगी क्योंकि यह एक रुपए का अखबार छात्रों को अधिक सुविधाजनक रुप से मिल जाता है।
कम्पैक्ट की इस खबर को इसलिए भी गंभीरता से लेने की जरुरत है क्योंकि इस नैसिखिए पत्रकार ने बीस-तीस साल के इलाहाबाद युनिवर्सिटी के इतिहास को खंगाले गए तथ्यों के आधार पर यह खबर बनायी जो उसके बस की बात नहीं है। और खबर की भाषा के हिचकोले बताते हैं कि उसको बताने वाला कोई खुफिया विभाग का आदमी है। मसलन "विश्वविद्यालय के एक विभाग के पूर्व अध्यक्ष ने सिवान में सर्वहारा वर्ग के समर्थन में ऐसा भाषण दिया कि उन पर निगाह रखी जाने लगी। वहां से लौटने के बाद उन्होंने विश्वविद्यालय में वामंपथी विचारधारा को फैलान का काम किया। इन लोगों के मार्क्सवादी नेताओं से सीधे संपर्क भी हैं।" इन लाइनों को पढ़ ऐसा लगता है कि सर्वहारा किसी विशेष उपग्रह का प्राणी है और मार्क्सवाद कोई छूआछूत की बीमारी। रही बात मार्क्सवादी नेताओं से सीधे संपर्क कि तो पत्रकार बन्धु को यह जान लेना चाहिए कि हमारे देश में भाकपा माओवादी प्रतिबंधित है न कि मार्क्सवाद या माओवाद। अगर मेरी इस बात का यकीन न हो तो किसी भी किताब की दुकान और विश्वविद्यालय के तमाम विभागों में इन विचारधाराओं की किताबों के जखीरे हैं। इस बात की जानकारी के बाद हो सकता है यह पत्रकार अगली खबर लिख दे कि किताबों की दुकानों और विश्वविद्यालय के विभागों में हैं नक्सली साहित्य के जखीरे।
दरअसल यह पत्रकार नहीं उसको सूचना देने वाले पुलिसिया सूत्र के दिमाग की उपज है जिसमें उन लोगों ने इस तरह से तमाम लोगों को नक्सली साहित्य के नाम पर पकड़ कर जेलों में डाल दिया। पिछले दिनों पत्रकार और मानवाधिकारा नेता सीमा आजाद को भी इसी तरह के झूठे आरोप लगाकर जेल में डाल दिया गया। पर एक पत्रकार और खुफिया विभाग के दिमाग और सोचने का तरीका तो एक नहीं हो सकता। मार्क्सवादी नेताओं से सीधे संपर्क पर अक्षय को कहां से जानकारी मिली इसकी भी पुष्टि हम कर देते हैं। पिछले दिनों वरिष्ठ वामपंथी नेता कामरेड ज्योति बसु पर एक कार्यक्रम निराला सभागार में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएम द्वारा कराया गया था। जहां सभी ने उनके बारे में और उनसे मुलाकातों के बारे में बात-चीत कर श्रद्वांजली दी। पर खुफिया मित्र के लिए यह अचरज की बात थी कि इतने कद्दावर नेता से भले कैसे कोई मिल सकता है, कोई न कोई बात जरुर है और रही-सही कसर वहां ज्योति बसु को दी जा रही लाल सलामी ने पूरी कर दी क्योंकि पिछले दिनों लाल सलाम का नारा लगाने वालों को नक्सली कहने का इलाहाबाद की पुलिस और मीडिया वालों की आदत बन गयी है।
पत्रकार साथी को उस अपने परिसर सूत्र के बारे में भी जानना चाहिए और पूछना चाहिए कि वो कौन लोग और कौन संगठन थे। छात्र राजनीति या किसी भी विचारधारा की लोकतांत्रिक तरीके से राजनीति करने का अधिकार संविधान देता है। क्या इतनी समझ इस पत्रकार को नहीं हैं। हो सकता है न समझ में आए तो उसके लिए सरकारों द्वारा दिए जा रहे माओवादियों पर बयानों को गंभीरता से पढ़ने की जरुरत है। सरकार इतने दिनों से लाखों रुपए खर्च कर सैकड़ों प्रेस कांफ्रेंसों में इस बात को कहती रही है कि माओवादी लोकतांत्रिक राजनीति की मुख्यधारा में आएं। यानि कि वही विचारधारा या लोग प्रतिबंधित है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को नहीं मानते। ऐसे में अगर कोई व्यक्ति विश्वविद्यालय जैसे जगहों पर मुख्यधारा में राजनीति करता है तो उसे कैसे प्रतिबंधित कहा जा सकता है। रहा मार्क्सवाद तो मार्क्सवाद एक गतिशील विचारधारा है जो किसी व्यक्ति में सोचने-समझने का नजरिया विकसित करती है। और सोचना समझना पत्रकारों के लिए बहुत आवश्यक है। कई पूर्व, वर्तमान शिक्षक, छात्र नेता निशाने पर हैं, इस बात को सिर्फ इस आधार पर नहीे कहा जा सकता कि वो मार्क्सवाद की समझ या उससे समस्याओं का राजनीति हल निकालते हैं, एक सतही सोच के शब्द हैं।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी के मीडिया मानिटरिंग सेल द्वारा लगातार इलाहाबाद के खबरों की मानिटरिंग की जा रही है। हम ऐसी खबरों पर पत्रकार, नागरिक समाज, गृह मंत्रालय और प्रेस काउंसिल ऑफ इडिया को लगातार अवगत कराते रहे हैं कि खबरें जो भविष्य की राजनीति तय करती है और आम जनता को आवाज देती हैं के माध्यमों को गृह मंत्रालय को सिर्फ कटिंग भेजने के लिए किस प्रकार पुलिस खुफिया और मीडिया गठजोड़ काम कर रहा है।
खबर की कटिंग को पढ़ने की लिए उस पर क्लिक करें.
राजीव यादव, शाहनवाज आलम, लक्ष्मण प्रसाद, विजय प्रताप, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चंद्रिका, अरूण उरांव, अनिल, दिलीप, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, देवाशीष प्रसून, राकेश कुमार, प्रबुद्ध गौतम, शालिनी वाजपेयी, नवीन कुमार, पंकज उपाध्याय, विनय जायसवाल, सौम्या झा, पूर्णिमा उरांव, अर्चना मेहतो, तारिक शफीक, मसीहुद्दीन संजरी, पीयूष तिवारी व अन्य साथी ।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा राष्ट्रहित में जारी-
तमगों और प्रमोशन के लिए हत्याएं
- नक्सलियों का अपहरण और खरीद फरोख्त कर रही उत्तर प्रदेश पुलिस
आवेश तिवारी
माफियाओं और गुंडों के आतंक से कराह रहे प्रदेश में पुलिस का एक नया और खौफनाक चेहरा सामने आया है ,आउट ऑफ़ टर्न प्रमोशन पाने और अपनी पीठ खुद ही थपथपाने की होड़ ने हत्या और फर्जी गिरफ्तारियों की नयी पुलिसिया संस्कृति को पैदा किया है ,नक्सल फ्रंट पर हालात और भी चौंका देने वाले हैं ,नक्सलियों की धर पकड़ में असफल उत्तर प्रदेश पुलिस या तो चोरी छिपे नक्सलियों का अपहरण कर रही है या फिर ऊँचे दामों में खरीद फरोख्त करके उनका फर्जी इनकाउन्टर कर रही है,डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट आज आपको ऐसी ही सच्चाई से रूबरू करा रहा है |सोनभद्र में विगत नौ नवम्बर को नक्सली कमांडर कमलेश चौधरी के साथ हुई मुठभेड़ पूरी तरह से फर्जी थी ,उत्तर प्रदेश पुलिस ने बुरी तरह से बीमार कमलेश को चंदौली जनपद स्थित नौबतपुर चेकपोस्ट से अपह्त किया और फिर गोली मार दी ,खबर ये भी है कि सोनभद्र पुलिस ने इस पूरे कारनामे को अंजाम देने के लिए अपहरण की सूत्रधार बकायदे चंदौली पुलिस से सवा लाख रूपए में कमलेश का सौदा किया था | नक्सली आतंक का पर्याय बन चुके कमलेश चौधरी की हत्या मात्र एक प्रतीक है जो बताती है की तमगों और आउट ऑफ़ टार्न प्रमोशन के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस क्या कुछ कर रही है ,और परदे के पीछे क्या प्रहसन चल रहा है |
चलिए पूरी कहानी को फिर से रिवर्स करके सुनते हैं ये पूरी कहानी बिहार पुलिस को इस घटना से जुड़े लोगों के द्वारा दिए गए कलमबंद बयानों और पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टी के सदस्यों की छानबीन पर आधारित है |ये किसी पिक्चर की स्टोरी नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश पुलिस के नक्सल फ्रंट पर की जा रही कारगुजारियों का बेहद संवेदनशील दस्तावेज है , |ताजा घटनाक्रम में और भी चौंका देना वाले तथ्य सामने आये हैं इस पूरे मामले में बेहद महत्वपूर्ण गवाह और इस अपहरण काण्ड का मुख्य गवाह धनबील खरवार पिछले ढाई महीनों से लापता है ,महत्वपूर्ण है कि धनबील फर्जी मुठभेड़ के इस मामले में बिहार पुलिस को अपना बयान देने वाला था |यहाँ ये बात भी काबिलेगौर है कि जिस गाडी से कमलेश चौधरी और अन्य चार को अपह्त किया गया था उस गाडी के लापता होने और अपहरण को लेकर रोहतास के पुलिस अधीक्षक द्वारा एस .पी चंदौली को प्राथमिकी दर्ज करने को लिखा गया था ,लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस ने कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की ,जो इस पूरे मामले का सच बयां करने को काफी है |चंदौली के नवागत एस .पी का कहना है कि पिछले रिकार्ड्स की जांच के बाद ही कहा जा सकेगा कार्यवाही किन परिस्थितियों में नहीं की गयी |
पिछले ९ नवम्बर को बीमार कमलेश को बिहार के चेनारी थाना अंतर्गत करमा गाँव से मुनीर सिद्दीकी नामक एक ड्राइवर अपनी मार्शल गाडी से लेकर बनारस निकला था ,गाडी में उस वक़्त चार अन्य व्यक्ति सवार थे|चंदौली पुलिस ने नौबतपुर चेक पोस्ट के पास तो बोलेरो गाड़ियों से ओवर टेक करके मुनीर की मार्शल को रोक लिया ,वहां मुनीर को गाडी से से उतार कर दूसरी गाडी में बैठा लिया गया ,और अन्य पांच को भी अपह्त कर घनघोर जंगलों में ले जाया गया इन पांचों व्यक्तियों में कमलेश चौधरी के अलावा भुरकुरा निवासी मोतीलाल खरवार, धनवील खरवार, करमा गांव निवासी सुरेन्द्र शाह व भवनाथपुर निवासी कामेश्वर यादव भी थे | जिस पुलिस इन्स्पेक्टर ने कमलेश की गिरफ्तारी की थी उसने इसकी सूचना अपने उच्च अधिकारीयों को न देकर सोनभद्र पुलिस के अपने साथियों को दी ,आनन् फानन में सवा लाख रुपयों में मामला तय हुआ ,सोनभद्र पुलिस द्वारा थोड़ी भी देरी न करते हुए नौगढ़ मार्ग से कमलेश और अन्य चार को ले आया गया ,मुनीर ने अपने लिखित बयान में कहा है कि मुझे तो चौबीस घंटे के बाद छोड़ दिया गया वहीँ पुलिस ने बिना देरी किये हुए कमलेश को जंगल में ले जाकर गोली मार दी,वहीँ अन्य चार को बैठाये रखा ,कमलेश की मुठभेड़ में मौत की खबर जंगल में आग की तरह फैली और वही कमलेश के साथ अपह्त चार अन्य को लेकर उनके परिजनों और मानवाधिकार संगठनों के तेवर से सकते में आई पुलिस ने बिना देरी किये हुए अन्य चार को १४ नवम्बर को छोड़ दिया |
इस घटना का सर्वाधिक महत्वपूर्ण गवाह धनविल खरवार कैसे और किन परिस्थितियों में गायब हुआ,ये भी बेहद चर्चा का विषय है ,धनबली ही एकमात्र वो गवाह था जिसने अपहत लोगों में कमलेश चौधरी के शामिल होने की शिनाख्त की थी ,एस पी रोहतास विकास वैभव से जब धनबली के गायब होने के सम्बन्ध में जानकारी मांगी गयी तो उन्होंने कहा कि वो जिस स्थान भुर्कुरा का रहने वाला था वो घोर नक्सल प्रभावित है पुलिस का वहां जाना संभव नहीं ,हम फिर भी उसका पता लगाने की यथासंभव कोशिश कर रहे हैं |ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा कमलेश चौधरी के फर्जी मुठभेड़ पर पर्दा डालने कि कोशिश नहीं की गयी,इलाहाबाद से सीमा आजाद की गिरफ्तारी को भी इसी मामले से जोड़ कर देखा जा सकता है ,गौरतलब है कि कमलेश चौधरी की हत्या के मामले में पी यु सी एल कि तरफ से बनाये गए पैनल में सीमा आजाद भी शामिल थी और उनके द्वारा मानवाधिकार आयोग को इस पूरे मामले की जांच के लिए लिखा गया था |खरीद फरोख्त की बात और उससे जुड़े प्रमोशन के लालच का सच इस बात से भी जाहिर होता है कि पिछले एक दशक के दौरान उत्तर प्रदेश में जितने भी नक्सली पकडे गए या मारे गए उनमे से ज्यादातर बिहार या अन्य पडोसी राज्यों में सक्रिय थे,खबर है कि जब नहीं तब उत्तर प्रदेश पुलिस ,बिहार पुलिस से भी नक्सलियों की खरीद फरोख्त करती रही है |
आवेश तिवारी डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट के सोनभद्र ब्यूरो चीफ हैं.यह खबर 20 फरवरी को डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट के फ्रंट फेज पर प्रकाशित हुई हैं.
आवेश तिवारी
माफियाओं और गुंडों के आतंक से कराह रहे प्रदेश में पुलिस का एक नया और खौफनाक चेहरा सामने आया है ,आउट ऑफ़ टर्न प्रमोशन पाने और अपनी पीठ खुद ही थपथपाने की होड़ ने हत्या और फर्जी गिरफ्तारियों की नयी पुलिसिया संस्कृति को पैदा किया है ,नक्सल फ्रंट पर हालात और भी चौंका देने वाले हैं ,नक्सलियों की धर पकड़ में असफल उत्तर प्रदेश पुलिस या तो चोरी छिपे नक्सलियों का अपहरण कर रही है या फिर ऊँचे दामों में खरीद फरोख्त करके उनका फर्जी इनकाउन्टर कर रही है,डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट आज आपको ऐसी ही सच्चाई से रूबरू करा रहा है |सोनभद्र में विगत नौ नवम्बर को नक्सली कमांडर कमलेश चौधरी के साथ हुई मुठभेड़ पूरी तरह से फर्जी थी ,उत्तर प्रदेश पुलिस ने बुरी तरह से बीमार कमलेश को चंदौली जनपद स्थित नौबतपुर चेकपोस्ट से अपह्त किया और फिर गोली मार दी ,खबर ये भी है कि सोनभद्र पुलिस ने इस पूरे कारनामे को अंजाम देने के लिए अपहरण की सूत्रधार बकायदे चंदौली पुलिस से सवा लाख रूपए में कमलेश का सौदा किया था | नक्सली आतंक का पर्याय बन चुके कमलेश चौधरी की हत्या मात्र एक प्रतीक है जो बताती है की तमगों और आउट ऑफ़ टार्न प्रमोशन के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस क्या कुछ कर रही है ,और परदे के पीछे क्या प्रहसन चल रहा है |
चलिए पूरी कहानी को फिर से रिवर्स करके सुनते हैं ये पूरी कहानी बिहार पुलिस को इस घटना से जुड़े लोगों के द्वारा दिए गए कलमबंद बयानों और पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टी के सदस्यों की छानबीन पर आधारित है |ये किसी पिक्चर की स्टोरी नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश पुलिस के नक्सल फ्रंट पर की जा रही कारगुजारियों का बेहद संवेदनशील दस्तावेज है , |ताजा घटनाक्रम में और भी चौंका देना वाले तथ्य सामने आये हैं इस पूरे मामले में बेहद महत्वपूर्ण गवाह और इस अपहरण काण्ड का मुख्य गवाह धनबील खरवार पिछले ढाई महीनों से लापता है ,महत्वपूर्ण है कि धनबील फर्जी मुठभेड़ के इस मामले में बिहार पुलिस को अपना बयान देने वाला था |यहाँ ये बात भी काबिलेगौर है कि जिस गाडी से कमलेश चौधरी और अन्य चार को अपह्त किया गया था उस गाडी के लापता होने और अपहरण को लेकर रोहतास के पुलिस अधीक्षक द्वारा एस .पी चंदौली को प्राथमिकी दर्ज करने को लिखा गया था ,लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस ने कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की ,जो इस पूरे मामले का सच बयां करने को काफी है |चंदौली के नवागत एस .पी का कहना है कि पिछले रिकार्ड्स की जांच के बाद ही कहा जा सकेगा कार्यवाही किन परिस्थितियों में नहीं की गयी |
पिछले ९ नवम्बर को बीमार कमलेश को बिहार के चेनारी थाना अंतर्गत करमा गाँव से मुनीर सिद्दीकी नामक एक ड्राइवर अपनी मार्शल गाडी से लेकर बनारस निकला था ,गाडी में उस वक़्त चार अन्य व्यक्ति सवार थे|चंदौली पुलिस ने नौबतपुर चेक पोस्ट के पास तो बोलेरो गाड़ियों से ओवर टेक करके मुनीर की मार्शल को रोक लिया ,वहां मुनीर को गाडी से से उतार कर दूसरी गाडी में बैठा लिया गया ,और अन्य पांच को भी अपह्त कर घनघोर जंगलों में ले जाया गया इन पांचों व्यक्तियों में कमलेश चौधरी के अलावा भुरकुरा निवासी मोतीलाल खरवार, धनवील खरवार, करमा गांव निवासी सुरेन्द्र शाह व भवनाथपुर निवासी कामेश्वर यादव भी थे | जिस पुलिस इन्स्पेक्टर ने कमलेश की गिरफ्तारी की थी उसने इसकी सूचना अपने उच्च अधिकारीयों को न देकर सोनभद्र पुलिस के अपने साथियों को दी ,आनन् फानन में सवा लाख रुपयों में मामला तय हुआ ,सोनभद्र पुलिस द्वारा थोड़ी भी देरी न करते हुए नौगढ़ मार्ग से कमलेश और अन्य चार को ले आया गया ,मुनीर ने अपने लिखित बयान में कहा है कि मुझे तो चौबीस घंटे के बाद छोड़ दिया गया वहीँ पुलिस ने बिना देरी किये हुए कमलेश को जंगल में ले जाकर गोली मार दी,वहीँ अन्य चार को बैठाये रखा ,कमलेश की मुठभेड़ में मौत की खबर जंगल में आग की तरह फैली और वही कमलेश के साथ अपह्त चार अन्य को लेकर उनके परिजनों और मानवाधिकार संगठनों के तेवर से सकते में आई पुलिस ने बिना देरी किये हुए अन्य चार को १४ नवम्बर को छोड़ दिया |
इस घटना का सर्वाधिक महत्वपूर्ण गवाह धनविल खरवार कैसे और किन परिस्थितियों में गायब हुआ,ये भी बेहद चर्चा का विषय है ,धनबली ही एकमात्र वो गवाह था जिसने अपहत लोगों में कमलेश चौधरी के शामिल होने की शिनाख्त की थी ,एस पी रोहतास विकास वैभव से जब धनबली के गायब होने के सम्बन्ध में जानकारी मांगी गयी तो उन्होंने कहा कि वो जिस स्थान भुर्कुरा का रहने वाला था वो घोर नक्सल प्रभावित है पुलिस का वहां जाना संभव नहीं ,हम फिर भी उसका पता लगाने की यथासंभव कोशिश कर रहे हैं |ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा कमलेश चौधरी के फर्जी मुठभेड़ पर पर्दा डालने कि कोशिश नहीं की गयी,इलाहाबाद से सीमा आजाद की गिरफ्तारी को भी इसी मामले से जोड़ कर देखा जा सकता है ,गौरतलब है कि कमलेश चौधरी की हत्या के मामले में पी यु सी एल कि तरफ से बनाये गए पैनल में सीमा आजाद भी शामिल थी और उनके द्वारा मानवाधिकार आयोग को इस पूरे मामले की जांच के लिए लिखा गया था |खरीद फरोख्त की बात और उससे जुड़े प्रमोशन के लालच का सच इस बात से भी जाहिर होता है कि पिछले एक दशक के दौरान उत्तर प्रदेश में जितने भी नक्सली पकडे गए या मारे गए उनमे से ज्यादातर बिहार या अन्य पडोसी राज्यों में सक्रिय थे,खबर है कि जब नहीं तब उत्तर प्रदेश पुलिस ,बिहार पुलिस से भी नक्सलियों की खरीद फरोख्त करती रही है |
आवेश तिवारी डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट के सोनभद्र ब्यूरो चीफ हैं.यह खबर 20 फरवरी को डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट के फ्रंट फेज पर प्रकाशित हुई हैं.
Thursday, February 18, 2010
हृदय परिवर्तन से आगे की राह
आनंद प्रधान
कई समाचार चैनलों के संपादकों का ‘अपराधबोध’ जगा है और कुछ तो स्थिति से ‘बगावत’ की बात भी कर रहे हैं. मगर क्या इससे कोई उम्मीद की जा सकती है?
हिंदी के खबरिया चैनलों के दर्शकों के लिए अच्छी खबर है. इन चैनलों के संपादक कंटेंट के लगातार गिरते स्तर से परेशान और शर्मसार हैं. उन्हें महसूस हो रहा है कि टीआरपी की होड़ में वे और उनके चैनल पत्रकारिता के मूल्यों की धज्जियां उड़ा रहे हैं. आईबीएन के संपादक आशुतोष ने माना है कि पिछले पांच साल में न्यूज चैनलों में भयानक भटकाव दिखा है. वे अकेले नहीं हैं. ईटीवी के राजनीतिक संपादक और टीवी संपादकों के संगठन के महासचिव एनके सिंह, न्यूज 24 के संपादक अजीत अंजुम और एनडीटीवी के आउटपुट संपादक रवीश कुमार समेत और भी तमाम वरिष्ठ पत्रकारों ने समाचार चैनलों की गिरावट पर गहरी चिंता का इजहार और उससे बाहर निकलने की बेचैनी जाहिर की है.
यानी लंबे समय से चल रही बहस में देर से ही सही अब संपादक भी शामिल होने लगे हैं. कई संपादकों का ‘अपराधबोध’ जगा है और कुछ तो स्थिति से ‘बगावत’ की बात भी कर रहे हैं. इससे एक उम्मीद बनी है क्योंकि अब तक अधिकांश संपादक चैनलों के कंटेंट में लगातार गिरावट की बात मानने को तैयार ही नहीं होते थे. बल्कि वे तो खुद को आक्रामक तरीके से डिफेंड भी करते थे. लेकिन लगता है कि उन्हें भी अब समझ में आने लगा है कि गिरने की भी हद होती है. उम्मीद है कि चैनलों के बाहर चल रही आलोचना और बहस अब अंदर न्यूज रूम में भी असर दिखाएगी. जाहिर है कि ईमानदार आत्मालोचना इसकी शुरुआत हो सकती है. इसलिए इस हृदय परिवर्तन का खुले दिल से स्वागत होना चाहिए. उन संपादकों को बधाई दी जानी चाहिए जो हिम्मत के साथ बोल और आत्मालोचना कर रहे हैं.
लेकिन क्या यह आत्मालोचना सचमुच आत्मसुधार के मकसद से हो रही है या सिर्फ इस ‘पागलपन और गिरावट’ से खुद को अलग दिखाने और अपना हाथ झड़ने के लिए? सच कहूं तो समाचार चैनलों में बेहतरी की उम्मीद को लेकर मन में थोड़ी निराशा और संदेह है. इसकी वजहें हैं. पहली और बुनियादी बात यह है कि सभी चैनल उस बड़े पूंजीवादी कॉर्पोरेट मीडिया मशीन के पुर्जे हैं जिनका मूल मकसद अधिकतम मुनाफा कमाना और मौजूदा सत्ता संरचना को एक आवरण देना है. पूंजीवादी लोकतंत्र के खेल में वे उस तमाशे की तरह हैं जिसकी सीमाएं पहले से तय हैं और जिसका एक मकसद लोगों को मनोरंजन का धीमा जहर देकर सुलाए रखना है. ग्लोबल मीडिया के विस्तार के साथ समाचारों का मनोरंजनीकरण हो रहा है और मनोरंजन का समाचारीकरण.
ऐसे में, न्यूज चैनलों के संपादकों के लिए मौजूदा दायरे यानी टीआरपी से बाहर कुछ अलग करने की गुंजाइश सचमुच बहुत कम होती जा रही है. टीआरपी से व्यक्तिगत तौर पर लड़ पाना किसी भी संपादक के लिए संभव नहीं, इसलिए टी.वी उद्योग के मौजूदा दायरे में टीआरपी से ‘बगावत’ लगभग असंभव है. एडिटर्स गिल्ड के अध्यक्ष और वरिष्ठ टीवी संपादक राजदीप सरदेसाई के बयान में यह लाचारी साफ दिखती है. लेकिन सारा दोष टीआरपी पर मढ़ना भी ठीक नहीं. निश्चय ही, कुछ जिम्मेदारी संपादकों की भी बनती है. अफसोस यह है कि बहुतेरे संपादक अपनी गलतियों का सारा ठीकरा टीआरपी पर फोड़ बच निकलना चाहते हैं. जबकि सच यह है कि संपादकों को टीआरपी के आगे झुकने के लिए कहा गया लेकिन उनमें से अधिकांश ने उसके आगे रेंगना शुरू कर दिया.
दरअसल, न्यूज चैनलों की गिरावट को लेकर टीआरपी के शिकायती संपादकों में से कई खुद दर्शकों के स्वाद को बिगाड़ने के लिए दोषी हैं. जो दर्शक पिछले पांच साल से सनसनीखेज, बेसिर-पैर और पांच सीज (क्राइम, कामेडी, क्रिकेट, सिनेमा, सेलेब्रिटी) के आदी हो गए हैं उन्हें रातों-रात कैसे गंभीर खबरों का पारखी बनाया जा सकता है? दर्शकों का स्वाद बदलने के लिए ईमानदारी से अगले पांच साल तक मेहनत करनी होगी. न्यूज रूम में पत्रकारीय मूल्यों को प्राथमिकता देनी होगी. हर न्यूज चैनल टैबलॉयड चैनल क्यों होना चाहता है? टीआरपी के लिए? यह तो हमेशा से रहा है कि टैबलॉयड अखबारों और चैनलों के पाठक-दर्शक क्वालिटी अखबारों-चैनलों से कई गुना रहे हैं लेकिन जनमत बनाने और प्रभाव के मामले में टैबलॉयड, क्वालिटी अखबारों-चैनलों के आगे कहीं नहीं ठहरते.
तीसरे, चैनल संपादकों को कंटेंट खासकर टीआरपी नहीं दे पाने वाली कथित गंभीर खबरों और चर्चाओं पर गंभीरता से सोचना होगा कि सचमुच में वे कितनी गंभीर होती हैं? दो साल पहले ऐसी ही समस्या से परेशान छह अमेरिकी पत्नकारों द्वारा लिखी किताब ‘वी इंटरप्ट दिस न्यूजकास्ट’ आई थी जिसमें बताया गया है कि कैसे बेहतर कंटेंट के साथ अच्छी रेटिंग भी मिल सकती है. बेचैन संपादकों के लिए यह बेहद काम की हो सकती है. मगर वे तो अपने ही बनाए दायरे में ऐसे फंसे हैं कि उससे निकलना ‘स्वर्ग की सीढ़ी’ ढूंढ़ने से भी मुश्किल हो गया है.
कई समाचार चैनलों के संपादकों का ‘अपराधबोध’ जगा है और कुछ तो स्थिति से ‘बगावत’ की बात भी कर रहे हैं. मगर क्या इससे कोई उम्मीद की जा सकती है?
हिंदी के खबरिया चैनलों के दर्शकों के लिए अच्छी खबर है. इन चैनलों के संपादक कंटेंट के लगातार गिरते स्तर से परेशान और शर्मसार हैं. उन्हें महसूस हो रहा है कि टीआरपी की होड़ में वे और उनके चैनल पत्रकारिता के मूल्यों की धज्जियां उड़ा रहे हैं. आईबीएन के संपादक आशुतोष ने माना है कि पिछले पांच साल में न्यूज चैनलों में भयानक भटकाव दिखा है. वे अकेले नहीं हैं. ईटीवी के राजनीतिक संपादक और टीवी संपादकों के संगठन के महासचिव एनके सिंह, न्यूज 24 के संपादक अजीत अंजुम और एनडीटीवी के आउटपुट संपादक रवीश कुमार समेत और भी तमाम वरिष्ठ पत्रकारों ने समाचार चैनलों की गिरावट पर गहरी चिंता का इजहार और उससे बाहर निकलने की बेचैनी जाहिर की है.
यानी लंबे समय से चल रही बहस में देर से ही सही अब संपादक भी शामिल होने लगे हैं. कई संपादकों का ‘अपराधबोध’ जगा है और कुछ तो स्थिति से ‘बगावत’ की बात भी कर रहे हैं. इससे एक उम्मीद बनी है क्योंकि अब तक अधिकांश संपादक चैनलों के कंटेंट में लगातार गिरावट की बात मानने को तैयार ही नहीं होते थे. बल्कि वे तो खुद को आक्रामक तरीके से डिफेंड भी करते थे. लेकिन लगता है कि उन्हें भी अब समझ में आने लगा है कि गिरने की भी हद होती है. उम्मीद है कि चैनलों के बाहर चल रही आलोचना और बहस अब अंदर न्यूज रूम में भी असर दिखाएगी. जाहिर है कि ईमानदार आत्मालोचना इसकी शुरुआत हो सकती है. इसलिए इस हृदय परिवर्तन का खुले दिल से स्वागत होना चाहिए. उन संपादकों को बधाई दी जानी चाहिए जो हिम्मत के साथ बोल और आत्मालोचना कर रहे हैं.
लेकिन क्या यह आत्मालोचना सचमुच आत्मसुधार के मकसद से हो रही है या सिर्फ इस ‘पागलपन और गिरावट’ से खुद को अलग दिखाने और अपना हाथ झड़ने के लिए? सच कहूं तो समाचार चैनलों में बेहतरी की उम्मीद को लेकर मन में थोड़ी निराशा और संदेह है. इसकी वजहें हैं. पहली और बुनियादी बात यह है कि सभी चैनल उस बड़े पूंजीवादी कॉर्पोरेट मीडिया मशीन के पुर्जे हैं जिनका मूल मकसद अधिकतम मुनाफा कमाना और मौजूदा सत्ता संरचना को एक आवरण देना है. पूंजीवादी लोकतंत्र के खेल में वे उस तमाशे की तरह हैं जिसकी सीमाएं पहले से तय हैं और जिसका एक मकसद लोगों को मनोरंजन का धीमा जहर देकर सुलाए रखना है. ग्लोबल मीडिया के विस्तार के साथ समाचारों का मनोरंजनीकरण हो रहा है और मनोरंजन का समाचारीकरण.
ऐसे में, न्यूज चैनलों के संपादकों के लिए मौजूदा दायरे यानी टीआरपी से बाहर कुछ अलग करने की गुंजाइश सचमुच बहुत कम होती जा रही है. टीआरपी से व्यक्तिगत तौर पर लड़ पाना किसी भी संपादक के लिए संभव नहीं, इसलिए टी.वी उद्योग के मौजूदा दायरे में टीआरपी से ‘बगावत’ लगभग असंभव है. एडिटर्स गिल्ड के अध्यक्ष और वरिष्ठ टीवी संपादक राजदीप सरदेसाई के बयान में यह लाचारी साफ दिखती है. लेकिन सारा दोष टीआरपी पर मढ़ना भी ठीक नहीं. निश्चय ही, कुछ जिम्मेदारी संपादकों की भी बनती है. अफसोस यह है कि बहुतेरे संपादक अपनी गलतियों का सारा ठीकरा टीआरपी पर फोड़ बच निकलना चाहते हैं. जबकि सच यह है कि संपादकों को टीआरपी के आगे झुकने के लिए कहा गया लेकिन उनमें से अधिकांश ने उसके आगे रेंगना शुरू कर दिया.
दरअसल, न्यूज चैनलों की गिरावट को लेकर टीआरपी के शिकायती संपादकों में से कई खुद दर्शकों के स्वाद को बिगाड़ने के लिए दोषी हैं. जो दर्शक पिछले पांच साल से सनसनीखेज, बेसिर-पैर और पांच सीज (क्राइम, कामेडी, क्रिकेट, सिनेमा, सेलेब्रिटी) के आदी हो गए हैं उन्हें रातों-रात कैसे गंभीर खबरों का पारखी बनाया जा सकता है? दर्शकों का स्वाद बदलने के लिए ईमानदारी से अगले पांच साल तक मेहनत करनी होगी. न्यूज रूम में पत्रकारीय मूल्यों को प्राथमिकता देनी होगी. हर न्यूज चैनल टैबलॉयड चैनल क्यों होना चाहता है? टीआरपी के लिए? यह तो हमेशा से रहा है कि टैबलॉयड अखबारों और चैनलों के पाठक-दर्शक क्वालिटी अखबारों-चैनलों से कई गुना रहे हैं लेकिन जनमत बनाने और प्रभाव के मामले में टैबलॉयड, क्वालिटी अखबारों-चैनलों के आगे कहीं नहीं ठहरते.
तीसरे, चैनल संपादकों को कंटेंट खासकर टीआरपी नहीं दे पाने वाली कथित गंभीर खबरों और चर्चाओं पर गंभीरता से सोचना होगा कि सचमुच में वे कितनी गंभीर होती हैं? दो साल पहले ऐसी ही समस्या से परेशान छह अमेरिकी पत्नकारों द्वारा लिखी किताब ‘वी इंटरप्ट दिस न्यूजकास्ट’ आई थी जिसमें बताया गया है कि कैसे बेहतर कंटेंट के साथ अच्छी रेटिंग भी मिल सकती है. बेचैन संपादकों के लिए यह बेहद काम की हो सकती है. मगर वे तो अपने ही बनाए दायरे में ऐसे फंसे हैं कि उससे निकलना ‘स्वर्ग की सीढ़ी’ ढूंढ़ने से भी मुश्किल हो गया है.
Wednesday, February 17, 2010
कलम पर पहरा लगाने का विरोध
- फर्जी मामलों में गिरफ्तार किए गए पत्रकारों को रिहा करने की मांग
भारत एक बार फिर इमरजेंसी जैसी स्थिति की ओर बढ़ रहा है, जहां विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडियाकर्मियों की खबर देने की आजादी खतरे में है। दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में आज एक सेमिनार में इस बात पर चिंता जताई गई कि मीडिया के लिए तथ्यों की रिपोर्टिंग करना, खासकर आंदोलनों की खबरें देना इस समय कितना खतरनाक है। इस सेमिनार में मांग की गई कि झूठे मुकदमों में गिरफ्तार किए गए तमाम पत्रकारों को रिहा किया जाए।
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नय्यर ने कहा कि मौजूदा दौर में सरकार के कामकाज में पारदर्शिता यानी ट्रांसपेरेंसी घटी है, और सच को सामने लाने वाले पत्रकारों पर हमले तेज हुए हैं। प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंटने के मकसद से किए जा रहे हमलों में तेजी आई है। उन्होंने कहा कि 1974 में लगी इमरजेंसी के खिलाफ पत्रकारों ने जिस तरह विरोध किया था, वैसी आवाज एक बार फिर उठाने की जरूरत है और इसके लिए पत्रकारों के संगठनों को आगे आना चाहिए।
इस सेमिनार का आयोजन जनहस्तक्षेप, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और जर्नलिस्ट फॉर डेमोक्रेसी ने मिलकर किया, जिसमें बड़ी संख्या में पत्रकार, संपादक, शिक्षक और सामाजिक-राजनीतिक नेता-कार्यकर्ता शामिल हुए। मेनस्ट्रीम के संपादक सुमित चक्रवर्ती ने कहा कि जनता के आंदोलनों की रिपोर्टिंग करने की वजह से कई पत्रकार गिरफ्तार किए गए हैं। ऐसे पत्रकारों पर माओवादी होने का लेबल चिपका दिया जाता है। उन्होंने कहा कि इस समय एक बार फिर से बोलने की आजादी के लिए संघर्ष करने की जरूरत है। वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सुरेंद्र मोहन ने कहा कि विरोध की आवाज के लिए मीडिया में जगह घटी है, जो चिंताजनक है। उन्होंने कहा कि भारत का पूंजीपति विदेशी पूंजी का दलाल है और उसी के इशारे पर दमन की कार्रवाई कर रहा है।
सीपीआई (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी की दिल्ली राज्य सचिव डॉ अपर्णा ने कहा कि आंदोलनों की खबरों को मीडिया में जगह नहीं मिल पाती है। उन्होंने कहा कि जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों, राष्ट्रीयता के संघर्षों, अल्पसंख्यकों के आंदोलनों, क्रांतिकारी संघर्षों और साथ ही इनसे सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवियों पर दमन को लेकर शासक वर्ग के तमाम हिस्सों में आम राय है। पत्रकार इफ्तिकार गिलानी ने कश्मीर में मीडिया के दमन के बारे में जानकारी दी और इन घटनाओं का ब्यौरा संकलित करने की जरूरत बताई। इस सेमिनार में ये मांग की गई कि जिन पत्रकारों को झूठे मुकदमों के तहत गिरफ्तार किया गया है, उन्हें तत्काल रिहा किया जाए और उनके खिलाफ मामले वापस लिए जाएं। सरकार से ये मांग भी की गई कि विरोध करने वाले लोगों और मीडियाकर्मियों का उत्पीड़न बंद करे। साथ ही पत्रकारों को फर्जी मुकदमों में फंसाने वाले अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की जाए। सेमिनार में ये मांग भी की गई कि प्रेस की स्वतंत्रता को हर हाल में बहाल किया जाए और तमाम काले कानूनों को रद्द किया जाए।
चित्र - मोहल्ला लाइव
भारत एक बार फिर इमरजेंसी जैसी स्थिति की ओर बढ़ रहा है, जहां विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडियाकर्मियों की खबर देने की आजादी खतरे में है। दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में आज एक सेमिनार में इस बात पर चिंता जताई गई कि मीडिया के लिए तथ्यों की रिपोर्टिंग करना, खासकर आंदोलनों की खबरें देना इस समय कितना खतरनाक है। इस सेमिनार में मांग की गई कि झूठे मुकदमों में गिरफ्तार किए गए तमाम पत्रकारों को रिहा किया जाए।
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नय्यर ने कहा कि मौजूदा दौर में सरकार के कामकाज में पारदर्शिता यानी ट्रांसपेरेंसी घटी है, और सच को सामने लाने वाले पत्रकारों पर हमले तेज हुए हैं। प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंटने के मकसद से किए जा रहे हमलों में तेजी आई है। उन्होंने कहा कि 1974 में लगी इमरजेंसी के खिलाफ पत्रकारों ने जिस तरह विरोध किया था, वैसी आवाज एक बार फिर उठाने की जरूरत है और इसके लिए पत्रकारों के संगठनों को आगे आना चाहिए।
इस सेमिनार का आयोजन जनहस्तक्षेप, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और जर्नलिस्ट फॉर डेमोक्रेसी ने मिलकर किया, जिसमें बड़ी संख्या में पत्रकार, संपादक, शिक्षक और सामाजिक-राजनीतिक नेता-कार्यकर्ता शामिल हुए। मेनस्ट्रीम के संपादक सुमित चक्रवर्ती ने कहा कि जनता के आंदोलनों की रिपोर्टिंग करने की वजह से कई पत्रकार गिरफ्तार किए गए हैं। ऐसे पत्रकारों पर माओवादी होने का लेबल चिपका दिया जाता है। उन्होंने कहा कि इस समय एक बार फिर से बोलने की आजादी के लिए संघर्ष करने की जरूरत है। वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सुरेंद्र मोहन ने कहा कि विरोध की आवाज के लिए मीडिया में जगह घटी है, जो चिंताजनक है। उन्होंने कहा कि भारत का पूंजीपति विदेशी पूंजी का दलाल है और उसी के इशारे पर दमन की कार्रवाई कर रहा है।
सीपीआई (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी की दिल्ली राज्य सचिव डॉ अपर्णा ने कहा कि आंदोलनों की खबरों को मीडिया में जगह नहीं मिल पाती है। उन्होंने कहा कि जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों, राष्ट्रीयता के संघर्षों, अल्पसंख्यकों के आंदोलनों, क्रांतिकारी संघर्षों और साथ ही इनसे सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवियों पर दमन को लेकर शासक वर्ग के तमाम हिस्सों में आम राय है। पत्रकार इफ्तिकार गिलानी ने कश्मीर में मीडिया के दमन के बारे में जानकारी दी और इन घटनाओं का ब्यौरा संकलित करने की जरूरत बताई। इस सेमिनार में ये मांग की गई कि जिन पत्रकारों को झूठे मुकदमों के तहत गिरफ्तार किया गया है, उन्हें तत्काल रिहा किया जाए और उनके खिलाफ मामले वापस लिए जाएं। सरकार से ये मांग भी की गई कि विरोध करने वाले लोगों और मीडियाकर्मियों का उत्पीड़न बंद करे। साथ ही पत्रकारों को फर्जी मुकदमों में फंसाने वाले अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की जाए। सेमिनार में ये मांग भी की गई कि प्रेस की स्वतंत्रता को हर हाल में बहाल किया जाए और तमाम काले कानूनों को रद्द किया जाए।
चित्र - मोहल्ला लाइव
सीमा आज़ाद की पत्रिका
अंबरीश कुमार
लखनऊ,(जनसत्ता)। माओवादी साहित्य रखने के आरोप में गिरफ्तार पत्रकार और पीयूसीएल की पदाधिकारी सीमा आज़ाद ने आखिर क्या लिखा-पढ़ा जिसके चलते वे आज जेल में हैं । उनकी जमानत की अर्जी निचली अदालत से खारिज हो चुकी है और सेशन कोर्ट में सुनवाई अगले हफ्ते होनी है । आज उनकी पत्रिका दस्तक का वह अंक मिला जिसमें माओवाद से सम्बंधित कुछ लेख हैं । एसटीएफ उनकी इस पत्रिका में छपी कुछ सामग्री को भी आपत्तिजनक मानती है । इस पत्रिका के सम्पादक मंडल में पांच लोग हैं । जिसमें दो शिक्षक, दो पत्रकार और एक शोध छात्र शामिल है । सीमा आज़ाद इससे पहले कानपुर के बदहाल होते उद्योगों और गंगा एक्सप्रेस वे आदि पर विस्तार से लिख चुकी हैं ।
सीमा आज़ाद ने दस्तक पत्रिका के नवम्बर-दिसंबर २००९ के अंक में माओवाद से सम्बंधित कुछ सामग्री प्रकाशित की । पीयूसीएल की महासचिव वंदना मिश्रा ने कहा-'दस्तक पत्रिका में कोई भी लेख कहीं से भी आपत्तिजनक नहीं है । इस प्रकार के लेख देश की हज़ारों पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं ।' दस्तक के इस अंक में सीमा आज़ाद के दो लेख हैं। जिसमे से एक का शीर्षक है- 'माओवाद पर हमले की तैयारी' और दूसरे का ओबामा और विश्व शान्ति । पहले लेख में माओवाद और माओवादियों के बारे में सूचनापरक तथ्य दिए गए हैं । इसकी बानगी देखने वाली है। माओवादी कौन हैं और क्या चाहते हैं ? उप शीर्षक के साथ लिखा गया है-'संक्षेप सार रूप में समाजवादी व्यवस्था परिवर्तन का दर्शन माओवाद है और इसे मानने वाले लोग माओवादी हैं। माओवादियों का मानना है कि १९४७ में भारत आज़ाद नहीं हुआ बल्कि अब भी साम्राज्यवादियों की गिरफ्त में है , भारत का सामंती व पूंजीपति वर्ग उसका देसी मुखौटा भर है । जिसके माध्यम से वे यहाँ के संसाधनों की लूट को अंजाम दे रहे हैं ।' इसी लेख में आगे लिखा गया है-' माओवादियों की सोच से सरकार को कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि चुनावी रास्ते से संसद में पहुँचने वाले वामपंथी भी लगभग ऐसा ही कहते हैं। समस्या यह है की माओवादी इस लूट को रोकने की गतिविधि में भी लगे हैं ।' आगे यह भी बताया गया है कि माओवादी इसके लिए हिंसा का सहारा लेते हैं। जिसमे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के संसाधनों को विस्फोट से उड़ाने से लेकर बारूदी सुरंग से हमला करने की रणनीति की जानकारी दी गई है ।
पत्रिका में कोबाद गांधी पर एक बॉक्स दिया गया है। इसके अलावा गोरखपुर में मजदूर आन्दोलन का दमन शीर्षक से एक रपट और वरवर तुम्हारी जेल और हम औरतों की कारा शीर्षक से क्रांतिकारी कवी वरवर राव की जेल डायरी पर सामग्री दी गई है । पत्रकार वन्दना मिश्रा ने कहा-सीमा आज़ाद के लेखन में ऐसा कुछ नहीं है जिसके चलते उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाय । सही बात तो यह है कि अवैध खनन का मामला उठाने पर उन्हें फर्जी मामले में फंसा कर जेल भेजा गया । दूसरी तरफ करीब सात-आठ सालों से सीमा आज़ाद को करीब से देखने वाले पीयूसीएल के संगठन सचिव शाहनवाज़ आलम ने कहा-'हम लोग सीमा आज़ाद को इलाहबाद विश्वविद्यालय के समय से देख रहे हैं। उन्होंने मजदूरों और अन्य मुद्दों को लेकर काफी गंभीर काम किया है । जहाँ तक दस्तक की बात है तो इसे माओवादी साहित्य किसी तरह नहीं माना जा सकता । तृणमूल कांग्रेस के सांसद कबीर सुमन सार्वजनिक रूप से माओवाद में अपनी आस्था दिखाते हैं और संसद में भी बैठते हैं । अगर माओवाद विचारधारा के रूप में खतरनाक है तो उनपर भी कार्यवाही होनी चाहिए । पत्रिका में कोबाद गांधी का जिक्र किया गया है, यह भी जानना चाहिए की उन्होंने बीबीसी को इंटरव्यू दिया था ।'
गौरतलब है की एसटीएफ के एसएसपी ने दावा किया था कि दस्तक पत्रिका में भी कुछ सामग्री आपत्तिजनक है । हालांकि उन्होंने यह नहीं साफ़ किया कि आपत्तिजनक क्या है ।
लखनऊ,(जनसत्ता)। माओवादी साहित्य रखने के आरोप में गिरफ्तार पत्रकार और पीयूसीएल की पदाधिकारी सीमा आज़ाद ने आखिर क्या लिखा-पढ़ा जिसके चलते वे आज जेल में हैं । उनकी जमानत की अर्जी निचली अदालत से खारिज हो चुकी है और सेशन कोर्ट में सुनवाई अगले हफ्ते होनी है । आज उनकी पत्रिका दस्तक का वह अंक मिला जिसमें माओवाद से सम्बंधित कुछ लेख हैं । एसटीएफ उनकी इस पत्रिका में छपी कुछ सामग्री को भी आपत्तिजनक मानती है । इस पत्रिका के सम्पादक मंडल में पांच लोग हैं । जिसमें दो शिक्षक, दो पत्रकार और एक शोध छात्र शामिल है । सीमा आज़ाद इससे पहले कानपुर के बदहाल होते उद्योगों और गंगा एक्सप्रेस वे आदि पर विस्तार से लिख चुकी हैं ।
सीमा आज़ाद ने दस्तक पत्रिका के नवम्बर-दिसंबर २००९ के अंक में माओवाद से सम्बंधित कुछ सामग्री प्रकाशित की । पीयूसीएल की महासचिव वंदना मिश्रा ने कहा-'दस्तक पत्रिका में कोई भी लेख कहीं से भी आपत्तिजनक नहीं है । इस प्रकार के लेख देश की हज़ारों पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं ।' दस्तक के इस अंक में सीमा आज़ाद के दो लेख हैं। जिसमे से एक का शीर्षक है- 'माओवाद पर हमले की तैयारी' और दूसरे का ओबामा और विश्व शान्ति । पहले लेख में माओवाद और माओवादियों के बारे में सूचनापरक तथ्य दिए गए हैं । इसकी बानगी देखने वाली है। माओवादी कौन हैं और क्या चाहते हैं ? उप शीर्षक के साथ लिखा गया है-'संक्षेप सार रूप में समाजवादी व्यवस्था परिवर्तन का दर्शन माओवाद है और इसे मानने वाले लोग माओवादी हैं। माओवादियों का मानना है कि १९४७ में भारत आज़ाद नहीं हुआ बल्कि अब भी साम्राज्यवादियों की गिरफ्त में है , भारत का सामंती व पूंजीपति वर्ग उसका देसी मुखौटा भर है । जिसके माध्यम से वे यहाँ के संसाधनों की लूट को अंजाम दे रहे हैं ।' इसी लेख में आगे लिखा गया है-' माओवादियों की सोच से सरकार को कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि चुनावी रास्ते से संसद में पहुँचने वाले वामपंथी भी लगभग ऐसा ही कहते हैं। समस्या यह है की माओवादी इस लूट को रोकने की गतिविधि में भी लगे हैं ।' आगे यह भी बताया गया है कि माओवादी इसके लिए हिंसा का सहारा लेते हैं। जिसमे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के संसाधनों को विस्फोट से उड़ाने से लेकर बारूदी सुरंग से हमला करने की रणनीति की जानकारी दी गई है ।
पत्रिका में कोबाद गांधी पर एक बॉक्स दिया गया है। इसके अलावा गोरखपुर में मजदूर आन्दोलन का दमन शीर्षक से एक रपट और वरवर तुम्हारी जेल और हम औरतों की कारा शीर्षक से क्रांतिकारी कवी वरवर राव की जेल डायरी पर सामग्री दी गई है । पत्रकार वन्दना मिश्रा ने कहा-सीमा आज़ाद के लेखन में ऐसा कुछ नहीं है जिसके चलते उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाय । सही बात तो यह है कि अवैध खनन का मामला उठाने पर उन्हें फर्जी मामले में फंसा कर जेल भेजा गया । दूसरी तरफ करीब सात-आठ सालों से सीमा आज़ाद को करीब से देखने वाले पीयूसीएल के संगठन सचिव शाहनवाज़ आलम ने कहा-'हम लोग सीमा आज़ाद को इलाहबाद विश्वविद्यालय के समय से देख रहे हैं। उन्होंने मजदूरों और अन्य मुद्दों को लेकर काफी गंभीर काम किया है । जहाँ तक दस्तक की बात है तो इसे माओवादी साहित्य किसी तरह नहीं माना जा सकता । तृणमूल कांग्रेस के सांसद कबीर सुमन सार्वजनिक रूप से माओवाद में अपनी आस्था दिखाते हैं और संसद में भी बैठते हैं । अगर माओवाद विचारधारा के रूप में खतरनाक है तो उनपर भी कार्यवाही होनी चाहिए । पत्रिका में कोबाद गांधी का जिक्र किया गया है, यह भी जानना चाहिए की उन्होंने बीबीसी को इंटरव्यू दिया था ।'
गौरतलब है की एसटीएफ के एसएसपी ने दावा किया था कि दस्तक पत्रिका में भी कुछ सामग्री आपत्तिजनक है । हालांकि उन्होंने यह नहीं साफ़ किया कि आपत्तिजनक क्या है ।
Tuesday, February 16, 2010
पुलिस नहीं, तथ्यों का प्रवक्ता बने मीडिया
आनंद प्रधान
मानवाधिकार संगठनों की समाचार मीडिया से एक पुरानी लेकिन जायज शिकायत रही है। यह शिकायत हाल के दिनों में कम होने के बजाय और बढ़ी है। शिकायत यह है कि पिछले कुछ वर्षों में माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ने के नामपर पुलिस या दूसरी सरकारी एजेंसियां मीडिया को ''हथियार और अपनी बंदूक की गोली'' की तरह इस्तेमाल कर रही हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आरोप है कि पुलिस और सरकारी एजेंसियां माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ने के नामपर जो भी करती हैं, खासकर उनके द्वारा होनेवाले मानवाधिकार हनन के मामलों में भी मीडिया उनका आंख मूंदकर समर्थन करता है। यही नहीं, वह अक्सर पुलिस के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करता दिखता है। आमतौर पर पुलिसिया दावों को अकाट्य तथ्य की तरह पेश करता है। कई बार तो पुलिस से भी एक कदम आगे बढ़कर ऐसी-ऐसी कहानियां छापता-दिखाता है कि उसकी इस "कल्पनाशीलता" पर एक साथ हैरानी, अफसोस और चिंता तीनों होती है।
ताजा मामला उत्तर प्रदेश का है। उत्तरप्रदेश पुलिस ने पिछले सप्ताह इलाहाबाद की पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय आजाद को 'माओवादी' बताकर गिरफ्तार कर लिया इनकी गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने रटे-रटाए ढर्रे के मुताबिक दावा किया कि वे माओवादी संगठन से जुड़े हैं, उनके पास से 'आपत्तिजनक' माओवादी साहित्य बरामद हुआ है और वे राज्य में माओवादी पार्टी का आधार तैयार करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर अधिकांश अखबारों और चैनलों ने पुलिस के दावों पर संदेह करने और सवाल उठाने के बजाय उसे 'अकाट्य तथ्य' की तरह छापा-दिखाया। जबकि मानवाधिकार संगठनों का दावा है कि सीमा पिछले दो दशक से भी अधिक समय से इलाहाबाद में एक पत्रकार, सामाजिक-राजनीतिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय हैं। वे फिलहाल, पीयूसीएल की प्रदेश संगठन मंत्री हैं जबकि उनके पति विश्वविजय लंबे समय तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेता रहे हैं। मानवाधिकार संगठनों को सबसे अधिक क्षोभ और दुख इस बात का है कि इलाहाबाद के पत्रकार इस सच्चाई से वाकिफ हैं लेकिन अधिकांश ने पुलिस के आरोपों और दावों पर सवाल उठाने की जहमत उठाना तो दूर उसे इस तरह से छापा जैसे पुलिस ने कोई बहुत बड़ी कामयाबी हासिल की है।
इस प्रक्रिया में बुनियादी पत्रकारीय उसूलों और मूल्यों की भी परवाह नहीं की गयी। क्या समाचार माध्यमों और पत्रकारों से यह अपेक्षा करना गलत है कि वे पुलिस के दावों/आरोपों की बारीकी से छानबीन करें? क्या उन्हें पुलिस से यह नहीं पूछना चाहिए था कि गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के पास से बरामद कथित 'आपत्तिजनक साहित्य' में क्या था? ऐसे ही और कई सवाल और प्रक्रियागत मुद्दें हैं जिन्हें समाचार मीडिया माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर नजरअंदाज कर रहा है जिसका फायदा उठाकर पुलिस और दूसरी सरकारी एजेंसिया न सिर्फ निर्दोष नागरिकों को फंसा और परेशान कर रही हैं बल्कि मानवाधिकार संगठनों, जनांदोलनों और जनसंघर्षों से जुड़े कार्यकर्ताओं, नेताओं और बुद्धिजीवियों को निशाना बना रही है। मानवाधिकार संगठन इफ्तिरवार गिलानी और डा. विनायक सेन के मामले से लेकर सीमा आजाद तक ऐसे दर्जनों उदाहरणों के जरिए यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि किस तरह मीडिया पुलिस का प्रवक्ता बनता और इस तरह अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है। जबकि समाचार मीडिया से उनकी अपेक्षा यह थी कि वह मानवाधिकारों के हक में अपनी आवाज बुलंद करेगा, सच्चाई को सामने लाएगा और पूरी निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता के साथ रिपोर्टिंग करेगा।
समाचार मीडिया से यह अपेक्षा अब भी बनी हुई है। इस संदर्भ में युवा पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के संगठन जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग में बरती जानेवाली सजगता और सावधानियों को लेकर अभी हाल में जारी निर्देंश उल्लेखनीय हैं। इन निर्देशों में पत्रकारों से और कुछ नहीं बल्कि अतिरिक्त सजगता और संवेदनशीलता दिखाने के साथ-साथ वस्तुनिष्ठता, संतुलन, निष्पक्षता और तथ्यपूर्णता जैसे पत्रकारीय मूल्यों को बरतने की अपील की गई है। समाचार माध्यमों और पत्रकारों को उनपर गंभीरता से विचार और अमल करना चाहिए। इससे न सिर्फ पत्रकारिता बेहतर,संतुलित,तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ होगी बल्कि पुलिस को भी किसी इफ्तिखार गिलानी, विनायक सेन और सीमा आजाद को गिरफ्तार करने से पहले दस बार सोचना पड़ेगा।
मानवाधिकार संगठनों की समाचार मीडिया से एक पुरानी लेकिन जायज शिकायत रही है। यह शिकायत हाल के दिनों में कम होने के बजाय और बढ़ी है। शिकायत यह है कि पिछले कुछ वर्षों में माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ने के नामपर पुलिस या दूसरी सरकारी एजेंसियां मीडिया को ''हथियार और अपनी बंदूक की गोली'' की तरह इस्तेमाल कर रही हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आरोप है कि पुलिस और सरकारी एजेंसियां माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ने के नामपर जो भी करती हैं, खासकर उनके द्वारा होनेवाले मानवाधिकार हनन के मामलों में भी मीडिया उनका आंख मूंदकर समर्थन करता है। यही नहीं, वह अक्सर पुलिस के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करता दिखता है। आमतौर पर पुलिसिया दावों को अकाट्य तथ्य की तरह पेश करता है। कई बार तो पुलिस से भी एक कदम आगे बढ़कर ऐसी-ऐसी कहानियां छापता-दिखाता है कि उसकी इस "कल्पनाशीलता" पर एक साथ हैरानी, अफसोस और चिंता तीनों होती है।
ताजा मामला उत्तर प्रदेश का है। उत्तरप्रदेश पुलिस ने पिछले सप्ताह इलाहाबाद की पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय आजाद को 'माओवादी' बताकर गिरफ्तार कर लिया इनकी गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने रटे-रटाए ढर्रे के मुताबिक दावा किया कि वे माओवादी संगठन से जुड़े हैं, उनके पास से 'आपत्तिजनक' माओवादी साहित्य बरामद हुआ है और वे राज्य में माओवादी पार्टी का आधार तैयार करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर अधिकांश अखबारों और चैनलों ने पुलिस के दावों पर संदेह करने और सवाल उठाने के बजाय उसे 'अकाट्य तथ्य' की तरह छापा-दिखाया। जबकि मानवाधिकार संगठनों का दावा है कि सीमा पिछले दो दशक से भी अधिक समय से इलाहाबाद में एक पत्रकार, सामाजिक-राजनीतिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय हैं। वे फिलहाल, पीयूसीएल की प्रदेश संगठन मंत्री हैं जबकि उनके पति विश्वविजय लंबे समय तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेता रहे हैं। मानवाधिकार संगठनों को सबसे अधिक क्षोभ और दुख इस बात का है कि इलाहाबाद के पत्रकार इस सच्चाई से वाकिफ हैं लेकिन अधिकांश ने पुलिस के आरोपों और दावों पर सवाल उठाने की जहमत उठाना तो दूर उसे इस तरह से छापा जैसे पुलिस ने कोई बहुत बड़ी कामयाबी हासिल की है।
इस प्रक्रिया में बुनियादी पत्रकारीय उसूलों और मूल्यों की भी परवाह नहीं की गयी। क्या समाचार माध्यमों और पत्रकारों से यह अपेक्षा करना गलत है कि वे पुलिस के दावों/आरोपों की बारीकी से छानबीन करें? क्या उन्हें पुलिस से यह नहीं पूछना चाहिए था कि गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के पास से बरामद कथित 'आपत्तिजनक साहित्य' में क्या था? ऐसे ही और कई सवाल और प्रक्रियागत मुद्दें हैं जिन्हें समाचार मीडिया माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर नजरअंदाज कर रहा है जिसका फायदा उठाकर पुलिस और दूसरी सरकारी एजेंसिया न सिर्फ निर्दोष नागरिकों को फंसा और परेशान कर रही हैं बल्कि मानवाधिकार संगठनों, जनांदोलनों और जनसंघर्षों से जुड़े कार्यकर्ताओं, नेताओं और बुद्धिजीवियों को निशाना बना रही है। मानवाधिकार संगठन इफ्तिरवार गिलानी और डा. विनायक सेन के मामले से लेकर सीमा आजाद तक ऐसे दर्जनों उदाहरणों के जरिए यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि किस तरह मीडिया पुलिस का प्रवक्ता बनता और इस तरह अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है। जबकि समाचार मीडिया से उनकी अपेक्षा यह थी कि वह मानवाधिकारों के हक में अपनी आवाज बुलंद करेगा, सच्चाई को सामने लाएगा और पूरी निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता के साथ रिपोर्टिंग करेगा।
समाचार मीडिया से यह अपेक्षा अब भी बनी हुई है। इस संदर्भ में युवा पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के संगठन जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग में बरती जानेवाली सजगता और सावधानियों को लेकर अभी हाल में जारी निर्देंश उल्लेखनीय हैं। इन निर्देशों में पत्रकारों से और कुछ नहीं बल्कि अतिरिक्त सजगता और संवेदनशीलता दिखाने के साथ-साथ वस्तुनिष्ठता, संतुलन, निष्पक्षता और तथ्यपूर्णता जैसे पत्रकारीय मूल्यों को बरतने की अपील की गई है। समाचार माध्यमों और पत्रकारों को उनपर गंभीरता से विचार और अमल करना चाहिए। इससे न सिर्फ पत्रकारिता बेहतर,संतुलित,तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ होगी बल्कि पुलिस को भी किसी इफ्तिखार गिलानी, विनायक सेन और सीमा आजाद को गिरफ्तार करने से पहले दस बार सोचना पड़ेगा।
Sunday, February 14, 2010
नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों से जेयूसीएस की अपील
साथी,
पत्रकार बंधुओं,
देश में नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के नाम पर चल रहे सरकारी दमन के बीच मीडिया और आप सभी की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। सत्ता जब मीडिया को अपना हथियार व पुलिस पत्रकारों को अपने बंदूक की गोली की भूमिका में इस्तेमाल करे तो ऐसे समय में हमे ज्यादा सर्तक रहने की जरूरत है। पुलिस की ही तरह हमारे कलम से निकलने वाली गोली से भी एक निर्दोष के मारे जाने की भी उतनी ही सम्भावना होती है, जितनी की एक अपराधी की। हमें यहां यह बातें इसलिए कहनी पड़ रही हैं क्योंकि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद जैसे मुददों पर रिपोर्टिंग करते समय हमारे ज्यादातर पत्रकार साथी न केवल पुलिस के प्रवक्ता नजर आते हैं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा वह उन पत्रकारीय मूल्यों को भी ताक पर रख देते हैं, जिसके बल पर उनकी विश्वसनियता बनी है।
हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हाल ही में इलाहाबाद में पत्रकार सीमा आजाद व कुछ अन्य लोगों की गिरफ़्तारी के बाद भी मीडिया व पत्रकारों का यही रूख देखने को मिला। सीमा आजाद इलाहाबाद में करीब 12 सालों से एक पत्रकार, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय रही हैं। इलाहाबाद में कोई भी सामाजिक व्यक्ति या पत्रकार उन्हें आसानी से पहचानता होगा। कुछ नहीं तो वैचारिक-साहित्यिक सेमिनार/गोष्ठियां कवर करने वाले पत्रकार उन्हें बखूबी जानते होंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि जब पुलिस ने उन्हीं सीमा आजाद को माओवादी बताया तो किसी पत्रकार ने आगे बढ़कर इस पर सवाल नहीं उठाया। आखिर क्यो? क्यों अपने ही बीच के एक व्यक्ति या महिला को पुलिस के नक्सली/माओवादी बताए जाने पर हम मौन रहे? पत्रकार के तौर पर हम एक स्वाभाविक सा सवाल क्यों नहीं पूछ सके कि किस आधार पर एक पत्रकार को नक्सली/माओवादी बताया जा रहा है? क्या कुछ किताबें या किसी के बयान के आधार पर किसी को राष्ट्रद्रोही करार दिया जा सकता है? और अगर पुलिस ऐसा करती है तो एक सजग पत्रकार के बतौर क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?
पत्रकार साथियों को ध्यान हो, तो यह अक्सर देखा जाता है कि किसी गैर नक्सली/माओवादी की गिरफ्तारी दिखाते समय पुलिस एक रटा-रटाया सा आरोप उन पर लगाती है। मसलन यह फलां क्षेत्र में फलां संगठन की जमीन तैयार कर रहा था/रही थी, या कि वह इस संगठन का वैचारिक लीडर था/थी, या कि उसके पास से बड़ी मात्रा में नक्सली/माओवादी साहित्य (मानो वह कोई गोला बारूद हो) बरामद हुआ है। आखिर पुलिस को इस भाषा में बात करने की जरूरत क्यों महसूस होती है? क्या पुलिस के ऐसे आरोप किसी गंभीर अपराध की श्रेणी में आते हैं? किसी राजनैतिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना या किसी खास राजनैतिक विचारधारा (भले ही वो नक्सली/माओवादी ही क्यों न हो) से प्रेरित साहित्य पढ़ना कोई अपराध है? अगर नहीं तो पुलिस द्वारा ऐसे आरोप लगाते समय हम चुप क्यों रहते हैं? क्यों हम वही लिखते हैं,जो पुलिस या उसके प्रतिनिधि बताते हैं। यहां तक की पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताती है और हम उसके आगे ‘कथित’ लगाने की जरूरत भी महसूस नहीं करते। क्यों ?
हम जानते हैं कि हमारे वो पत्रकार साथी जो किसी खास दुराग्रह या पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होते, वह भी खबरें लिखते समय ऐसी ‘भूल’ कर जाते हैं। शायद उन्हें ऐसी ‘भूल’ के परिणाम का अंदाजा न हो। उन्हें नहीं मालूम की ऐसी 'भूल' किसी की जिंदगी और सत्ता-पुलिसतंत्र की क्रूरता की गति को तय करते हैं।
जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) सभी पत्रकार बंधुओं से अपील करती हैं कि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करते समय कुछ मूलभूत बातों का ध्यान अवश्य रखें.
* साथियों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद तीनों अलग-अलग विचार हैं। नक्सलवाद/माओवाद राजनैतिक विचारधाराएं हैं तो आतंकवाद किसी खास समय, काल व परिस्थियों से उपजे असंतोष का परिणाम है। यह कई बार हिंसक व विवेकहीन कार्रवाई होती है जो जन समुदाय को भयाक्रांत करती है. इन सभी घटनाओं को एक ही तराजू में नहीं तौला जा सकता। नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक होना कहीं से भी अपराध नहीं है। इस विचारधारा को मानने वाले कुछ संगठन खुले रूप में आंदोलन चलाते हैं और चुनाव लड़ते हैं तो कुछ भूमिगत रूप से संघर्ष में विश्वाश करते हैं। कुछ भूमिगत नक्सलवादी/माओवादी संगठनों को सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है। लेकिन यहीं यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इन संगठनों की विचारधारा को मानने पर कोई मनाही नहीं है। इसीलिए पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक बताकर गिरफ्तार नहीं कर सकती है, जैसा की पुलिस अक्सर करती है.। हमें विचारधारा व संगठन के अंतर को समझना होगा।
* इसी प्रकार पुलिस जब यह कहती है कि उसने नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य (कई बार धार्मिक साहित्य को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है) पकड़ा है तो उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिये कि आखिर कौन-कौन सी किताबें इसमें शामिल हैं। मित्रों, लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी खास तरह की विचारधारा से प्रेरित होकर लिखी गई किताबें रखना/पढ़ना कोई अपराध नहीं है। पुलिस द्वारा अक्सर ऐसी बरामदगियों में कार्ल मार्क्स/लेनिन/माओत्से तुंग/स्टेलिन/भगत सिंह/चेग्वेरा/फिदेल कास्त्रो/चारू मजूमदार/किसी संगठन के राजनैतिक कार्यक्रम या धार्मिक पुस्तकें शामिल होती हैं। ऐसे समय में पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि कालेजों/विश्वविद्यलयों में पढ़ाई जा रही इन राजनैतिक विचारकों की किताबें भी नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य हैं? क्या उसको पढ़ाने वाला शिक्षक/प्रोफेसर या पढ़ने वाले बच्चे भी नक्सली/माओवादी/आतंकी हैं? पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि प्रतिबंधित साहित्य का क्राइटेरिया क्या है, या कौन सा वह मीटर/मापक है जिससे पुलिस यह तय करती है कि यह नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य है।
यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है की अक्सर देखा जाता है की पुलिस जब कोई हथियार, गोला-बारूद बरामद करती है तो मीडिया के सामने खुले रूप में (कई बार बड़े करीने से सजा कर) पेश की जाती है, लेकिन वही पुलिस जब नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य बरामद करती है तो उसे सीलबंद लिफाफों में पेश करती है. इन लिफाफों में क्या है हमें नहीं पता होता है लेकिन हमारे सामने इसके लिए कुछ 'अपराधी' हमारे सामने होते हैं. आप पुलिस से यह भी मांग करे कीबरामद नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य को खुले रूप में सार्वजनिक किया जाए.
* मित्रों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तारियों के पीछे किसी खास क्षेत्र में चल रहे राजनैतिक/सामाजिक व लोकतांत्रिक आन्दोलनों को तोड़ने/दबाने या किसी खास समुदाय को आतंकित करने जैसे राजनैतिक लोभ छिपे होते हैं। ऐसे समय में यह हमें तय करना होता है कि हम किसके साथ खड़े होंगे। सत्ता की क्रूर राजनीति का सहभागी बनेंगे या न्यूनतम जरूरतों के लिए चल रहे जनआंदोलनों के साथ चलेंगे।
* हम उन तमाम संपादकों/स्थानीय संपादकों/मुख्य संवाददातों से भी अपील करते हैं , की वह अपने क्षेत्र में नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी घटनाओं की रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी अपराध संवाददाता (क्राइम रिपोर्टर) को न दें. यहाँ ऐसा सुझाव देने के पीछे इन संवाददाताओं की भूमिका को कमतर करके आंकना हमारा कत्तई उद्देश्य नहीं है. हम केवल इतना कहना चाहते हैं की यह संवाददाता रोजाना चोर, उच्चकों, डकैतों और अपराधों की रिपोर्टिंग करते-करते अपने दिमाग में खबरों को लिखने का एक खांचा तैयार कर लेते हैं और सारी घटनाओं की रिपोर्ट तयशुदा खांचे में रहकर लिखते है. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग हम तभी सही कर सकते हैं जब हम इस तयशुदा खांचे से बहार आयेगे. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद कोई महज आपराधिक घटनाएँ नहीं है, यह शुद्ध रूप से राजनैतिक मामला है.
* हमे पुलिस द्वारा किसी पर भी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी होने के लगाए जा रहे आरोपों के सत्यता की पुख्ता जांच करनी चाहिये। पुलिस से उन आरोपों के संबंध में ठोस सबूत मांगे जाने चाहिये। पुलिस से ऐसे कथित नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी के पकड़े जाने के आधार की जानकारी जरूर लें।
* हमें पुलिस के सुबूत के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर भी सत्यता की जांच करने की कोशिश करना चाहिये। मसलन अभियुक्त के परिजनों से बातचीत करना चाहिये। परिजनों से बातचीत करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत होती है। अक्सर देखा जाता है कि पुलिस के आरोपों के बाद ही हम उस व्यक्ति को अपराधी मान बैठते हैं और उसके बाद उसके परिजनों से भी ऐसे सवाल पूछते हैं जो हमारी स्टोरी व पुलिस के दावों को सत्य सिद्ध करने के लिए जरूरी हों। ऐसे समय में हमें अपने पूर्वाग्रह को कुछ समय के लिए किनारे रखकर, परिजनों के दर्द को सुनने/समझने की कोशिश करनी चाहिए। शायद वहां से कोई नयी जानकारी निकल कर आए जो पुलिस के आरोपों को फर्जी सिद्ध करे।
* मित्रों, कोई भी अभियुक्त तब तक अपराधी नहीं है, जब तक कि उस पर लगे आरोप किसी सक्षम न्यायालय में सिद्ध नहीं हो जाते या न्यायालय उसे दोषी नहीं करार देती। हमें केवल पुलिस के नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताने के आधार पर ही इन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसे शब्द लिखते समय ‘कथित’ या ‘पुलिस के अनुसार’ जरूर लिखना चाहिये। अपनी तरफ से कोई जस्टिफिकेशन नहीं देना चाहिये।
पत्रकार बंधुओं,
यहां इस तरह के सुझाव देने के पीछे हमारा यह कत्तई उद्देश्य नहीं है कि आप किसी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी का साथ दें। हम यहां कोई ज्ञान भी नहीं देना चाहते। हमारा उद्देश्य केवल इतना सा है कि ऐसे मसलों की रिपोर्टिंग करते समय हम जाने/अनजाने में सरकारी प्रवक्ता या उनका हथियार न बन जाए। ऐसे में जब हम खुद को लोकतंत्र का चौथा-खम्भा या वाच डाग कहते हैं तो जिम्मेदारी व सजगता की मांग और ज्यादा बढ़ जाती है। जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) आपको केवल इसी जिम्मेदारी का एहसास करना चाहती है।
उम्मीद है कि आपकी लेखनी शोषित/उत्पीड़ित समाज की मुखर अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकेगी !!
- निवेदक
आपके साथी,
विजय प्रताप, राजीव यादव, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चन्द्रिका, शाहनवाज आलम, अनिल, लक्ष्मण प्रसाद, अरूण उरांव, देवाशीष प्रसून, दिलीप, शालिनी वाजपेयी, पंकज उपाध्याय, विवेक मिश्रा, तारिक शफीक, विनय जायसवाल, सौम्या झा, नवीन कुमार सिंह, प्रबुद़ध गौतम, पूर्णिमा उरांव, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, अर्चना मेहतो, राकेश कुमार।
जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से जनहित में जारी
पत्रकार बंधुओं,
देश में नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के नाम पर चल रहे सरकारी दमन के बीच मीडिया और आप सभी की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। सत्ता जब मीडिया को अपना हथियार व पुलिस पत्रकारों को अपने बंदूक की गोली की भूमिका में इस्तेमाल करे तो ऐसे समय में हमे ज्यादा सर्तक रहने की जरूरत है। पुलिस की ही तरह हमारे कलम से निकलने वाली गोली से भी एक निर्दोष के मारे जाने की भी उतनी ही सम्भावना होती है, जितनी की एक अपराधी की। हमें यहां यह बातें इसलिए कहनी पड़ रही हैं क्योंकि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद जैसे मुददों पर रिपोर्टिंग करते समय हमारे ज्यादातर पत्रकार साथी न केवल पुलिस के प्रवक्ता नजर आते हैं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा वह उन पत्रकारीय मूल्यों को भी ताक पर रख देते हैं, जिसके बल पर उनकी विश्वसनियता बनी है।
हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हाल ही में इलाहाबाद में पत्रकार सीमा आजाद व कुछ अन्य लोगों की गिरफ़्तारी के बाद भी मीडिया व पत्रकारों का यही रूख देखने को मिला। सीमा आजाद इलाहाबाद में करीब 12 सालों से एक पत्रकार, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय रही हैं। इलाहाबाद में कोई भी सामाजिक व्यक्ति या पत्रकार उन्हें आसानी से पहचानता होगा। कुछ नहीं तो वैचारिक-साहित्यिक सेमिनार/गोष्ठियां कवर करने वाले पत्रकार उन्हें बखूबी जानते होंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि जब पुलिस ने उन्हीं सीमा आजाद को माओवादी बताया तो किसी पत्रकार ने आगे बढ़कर इस पर सवाल नहीं उठाया। आखिर क्यो? क्यों अपने ही बीच के एक व्यक्ति या महिला को पुलिस के नक्सली/माओवादी बताए जाने पर हम मौन रहे? पत्रकार के तौर पर हम एक स्वाभाविक सा सवाल क्यों नहीं पूछ सके कि किस आधार पर एक पत्रकार को नक्सली/माओवादी बताया जा रहा है? क्या कुछ किताबें या किसी के बयान के आधार पर किसी को राष्ट्रद्रोही करार दिया जा सकता है? और अगर पुलिस ऐसा करती है तो एक सजग पत्रकार के बतौर क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?
पत्रकार साथियों को ध्यान हो, तो यह अक्सर देखा जाता है कि किसी गैर नक्सली/माओवादी की गिरफ्तारी दिखाते समय पुलिस एक रटा-रटाया सा आरोप उन पर लगाती है। मसलन यह फलां क्षेत्र में फलां संगठन की जमीन तैयार कर रहा था/रही थी, या कि वह इस संगठन का वैचारिक लीडर था/थी, या कि उसके पास से बड़ी मात्रा में नक्सली/माओवादी साहित्य (मानो वह कोई गोला बारूद हो) बरामद हुआ है। आखिर पुलिस को इस भाषा में बात करने की जरूरत क्यों महसूस होती है? क्या पुलिस के ऐसे आरोप किसी गंभीर अपराध की श्रेणी में आते हैं? किसी राजनैतिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना या किसी खास राजनैतिक विचारधारा (भले ही वो नक्सली/माओवादी ही क्यों न हो) से प्रेरित साहित्य पढ़ना कोई अपराध है? अगर नहीं तो पुलिस द्वारा ऐसे आरोप लगाते समय हम चुप क्यों रहते हैं? क्यों हम वही लिखते हैं,जो पुलिस या उसके प्रतिनिधि बताते हैं। यहां तक की पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताती है और हम उसके आगे ‘कथित’ लगाने की जरूरत भी महसूस नहीं करते। क्यों ?
हम जानते हैं कि हमारे वो पत्रकार साथी जो किसी खास दुराग्रह या पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होते, वह भी खबरें लिखते समय ऐसी ‘भूल’ कर जाते हैं। शायद उन्हें ऐसी ‘भूल’ के परिणाम का अंदाजा न हो। उन्हें नहीं मालूम की ऐसी 'भूल' किसी की जिंदगी और सत्ता-पुलिसतंत्र की क्रूरता की गति को तय करते हैं।
जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) सभी पत्रकार बंधुओं से अपील करती हैं कि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करते समय कुछ मूलभूत बातों का ध्यान अवश्य रखें.
* साथियों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद तीनों अलग-अलग विचार हैं। नक्सलवाद/माओवाद राजनैतिक विचारधाराएं हैं तो आतंकवाद किसी खास समय, काल व परिस्थियों से उपजे असंतोष का परिणाम है। यह कई बार हिंसक व विवेकहीन कार्रवाई होती है जो जन समुदाय को भयाक्रांत करती है. इन सभी घटनाओं को एक ही तराजू में नहीं तौला जा सकता। नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक होना कहीं से भी अपराध नहीं है। इस विचारधारा को मानने वाले कुछ संगठन खुले रूप में आंदोलन चलाते हैं और चुनाव लड़ते हैं तो कुछ भूमिगत रूप से संघर्ष में विश्वाश करते हैं। कुछ भूमिगत नक्सलवादी/माओवादी संगठनों को सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है। लेकिन यहीं यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इन संगठनों की विचारधारा को मानने पर कोई मनाही नहीं है। इसीलिए पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक बताकर गिरफ्तार नहीं कर सकती है, जैसा की पुलिस अक्सर करती है.। हमें विचारधारा व संगठन के अंतर को समझना होगा।
* इसी प्रकार पुलिस जब यह कहती है कि उसने नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य (कई बार धार्मिक साहित्य को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है) पकड़ा है तो उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिये कि आखिर कौन-कौन सी किताबें इसमें शामिल हैं। मित्रों, लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी खास तरह की विचारधारा से प्रेरित होकर लिखी गई किताबें रखना/पढ़ना कोई अपराध नहीं है। पुलिस द्वारा अक्सर ऐसी बरामदगियों में कार्ल मार्क्स/लेनिन/माओत्से तुंग/स्टेलिन/भगत सिंह/चेग्वेरा/फिदेल कास्त्रो/चारू मजूमदार/किसी संगठन के राजनैतिक कार्यक्रम या धार्मिक पुस्तकें शामिल होती हैं। ऐसे समय में पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि कालेजों/विश्वविद्यलयों में पढ़ाई जा रही इन राजनैतिक विचारकों की किताबें भी नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य हैं? क्या उसको पढ़ाने वाला शिक्षक/प्रोफेसर या पढ़ने वाले बच्चे भी नक्सली/माओवादी/आतंकी हैं? पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि प्रतिबंधित साहित्य का क्राइटेरिया क्या है, या कौन सा वह मीटर/मापक है जिससे पुलिस यह तय करती है कि यह नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य है।
यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है की अक्सर देखा जाता है की पुलिस जब कोई हथियार, गोला-बारूद बरामद करती है तो मीडिया के सामने खुले रूप में (कई बार बड़े करीने से सजा कर) पेश की जाती है, लेकिन वही पुलिस जब नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य बरामद करती है तो उसे सीलबंद लिफाफों में पेश करती है. इन लिफाफों में क्या है हमें नहीं पता होता है लेकिन हमारे सामने इसके लिए कुछ 'अपराधी' हमारे सामने होते हैं. आप पुलिस से यह भी मांग करे कीबरामद नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य को खुले रूप में सार्वजनिक किया जाए.
* मित्रों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तारियों के पीछे किसी खास क्षेत्र में चल रहे राजनैतिक/सामाजिक व लोकतांत्रिक आन्दोलनों को तोड़ने/दबाने या किसी खास समुदाय को आतंकित करने जैसे राजनैतिक लोभ छिपे होते हैं। ऐसे समय में यह हमें तय करना होता है कि हम किसके साथ खड़े होंगे। सत्ता की क्रूर राजनीति का सहभागी बनेंगे या न्यूनतम जरूरतों के लिए चल रहे जनआंदोलनों के साथ चलेंगे।
* हम उन तमाम संपादकों/स्थानीय संपादकों/मुख्य संवाददातों से भी अपील करते हैं , की वह अपने क्षेत्र में नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी घटनाओं की रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी अपराध संवाददाता (क्राइम रिपोर्टर) को न दें. यहाँ ऐसा सुझाव देने के पीछे इन संवाददाताओं की भूमिका को कमतर करके आंकना हमारा कत्तई उद्देश्य नहीं है. हम केवल इतना कहना चाहते हैं की यह संवाददाता रोजाना चोर, उच्चकों, डकैतों और अपराधों की रिपोर्टिंग करते-करते अपने दिमाग में खबरों को लिखने का एक खांचा तैयार कर लेते हैं और सारी घटनाओं की रिपोर्ट तयशुदा खांचे में रहकर लिखते है. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग हम तभी सही कर सकते हैं जब हम इस तयशुदा खांचे से बहार आयेगे. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद कोई महज आपराधिक घटनाएँ नहीं है, यह शुद्ध रूप से राजनैतिक मामला है.
* हमे पुलिस द्वारा किसी पर भी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी होने के लगाए जा रहे आरोपों के सत्यता की पुख्ता जांच करनी चाहिये। पुलिस से उन आरोपों के संबंध में ठोस सबूत मांगे जाने चाहिये। पुलिस से ऐसे कथित नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी के पकड़े जाने के आधार की जानकारी जरूर लें।
* हमें पुलिस के सुबूत के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर भी सत्यता की जांच करने की कोशिश करना चाहिये। मसलन अभियुक्त के परिजनों से बातचीत करना चाहिये। परिजनों से बातचीत करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत होती है। अक्सर देखा जाता है कि पुलिस के आरोपों के बाद ही हम उस व्यक्ति को अपराधी मान बैठते हैं और उसके बाद उसके परिजनों से भी ऐसे सवाल पूछते हैं जो हमारी स्टोरी व पुलिस के दावों को सत्य सिद्ध करने के लिए जरूरी हों। ऐसे समय में हमें अपने पूर्वाग्रह को कुछ समय के लिए किनारे रखकर, परिजनों के दर्द को सुनने/समझने की कोशिश करनी चाहिए। शायद वहां से कोई नयी जानकारी निकल कर आए जो पुलिस के आरोपों को फर्जी सिद्ध करे।
* मित्रों, कोई भी अभियुक्त तब तक अपराधी नहीं है, जब तक कि उस पर लगे आरोप किसी सक्षम न्यायालय में सिद्ध नहीं हो जाते या न्यायालय उसे दोषी नहीं करार देती। हमें केवल पुलिस के नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताने के आधार पर ही इन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसे शब्द लिखते समय ‘कथित’ या ‘पुलिस के अनुसार’ जरूर लिखना चाहिये। अपनी तरफ से कोई जस्टिफिकेशन नहीं देना चाहिये।
पत्रकार बंधुओं,
यहां इस तरह के सुझाव देने के पीछे हमारा यह कत्तई उद्देश्य नहीं है कि आप किसी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी का साथ दें। हम यहां कोई ज्ञान भी नहीं देना चाहते। हमारा उद्देश्य केवल इतना सा है कि ऐसे मसलों की रिपोर्टिंग करते समय हम जाने/अनजाने में सरकारी प्रवक्ता या उनका हथियार न बन जाए। ऐसे में जब हम खुद को लोकतंत्र का चौथा-खम्भा या वाच डाग कहते हैं तो जिम्मेदारी व सजगता की मांग और ज्यादा बढ़ जाती है। जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) आपको केवल इसी जिम्मेदारी का एहसास करना चाहती है।
उम्मीद है कि आपकी लेखनी शोषित/उत्पीड़ित समाज की मुखर अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकेगी !!
- निवेदक
आपके साथी,
विजय प्रताप, राजीव यादव, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चन्द्रिका, शाहनवाज आलम, अनिल, लक्ष्मण प्रसाद, अरूण उरांव, देवाशीष प्रसून, दिलीप, शालिनी वाजपेयी, पंकज उपाध्याय, विवेक मिश्रा, तारिक शफीक, विनय जायसवाल, सौम्या झा, नवीन कुमार सिंह, प्रबुद़ध गौतम, पूर्णिमा उरांव, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, अर्चना मेहतो, राकेश कुमार।
जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से जनहित में जारी
Saturday, February 13, 2010
शाहिद आजमी की नहीं, न्याय व अभिव्यक्ति के पक्षधरता की हत्या
नई दिल्ली, 13 फरवरी।
जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसाटयी (जेयूसीएस) मुंबई में शुक्रवार को एडवोकेट शाहिद आजमी की गोली मार कर की गई हत्या की घटना की कड़ी निदंा करता है। शाहिद आजमी उन गिने चुने वकीलों में से थे, जो देष में आतंकवादी होने के शक में पकड़े गए लोगों का मुकदमा लड़ने का साहस जुटा पाते हैं। जेयूसीएस शाहिद आजमी की हत्या को अभिव्यक्ति व विचारों की स्वतन्त्रता तथा न्याय के पक्ष में खड़े लोगों पर की हत्या मानते हुए इसके लिए सरकार को दोषी मानती है।
शाहिद की जिस प्रकार से हत्या की गई है, उससे पता चलता है कि देश में कुछ लोग हैं जो न्याय व लोकतंत्र का जाप करते हैं लेकिन वास्तव में वह उनके खिलाफ हैं। शाहिद आजमी को सुरक्षा न दे पाने में सरकार की विफलता यह साबित करती है कि सरकार भी नहीं चाहती की ‘न्याय व स्वतंत्रता के पक्षधर लोग उसके कामों में टांग अड़ाए।’ आतंकवाद के नाम पर सरकार व मुख्य धारा की मीडिया द्वारा बदनाम कर दिए गए आजमगढ़ से आने वाले शाहिद का सत्ता से संघर्श का रिश्ता पुराना रहा है। 12-14 वर्ष की उम्र में उन्हें टाडा में केवल इस लिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि कश्मीर से पकड़े गए कुछ लोगों ने सुरक्षा एजेंसियों को दिए गए बयान में उनका भी नाम लिया था। करीब पांच वर्षों तक जेल में रहने और वहीं से अपनी पढ़ाई जारी रखने वाले शाहिद ने वहां से निकलने के बाद एलएलबी की डिग्री ली और राजकीय आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। जेल से निकलने के बाद भी शाहिद उन लोगों के पक्ष में खड़े हुए जो उनकी तरह ‘न्याय’ व राजकीय आतंकवाद के सताए थे। शाहिद ने अपने संघर्षों से सीखते हुए आतंकवादी बताकर पकड़े गए कई लड़कों का मुकदमा लड़ा और उन्हें न्याय दिलाने में मदद की। फिलहाल वह मालेगांव बम विस्फोट व मुंबई में ब्लाॅस्ट के सिलसिले में पकड़े गए फहीम अंसारी का केस लड़ रहे थे। शाहिद उन आठ वकीलों के पैनल में भी शामिल थे जो बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ कांड का केस लड़ रहे हैं।
आपको याद हो तो हाल के वर्षों में बम विस्फोट या आतंकी घटना के बाद उसके आरोप में पकड़े गए लोगों के खिलाफ मीडिया के फैलाए उन्माद में राज्यों की बार काउंसिलों ने कई आरोपियों का केस लड़ने से मना कर दिया। बार काउंसिलों के इन तरह के निर्णय के लिए जितने जिम्मेदार उनके आका हैं उतनी ही जिम्मेदार मुख्यधारा की प्रिंट व इलेक्ट्ाॅनिक मीडिया भी है। विस्फोटों के बाद मीडिया अपनी जहरीली रिपोर्टिंग से जो जन उन्माद पैदा करती है उसमें बार काउंसिलों के ऐसे निर्णयों को भी आम जन का समर्थन मिल जाता है। शाहिद आजमी मीडिया के फैलाए इस उन्माद व बार काउंसिलों के बेतुके निर्णयों से आगे सोचने वाले वकील थे। उन्होंने बार काउंसिल के ऐसे फैसलों की परवाह न करते हुए आतंक बताए लड़कों को न्याय दिलाने जैसा खतरनाक काम अपने हाथों में लिया और अन्ततः उसके के चलते मारे भी गए।
जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसाटयी (जेयूसीएस) मांग करती है कि शाहिद आजमी के हत्या की निष्पक्षता व स्वतंत्र जांच कराई जाए। शाहिद जिस तरह के केसों को लड़ रहे थे, उसमें अगर वह उन कथित आंतकियों को छुड़ाने में कामयाब हो जाते तो यह एक तरह से सरकार की हार होती है। साथ ही साथ उनकी हत्या से हिंदूवादी संगठनों को भी उतना ही फायदा होता। क्योंकि उन्होंने प्रज्ञा ठाकुर के खिलाफ भी अदालत में एक मामला दायर कर रखा था। शाहिद के हत्यारों में प्रारम्भिक तौर पर मुंबई अंडरवल्र्ड के कुछ अपराधियों का नाम सामने आ रहा है। लेकिन वास्तव में अंडरवल्र्ड को शाहिद की हत्या से कोई फायदा नहीं होने वाला। उनकी हत्या के पीछे राजनैतिक कारण हो सकते है। हम मांग करते हैं कि शाहिद की हत्या में कांग्रेस व अन्य हिंदूवादी संगठनों के भूमिका की भी जांच कराई जाए। जेयूसीएस यह भी मांग करता है देश में मानवाधिकारों, न्याय व लोकतंत्र के पक्ष में खड़े लोगों के सुरक्षा की गारन्टी सुनिष्चित करे। और ऐसे लोगों के खिलाफ चल रहे सरकार व गैर सरकारी दमन पर रोक लगाए।
- द्वारा जारी
विजय प्रताप, राजीव यादव, शाहनवाज आलम, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, लक्ष्मण प्रसाद, तारीक शाफीक व मसिहुद्दीन संजरी ।
जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसाटयी (जेयूसीएस) मुंबई में शुक्रवार को एडवोकेट शाहिद आजमी की गोली मार कर की गई हत्या की घटना की कड़ी निदंा करता है। शाहिद आजमी उन गिने चुने वकीलों में से थे, जो देष में आतंकवादी होने के शक में पकड़े गए लोगों का मुकदमा लड़ने का साहस जुटा पाते हैं। जेयूसीएस शाहिद आजमी की हत्या को अभिव्यक्ति व विचारों की स्वतन्त्रता तथा न्याय के पक्ष में खड़े लोगों पर की हत्या मानते हुए इसके लिए सरकार को दोषी मानती है।
शाहिद की जिस प्रकार से हत्या की गई है, उससे पता चलता है कि देश में कुछ लोग हैं जो न्याय व लोकतंत्र का जाप करते हैं लेकिन वास्तव में वह उनके खिलाफ हैं। शाहिद आजमी को सुरक्षा न दे पाने में सरकार की विफलता यह साबित करती है कि सरकार भी नहीं चाहती की ‘न्याय व स्वतंत्रता के पक्षधर लोग उसके कामों में टांग अड़ाए।’ आतंकवाद के नाम पर सरकार व मुख्य धारा की मीडिया द्वारा बदनाम कर दिए गए आजमगढ़ से आने वाले शाहिद का सत्ता से संघर्श का रिश्ता पुराना रहा है। 12-14 वर्ष की उम्र में उन्हें टाडा में केवल इस लिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि कश्मीर से पकड़े गए कुछ लोगों ने सुरक्षा एजेंसियों को दिए गए बयान में उनका भी नाम लिया था। करीब पांच वर्षों तक जेल में रहने और वहीं से अपनी पढ़ाई जारी रखने वाले शाहिद ने वहां से निकलने के बाद एलएलबी की डिग्री ली और राजकीय आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। जेल से निकलने के बाद भी शाहिद उन लोगों के पक्ष में खड़े हुए जो उनकी तरह ‘न्याय’ व राजकीय आतंकवाद के सताए थे। शाहिद ने अपने संघर्षों से सीखते हुए आतंकवादी बताकर पकड़े गए कई लड़कों का मुकदमा लड़ा और उन्हें न्याय दिलाने में मदद की। फिलहाल वह मालेगांव बम विस्फोट व मुंबई में ब्लाॅस्ट के सिलसिले में पकड़े गए फहीम अंसारी का केस लड़ रहे थे। शाहिद उन आठ वकीलों के पैनल में भी शामिल थे जो बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ कांड का केस लड़ रहे हैं।
आपको याद हो तो हाल के वर्षों में बम विस्फोट या आतंकी घटना के बाद उसके आरोप में पकड़े गए लोगों के खिलाफ मीडिया के फैलाए उन्माद में राज्यों की बार काउंसिलों ने कई आरोपियों का केस लड़ने से मना कर दिया। बार काउंसिलों के इन तरह के निर्णय के लिए जितने जिम्मेदार उनके आका हैं उतनी ही जिम्मेदार मुख्यधारा की प्रिंट व इलेक्ट्ाॅनिक मीडिया भी है। विस्फोटों के बाद मीडिया अपनी जहरीली रिपोर्टिंग से जो जन उन्माद पैदा करती है उसमें बार काउंसिलों के ऐसे निर्णयों को भी आम जन का समर्थन मिल जाता है। शाहिद आजमी मीडिया के फैलाए इस उन्माद व बार काउंसिलों के बेतुके निर्णयों से आगे सोचने वाले वकील थे। उन्होंने बार काउंसिल के ऐसे फैसलों की परवाह न करते हुए आतंक बताए लड़कों को न्याय दिलाने जैसा खतरनाक काम अपने हाथों में लिया और अन्ततः उसके के चलते मारे भी गए।
जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसाटयी (जेयूसीएस) मांग करती है कि शाहिद आजमी के हत्या की निष्पक्षता व स्वतंत्र जांच कराई जाए। शाहिद जिस तरह के केसों को लड़ रहे थे, उसमें अगर वह उन कथित आंतकियों को छुड़ाने में कामयाब हो जाते तो यह एक तरह से सरकार की हार होती है। साथ ही साथ उनकी हत्या से हिंदूवादी संगठनों को भी उतना ही फायदा होता। क्योंकि उन्होंने प्रज्ञा ठाकुर के खिलाफ भी अदालत में एक मामला दायर कर रखा था। शाहिद के हत्यारों में प्रारम्भिक तौर पर मुंबई अंडरवल्र्ड के कुछ अपराधियों का नाम सामने आ रहा है। लेकिन वास्तव में अंडरवल्र्ड को शाहिद की हत्या से कोई फायदा नहीं होने वाला। उनकी हत्या के पीछे राजनैतिक कारण हो सकते है। हम मांग करते हैं कि शाहिद की हत्या में कांग्रेस व अन्य हिंदूवादी संगठनों के भूमिका की भी जांच कराई जाए। जेयूसीएस यह भी मांग करता है देश में मानवाधिकारों, न्याय व लोकतंत्र के पक्ष में खड़े लोगों के सुरक्षा की गारन्टी सुनिष्चित करे। और ऐसे लोगों के खिलाफ चल रहे सरकार व गैर सरकारी दमन पर रोक लगाए।
- द्वारा जारी
विजय प्रताप, राजीव यादव, शाहनवाज आलम, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, लक्ष्मण प्रसाद, तारीक शाफीक व मसिहुद्दीन संजरी ।
Wednesday, February 10, 2010
पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी के विरोध में जेयूसीएस चलाएगा हस्ताक्षर अभियान
- गिरफ्तारी को बताया अभिव्यक्ति व विचारों की स्वतंत्रता पर हमला बताया
नई दिल्ली 10 फरवरी। पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी के खिलाफ व उनकी रिहाई की मांग को लेकर जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) हस्ताक्षर अभियान चलाएगा। जेयूसीएस की बुधवार को हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यह निर्णय लिया गया। बैठक में राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों ने पत्रकार सीमा आजाद की गिरफतारी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताते हुए इसकी कड़ी निंदाकी ।
बैठक को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य विजय प्रताप व अवनीश राय ने कहा कि उत्तर प्रदेश में मानवाधिकारों पर पहले से ही खतरा मंडरा रहा है। राज्य में पुलिस और प्रशासन की कार्यप्रणाली कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं हैं। अपनी वाजिब मांगों के लिए संघर्ष कर रहे लोगों पर लाठियां बरसाई जा रही हैं और उनके खिलाफ मनमाने फर्जी मुकदमें लादे जा रहे हैं। आजमगढ़, इलाहाबाद व सोनभद्र जैसे जिलों में मानवाधिकारों का कोई मतलब नहीं रहा गया है। कार्यकारिणी सदस्यों ने कहा कि इस खतरे से अब पत्रकार, साहित्यकार या मानवाधिकार कार्यकर्ता भी अछूते नहीं है। जगह-जगह उनका भी दमन हो रहा है। इलाहाबाद में चाहे पत्रकार सीमा आजाद का मामला हों या आजमगढ़ में पीयूसीएल के संयुक्त मंत्री मसीहुद्दीन संजरी का मामला हो। मानवाधिकार की आवाज बुलंद करने वाले नागरिक व पत्रकार पुलिस के निशाने पर है। कार्यकारिणी सदस्य पंकज उपाध्दाय व अरुणउरांव ने कहा कि राज्य व पुलिस को यह स्पष्ट करना चाहिए कि 'नक्सल साहित्य' में कौन-कौन सी किताबें आती है। उन्होंने सरकार से पूछा कि क्या इस तरह के साहित्यों के लिए कोई फिल्म सेंसर बोर्ड की तरह ए, बी, या सी कटैगरी तैयार की गई है। अगर ऐसी कोई कैटेगरी है तो उसे सार्वजानिक किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि 'नक्सल साहित्य' के नाम पर पुलिस को यह खुली छूट मिली है कि वो किसी को गिरफ्तार कर ले और उसे देश के लिए खतरा बता दे। उन्होंने कहा कि सत्ता व पुलिस धीरे-धीरे विचारों की अभिव्यक्ति का भी गला घोंट देना चाहती है। नक्सल साहित्य के नाम पर लोगों की गिरफ्तारी इसका ताजातरीन नमूना है।
पत्रकार व जेयूसीएस के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य ऋषि कुमार सिंह, लक्ष्मण प्रसाद व विवेक मिश्र ने बताया कि जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) देशव्यापी हस्ताक्षर अभियान चलाकर उत्तर प्रदेश में चल रहे पुलिसिया उत्पीड़न के खिलाफ समर्थन एकत्र करेगी। अभियान के तहत जेयूसीएस प्रबुद्ध नागरिकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, साहित्यकारों व छात्रों के बीच जाकर उनसे सीमा आजाद की रिहाई की मांग के समर्थन में हस्ताक्षर कराएगी जिसे बाद में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व मानवाधिकार आयोग को भेजा जाएगा। जेयूसीएस ने पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी के खिलाफ पीयूसीएल के 13 फरवरी को प्रस्तावित राष्ट्र्वापी विरोधप्रदर्शनों का समर्थन किया है।
विजय प्रताप,
राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य
जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस)
नई दिल्ली 10 फरवरी। पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी के खिलाफ व उनकी रिहाई की मांग को लेकर जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) हस्ताक्षर अभियान चलाएगा। जेयूसीएस की बुधवार को हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यह निर्णय लिया गया। बैठक में राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों ने पत्रकार सीमा आजाद की गिरफतारी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताते हुए इसकी कड़ी निंदाकी ।
बैठक को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य विजय प्रताप व अवनीश राय ने कहा कि उत्तर प्रदेश में मानवाधिकारों पर पहले से ही खतरा मंडरा रहा है। राज्य में पुलिस और प्रशासन की कार्यप्रणाली कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं हैं। अपनी वाजिब मांगों के लिए संघर्ष कर रहे लोगों पर लाठियां बरसाई जा रही हैं और उनके खिलाफ मनमाने फर्जी मुकदमें लादे जा रहे हैं। आजमगढ़, इलाहाबाद व सोनभद्र जैसे जिलों में मानवाधिकारों का कोई मतलब नहीं रहा गया है। कार्यकारिणी सदस्यों ने कहा कि इस खतरे से अब पत्रकार, साहित्यकार या मानवाधिकार कार्यकर्ता भी अछूते नहीं है। जगह-जगह उनका भी दमन हो रहा है। इलाहाबाद में चाहे पत्रकार सीमा आजाद का मामला हों या आजमगढ़ में पीयूसीएल के संयुक्त मंत्री मसीहुद्दीन संजरी का मामला हो। मानवाधिकार की आवाज बुलंद करने वाले नागरिक व पत्रकार पुलिस के निशाने पर है। कार्यकारिणी सदस्य पंकज उपाध्दाय व अरुणउरांव ने कहा कि राज्य व पुलिस को यह स्पष्ट करना चाहिए कि 'नक्सल साहित्य' में कौन-कौन सी किताबें आती है। उन्होंने सरकार से पूछा कि क्या इस तरह के साहित्यों के लिए कोई फिल्म सेंसर बोर्ड की तरह ए, बी, या सी कटैगरी तैयार की गई है। अगर ऐसी कोई कैटेगरी है तो उसे सार्वजानिक किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि 'नक्सल साहित्य' के नाम पर पुलिस को यह खुली छूट मिली है कि वो किसी को गिरफ्तार कर ले और उसे देश के लिए खतरा बता दे। उन्होंने कहा कि सत्ता व पुलिस धीरे-धीरे विचारों की अभिव्यक्ति का भी गला घोंट देना चाहती है। नक्सल साहित्य के नाम पर लोगों की गिरफ्तारी इसका ताजातरीन नमूना है।
पत्रकार व जेयूसीएस के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य ऋषि कुमार सिंह, लक्ष्मण प्रसाद व विवेक मिश्र ने बताया कि जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) देशव्यापी हस्ताक्षर अभियान चलाकर उत्तर प्रदेश में चल रहे पुलिसिया उत्पीड़न के खिलाफ समर्थन एकत्र करेगी। अभियान के तहत जेयूसीएस प्रबुद्ध नागरिकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, साहित्यकारों व छात्रों के बीच जाकर उनसे सीमा आजाद की रिहाई की मांग के समर्थन में हस्ताक्षर कराएगी जिसे बाद में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व मानवाधिकार आयोग को भेजा जाएगा। जेयूसीएस ने पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी के खिलाफ पीयूसीएल के 13 फरवरी को प्रस्तावित राष्ट्र्वापी विरोधप्रदर्शनों का समर्थन किया है।
विजय प्रताप,
राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य
जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस)
सीमा आजाद कांड के विरोध में विधानसभा पर 13 को धरना देंगे जनसंगठन
पत्रकारों ने पूछा -माओवादी साहित्य क्या होता है ?
लखनऊ,(जनसत्ता )। मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार सीमा आजाद को माओवादी बताकर गिरफ्तार किए के खिलाफ उत्तर प्रदेश के राजनैतिक, सामाजिक और मानवाधिकार संगठन लामबंद होने लगे हैं। मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल ने इस मुद्दे पर आगामी तेरह फरवरी को लखनऊ में धरना देने का एलान किया है जिसमे कई अन्य संगठन भी शामिल होंगे।सीमा की गिरफतारी पर वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव ने कहा-‘ये सरासर गलत है और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार पर भी हमला है। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी(जेयूसीएस) ने पुलिस - प्रशासन से पूछा है कि माओवादी साहित्य की परिभाषा क्या होती है ? क्या फिदेल कास्त्रो ,लेनिन और चेग्वेरा की पुस्तक माओवादी साहित्य में आता है ।
गौरतलब है कि पीयूसीएल की संगठन मंत्री सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय को उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने शनिवार को माओवादी बताते हुए इलाहाबाद स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया था। मंगलवार को लखनऊ में पीयूसीएल के प्रदेश कार्यालय मे एक प्रेस कांफ्रेस को में पूर्व आईपीएस अधिकारी एस आर दारापुरी ने कहा- ‘सीमा की गिरफ्तारी विचारों की आजादी का हनन है। पीयूसीएल माओवादी अथवा पुलिस किसी भी प्रकार की हिंसा का विरोध करती है। तेरह फरवरी को सीमा आजाद की गिरफ्तारी और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन के विरोध में लखनऊ में धरना प्रदर्शन किया जाएगा’। दारापुरी ने बताया कि मानवाधिकार आयोग को संगठन की तरफ से जो ज्ञापन भेजा गया है उसमे पूरा ब्यौरा है । पुलिस ने किस तरह एक पत्रकार को फर्जी मामला गढ़ कर माओवादी बना दिया है । इस मामले में आयोग से फ़ौरन दखल देने की मांग की गई ।
इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च एंड डाकुमेंटेशन इन सोशल साइंसेज ने भी सीमा आजाद की गिरफ्तारी का विरोध करते हुए तेरह फऱवरी को प्रस्तावित धरने मे शामिल होने की घोषणा की है। संस्था की सचिव नूतन ठाकुर ने एक बयान मे कहा- सीमा आजाद को नक्सली बताकर गिरफ्तार और उनपर राष्ट्रद्रोह जैसी गंभीर धाराएं लगा देना मानवाधिकार का हनन है। सीमा एक्सप्रेस वे और बालू खनन के मुद्दे का लगातार विरोध करती रहीं हैं जिसके बदले मे पुलिस ने ये कार्यवाही की है’। सीमा आजाद की गिरफ्तारी को उत्तर प्रदेश की पत्रकार बिरादरी ने भी गलत बताया है। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी(जेयूसीएस) ने सीमा को माओवादी करार दिए जाने पर तीखी आपत्ति जताई है। जेयूसीएस के सदस्य विजय प्रताप और अवनीश राय ने प्रशासन से पूछा है कि माओवादी साहित्य की परिभाषा क्या होती है ? समाजवादी पार्टी ने भी इस मुद्दे पर सरकार को आड़े हाथों लिया है। समाजवादी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता राजेनद्र चौधरी ने एक बयान मे कहा-‘ कहा कि प्रदेश सरकार मानवाधिकार हनन के मामले में सबसे आगे है। माओवाद के नाम पर लोकतात्रिक अधिकारों का दमन किया जा रहा है |
लखनऊ,(जनसत्ता )। मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार सीमा आजाद को माओवादी बताकर गिरफ्तार किए के खिलाफ उत्तर प्रदेश के राजनैतिक, सामाजिक और मानवाधिकार संगठन लामबंद होने लगे हैं। मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल ने इस मुद्दे पर आगामी तेरह फरवरी को लखनऊ में धरना देने का एलान किया है जिसमे कई अन्य संगठन भी शामिल होंगे।सीमा की गिरफतारी पर वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव ने कहा-‘ये सरासर गलत है और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार पर भी हमला है। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी(जेयूसीएस) ने पुलिस - प्रशासन से पूछा है कि माओवादी साहित्य की परिभाषा क्या होती है ? क्या फिदेल कास्त्रो ,लेनिन और चेग्वेरा की पुस्तक माओवादी साहित्य में आता है ।
गौरतलब है कि पीयूसीएल की संगठन मंत्री सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय को उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने शनिवार को माओवादी बताते हुए इलाहाबाद स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया था। मंगलवार को लखनऊ में पीयूसीएल के प्रदेश कार्यालय मे एक प्रेस कांफ्रेस को में पूर्व आईपीएस अधिकारी एस आर दारापुरी ने कहा- ‘सीमा की गिरफ्तारी विचारों की आजादी का हनन है। पीयूसीएल माओवादी अथवा पुलिस किसी भी प्रकार की हिंसा का विरोध करती है। तेरह फरवरी को सीमा आजाद की गिरफ्तारी और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन के विरोध में लखनऊ में धरना प्रदर्शन किया जाएगा’। दारापुरी ने बताया कि मानवाधिकार आयोग को संगठन की तरफ से जो ज्ञापन भेजा गया है उसमे पूरा ब्यौरा है । पुलिस ने किस तरह एक पत्रकार को फर्जी मामला गढ़ कर माओवादी बना दिया है । इस मामले में आयोग से फ़ौरन दखल देने की मांग की गई ।
इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च एंड डाकुमेंटेशन इन सोशल साइंसेज ने भी सीमा आजाद की गिरफ्तारी का विरोध करते हुए तेरह फऱवरी को प्रस्तावित धरने मे शामिल होने की घोषणा की है। संस्था की सचिव नूतन ठाकुर ने एक बयान मे कहा- सीमा आजाद को नक्सली बताकर गिरफ्तार और उनपर राष्ट्रद्रोह जैसी गंभीर धाराएं लगा देना मानवाधिकार का हनन है। सीमा एक्सप्रेस वे और बालू खनन के मुद्दे का लगातार विरोध करती रहीं हैं जिसके बदले मे पुलिस ने ये कार्यवाही की है’। सीमा आजाद की गिरफ्तारी को उत्तर प्रदेश की पत्रकार बिरादरी ने भी गलत बताया है। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी(जेयूसीएस) ने सीमा को माओवादी करार दिए जाने पर तीखी आपत्ति जताई है। जेयूसीएस के सदस्य विजय प्रताप और अवनीश राय ने प्रशासन से पूछा है कि माओवादी साहित्य की परिभाषा क्या होती है ? समाजवादी पार्टी ने भी इस मुद्दे पर सरकार को आड़े हाथों लिया है। समाजवादी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता राजेनद्र चौधरी ने एक बयान मे कहा-‘ कहा कि प्रदेश सरकार मानवाधिकार हनन के मामले में सबसे आगे है। माओवाद के नाम पर लोकतात्रिक अधिकारों का दमन किया जा रहा है |
पुलिस बताए क्या है 'नक्सली साहित्य' ?
- जेयूसीएस ने संपादक सीमा आजाद की रिहा करने की मांग की
नई दिल्ली, 9 फ़रवरी
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) की ओर से हम सभी युवा पत्रकार, दस्तक पत्रिका की संपादक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद के गिरफ्तारी की कड़ी निंदा करते हैं। इसके साथ ही पूर्व छात्र नेता,लोकतांत्रिक अधिकार कार्यकर्ता और सीमा आजाद के पति विश्वविजय की गिरफ्तारी की भी जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी कड़ी निंदा करता है। उल्लेखनीय है की शनिवार को जब ये लोग दिल्ली के पुस्तक मेले से इलाहाबाद लौट रहे थे तभी स्टेशन पर ही उन्हें गिरफ्तार किया गया ।पुलिस का कहना था कि इन लोगों के पास से 'नक्सली साहित्य' बरामद हुआ है और इस आधार पर पुलिस इन्हें गिरफ्तार करती है।पुलिस ने सीमा आजाद की गिरफ्तारी बिना किसी महिला पुलिस की मौजूदगी में किया।
सीमा आजाद ने सोनभद्र में कमलेश चौधरी के पुलिस के फर्जी मुठभेड़ और बसपा के दबंग नेताओं के खिलाफ आवाज उठाई थी। इसके अलावा कौशांबी और इलाहाबाद में खनन माफिया के खिलाफ भी सीमा ने अपनी आवाज मुखर की थी। हमें घोर आश्चर्य है कि मानवाधिकारों और लोगों के सवैंधानिक अधिकारों की आवाज को उठाने वाली एक पत्रकार को पुलिस नक्सली बताकर हिरासत में ले लेती है। प्रदेश पुलिस की यह कार्रवाई असवैंधानिक, सेवा शर्तों के विपरीत तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन है।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी मांग करता है कि पत्रकार और संपादक सीमा आजाद को तुरंत रिहा किया जाए। इसके अलावा पुलिस यह भी साफ करे कि 'नक्सली साहित्य' क्या है। वे कौन से आधार हैं जिन पर पुलिस किसी भी किताब को तुरंत देखकर ही उसे नक्सली साहित्य बता सकती है, और किसी साहित्य को पढ़ने या उसे अपने पास रखने के आधार पर किसी की गिरफ्तारी कैसे की जा सकती है ?
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) की ओर से
अवनीश राय, विजय प्रताप, ऋषि कुमार सिंह, शाहनवाज आलम, राजीव यादव, अरूण उरांव, चन्द्रिका, लक्ष्मण प्रसाद, विवेक, अनिल, देवाशीष प्रसून, सौम्या झा, विनय जायसवाल, नवीन कुमार सिंह, शालिनी बाजपेई, प्रबुद्ध गौतम, पीयूष तिवारी, पूर्णिमा उरांव, लक्ष्मण प्रसाद, अर्चना महतो, पंकज उपाध्याय, अभिषेक कुमार सिंह, राघवेन्द्र प्रताप सिंह,राकेश कुमार द्वारा जारी .
नई दिल्ली, 9 फ़रवरी
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) की ओर से हम सभी युवा पत्रकार, दस्तक पत्रिका की संपादक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद के गिरफ्तारी की कड़ी निंदा करते हैं। इसके साथ ही पूर्व छात्र नेता,लोकतांत्रिक अधिकार कार्यकर्ता और सीमा आजाद के पति विश्वविजय की गिरफ्तारी की भी जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी कड़ी निंदा करता है। उल्लेखनीय है की शनिवार को जब ये लोग दिल्ली के पुस्तक मेले से इलाहाबाद लौट रहे थे तभी स्टेशन पर ही उन्हें गिरफ्तार किया गया ।पुलिस का कहना था कि इन लोगों के पास से 'नक्सली साहित्य' बरामद हुआ है और इस आधार पर पुलिस इन्हें गिरफ्तार करती है।पुलिस ने सीमा आजाद की गिरफ्तारी बिना किसी महिला पुलिस की मौजूदगी में किया।
सीमा आजाद ने सोनभद्र में कमलेश चौधरी के पुलिस के फर्जी मुठभेड़ और बसपा के दबंग नेताओं के खिलाफ आवाज उठाई थी। इसके अलावा कौशांबी और इलाहाबाद में खनन माफिया के खिलाफ भी सीमा ने अपनी आवाज मुखर की थी। हमें घोर आश्चर्य है कि मानवाधिकारों और लोगों के सवैंधानिक अधिकारों की आवाज को उठाने वाली एक पत्रकार को पुलिस नक्सली बताकर हिरासत में ले लेती है। प्रदेश पुलिस की यह कार्रवाई असवैंधानिक, सेवा शर्तों के विपरीत तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन है।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी मांग करता है कि पत्रकार और संपादक सीमा आजाद को तुरंत रिहा किया जाए। इसके अलावा पुलिस यह भी साफ करे कि 'नक्सली साहित्य' क्या है। वे कौन से आधार हैं जिन पर पुलिस किसी भी किताब को तुरंत देखकर ही उसे नक्सली साहित्य बता सकती है, और किसी साहित्य को पढ़ने या उसे अपने पास रखने के आधार पर किसी की गिरफ्तारी कैसे की जा सकती है ?
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) की ओर से
अवनीश राय, विजय प्रताप, ऋषि कुमार सिंह, शाहनवाज आलम, राजीव यादव, अरूण उरांव, चन्द्रिका, लक्ष्मण प्रसाद, विवेक, अनिल, देवाशीष प्रसून, सौम्या झा, विनय जायसवाल, नवीन कुमार सिंह, शालिनी बाजपेई, प्रबुद्ध गौतम, पीयूष तिवारी, पूर्णिमा उरांव, लक्ष्मण प्रसाद, अर्चना महतो, पंकज उपाध्याय, अभिषेक कुमार सिंह, राघवेन्द्र प्रताप सिंह,राकेश कुमार द्वारा जारी .
पत्रकारिता का पाठ्यक्रम व शिक्षण का तरीका बदले : जेयूसीएस
- जेयूसीएस ने प्रो अनिल चमड़िया के निष्कासन की निंदा की
- यूजीसी से नकलची प्रोफेसरों को बाहर करने की मांग
______________________________________
प्रति,
अध्यक्ष
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग,
नई दिल्ली
महोदय,
जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) की ओर से हम सभी युवा पत्रकार, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) में पत्रकारिता के प्रोफेसर व वरिष्ट पत्रकार, अनिल चमड़िया को बिना कोई कारण बताए निकाले जानी की कड़ी निंदा करते हैं। जैसा कि आपको ज्ञात होगा विश्वविद्यालय के कुलपति वी एन राय ने प्रो अनिल चमड़िया को व्यक्तिगत नापसंदगी के चलते कार्यपरिषद् की नामंजूरी का बहाना बनाकर विश्वविद्यालय से निकाल दिया दिया। साथ ही आपको यह भी ज्ञात होगा कि वहां इन्हीं कुलपति महोदय ने छात्रों के विरोध के बावजूद एक नकलची प्रोफेसर को पत्रकारिता विभाग का विभागाध्यक्ष बना रखा है।
अध्यक्ष महोदय से हम मांग करते हैं कि वह इस मामले को संज्ञान में लेते हुए प्रो चमड़िया की निष्कासन को तुरंत निरस्त करें व विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष की योग्यता की जांच हो। संगठन का यह मानना है कि पत्रकारिता की पढ़ाई आम विषयों की पढ़ाई से बिल्कुल अलग है, और इसे पढ़ाने का तरीका भी सामान्य विषयों से अलग होना चाहिए। आयोग को हम मीडिया के छात्रों, पत्रकारों व अनुभवी शिक्षकों से बातचीत के आधार पर पत्रकारिता की पढ़ाई के संबंध में कुछ सुझाव भी पेश कर रहे हैं।
संगठन को उम्मीद है कि आयोग इन सुझावों पर गंभीरता से विचार करेगा, और पत्रकारिता शिक्षण को समाज, देश व आम लोगों के हितों के अनुरूप व्यावहारिक बनाने पर जोर देगा।
जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) मांग करती है कि -
* देशभर में पढाए जा रहे पत्रकारिता के पाठ्यक्रम की समीक्षा हो. पत्रकारिता "ईश्वरीय कार्य है" (राजर्षि टंडन ओपन यूनिवर्सिटी, इलाहबाद के पाठ्यक्रम के अनुसार) की बजाय इसे विशुद्ध रूप से मानवीय कार्य ही रहने दिया जाए. पाठ्यक्रम में ज्यादा से ज्यादा व्यावहारिक पक्ष को शामिल किया जाए.
* पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के साथ ही इसे पढ़ने वाले शिक्षकों, प्रोफेसरों और पत्रकारों की भी समीक्षा हो, और यह सुनिश्चित किया जाए की पत्रकारिता को व्यावहारिक रूप से जानने समझाने वाला व्यक्ति ही इस क्षेत्र में आये. हम यूजीसी से मांग करते हैं की कमस कम पत्रकारिता जैसे पाठ्यक्रमों में नेट/पीएचडी धारियों की बाध्यता समाप्त की जाए और इसे पढ़ने की जिम्मेदारी पत्रकारों को ही सौंपी जाए. ताकि इसके विद्यार्थियों को भी ज्यादा से ज्यादा व्यावहारिक जानकारी मिल सके.
* पत्रकारिता की पाठ्य-पुस्तकों की भी जाँच हो. नकलची लेखकों की पुस्तकों की जाँच कर उनके खिलाफ विधिसम्मत कार्रवाई हो. जैसे की आप सभी को पता ही होगा अन्य क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी बड़ी संख्या में नकलची लेखकों की भरमार है. हम यूजीसी से मांग करते हैं की वो कम से कम मान्य विश्वविद्यालयों और संस्थानों में इस तरह की पुस्तकों के अनुमोदन पर रोक लगाए.
* पत्रकारिता के विद्यार्थियों को व्यावहारिक, सामाजिक और राजनैतिक ज्ञान देने की कोशिश हो न की केवल सैद्धांतिक. जैसा की अधिकांश विश्वविद्यालयों और संस्थानों में विद्यार्थियों को ज्यादा से ज्यादा अव्यावहारिक और कुंद बनाये जाने की कोशिश की जा रही है. हम मांग करते हैं की पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को कम से कम आईइएस जैसे परीक्षाओं की तरह शुद्ध रूप प्रशासनिक और सरकारी न बनाते हुए इसे ज्यादा से ज्यादा सामाजिक बनाया जाए.
* पत्रकार समाज का सबसे जागरूक तबका होता है. इस क्षेत्र और इसकी शिक्षा में भी समाज के सभी तबकों की भागीदारी सुनिश्चित कराई जाए. हालाँकि अभी तक के सर्वेक्षण ( देखें मीडिया स्टडी ग्रुप की ओर से किया गया सर्वेक्षण 'चौथा पन्ना') में यह साफ़ हो गया है की मीडिया संस्थानों में सवर्ण जातिओं का वर्चश्व है; मीडिया पाठ्यक्रम में इस वर्चश्व को ख़त्म कर समाज के निचले तबके, महिलावों और अल्पसंख्यकों की भागीदारी बढाई जाए. यूजीसी इस वर्ग से आने वाले विद्यार्थियों को विशेष प्रोत्साहन भी दे.
* निजी मीडिया शिक्षण संस्थानों में पत्रकारिता की पढ़ाई और प्लेसमेंट के नाम पर बड़े पैमाने पर ठगी का कारोबार चल रहा है। इस पर तत्काल रोक लगाई जाए। विभिन्न अखबारों व चैनलों ने खुद के मीडिया संस्थान भी खोल रखे हैं, यहां छात्रों को नौकरी देने के नाम पर प्रवेश देकर उनसे फीस के नाम पर मोटी रकम वसूली जा रही है। यूजीसी इन सभी संस्थानों का सर्वे कराकर ऐसे गोरखधंधे पर रोक लगाए और इन संस्थानों में वाजिब फीस ढांचा लागू किया जाए।
- भवदीय
ऋषि कुमार सिंह, अवनीश राय, अरूण उरांव, सौम्या झा, विनय जायसवाल, नवीन कुमार सिंह, शालिनी बाजपेई, प्रबुद्ध गौतम, पीयूष तिवारी, पूर्णिमा उरांव, लक्ष्मण प्रसाद, अर्चना महतो, पंकज उपाध्याय, अभिषेक कुमार सिंह, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, राकेश कुमार, शाहनवाज आलम, राजीव यादव, विजय प्रताप व जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) के अन्य सदस्य।
- प्रति प्रेषित,
1. प्रतिभा देवी सिंह पाटिल
राष्ट्रपति, भारत सरकार
2. कपिल सिब्बल,
केन्द्रीय मंत्री, मानव संसाधन विकास विभाग
3. नामवर सिंह
चांसलर, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
- यूजीसी से नकलची प्रोफेसरों को बाहर करने की मांग
______________________________________
प्रति,
अध्यक्ष
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग,
नई दिल्ली
महोदय,
जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) की ओर से हम सभी युवा पत्रकार, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) में पत्रकारिता के प्रोफेसर व वरिष्ट पत्रकार, अनिल चमड़िया को बिना कोई कारण बताए निकाले जानी की कड़ी निंदा करते हैं। जैसा कि आपको ज्ञात होगा विश्वविद्यालय के कुलपति वी एन राय ने प्रो अनिल चमड़िया को व्यक्तिगत नापसंदगी के चलते कार्यपरिषद् की नामंजूरी का बहाना बनाकर विश्वविद्यालय से निकाल दिया दिया। साथ ही आपको यह भी ज्ञात होगा कि वहां इन्हीं कुलपति महोदय ने छात्रों के विरोध के बावजूद एक नकलची प्रोफेसर को पत्रकारिता विभाग का विभागाध्यक्ष बना रखा है।
अध्यक्ष महोदय से हम मांग करते हैं कि वह इस मामले को संज्ञान में लेते हुए प्रो चमड़िया की निष्कासन को तुरंत निरस्त करें व विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष की योग्यता की जांच हो। संगठन का यह मानना है कि पत्रकारिता की पढ़ाई आम विषयों की पढ़ाई से बिल्कुल अलग है, और इसे पढ़ाने का तरीका भी सामान्य विषयों से अलग होना चाहिए। आयोग को हम मीडिया के छात्रों, पत्रकारों व अनुभवी शिक्षकों से बातचीत के आधार पर पत्रकारिता की पढ़ाई के संबंध में कुछ सुझाव भी पेश कर रहे हैं।
संगठन को उम्मीद है कि आयोग इन सुझावों पर गंभीरता से विचार करेगा, और पत्रकारिता शिक्षण को समाज, देश व आम लोगों के हितों के अनुरूप व्यावहारिक बनाने पर जोर देगा।
जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) मांग करती है कि -
* देशभर में पढाए जा रहे पत्रकारिता के पाठ्यक्रम की समीक्षा हो. पत्रकारिता "ईश्वरीय कार्य है" (राजर्षि टंडन ओपन यूनिवर्सिटी, इलाहबाद के पाठ्यक्रम के अनुसार) की बजाय इसे विशुद्ध रूप से मानवीय कार्य ही रहने दिया जाए. पाठ्यक्रम में ज्यादा से ज्यादा व्यावहारिक पक्ष को शामिल किया जाए.
* पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के साथ ही इसे पढ़ने वाले शिक्षकों, प्रोफेसरों और पत्रकारों की भी समीक्षा हो, और यह सुनिश्चित किया जाए की पत्रकारिता को व्यावहारिक रूप से जानने समझाने वाला व्यक्ति ही इस क्षेत्र में आये. हम यूजीसी से मांग करते हैं की कमस कम पत्रकारिता जैसे पाठ्यक्रमों में नेट/पीएचडी धारियों की बाध्यता समाप्त की जाए और इसे पढ़ने की जिम्मेदारी पत्रकारों को ही सौंपी जाए. ताकि इसके विद्यार्थियों को भी ज्यादा से ज्यादा व्यावहारिक जानकारी मिल सके.
* पत्रकारिता की पाठ्य-पुस्तकों की भी जाँच हो. नकलची लेखकों की पुस्तकों की जाँच कर उनके खिलाफ विधिसम्मत कार्रवाई हो. जैसे की आप सभी को पता ही होगा अन्य क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी बड़ी संख्या में नकलची लेखकों की भरमार है. हम यूजीसी से मांग करते हैं की वो कम से कम मान्य विश्वविद्यालयों और संस्थानों में इस तरह की पुस्तकों के अनुमोदन पर रोक लगाए.
* पत्रकारिता के विद्यार्थियों को व्यावहारिक, सामाजिक और राजनैतिक ज्ञान देने की कोशिश हो न की केवल सैद्धांतिक. जैसा की अधिकांश विश्वविद्यालयों और संस्थानों में विद्यार्थियों को ज्यादा से ज्यादा अव्यावहारिक और कुंद बनाये जाने की कोशिश की जा रही है. हम मांग करते हैं की पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को कम से कम आईइएस जैसे परीक्षाओं की तरह शुद्ध रूप प्रशासनिक और सरकारी न बनाते हुए इसे ज्यादा से ज्यादा सामाजिक बनाया जाए.
* पत्रकार समाज का सबसे जागरूक तबका होता है. इस क्षेत्र और इसकी शिक्षा में भी समाज के सभी तबकों की भागीदारी सुनिश्चित कराई जाए. हालाँकि अभी तक के सर्वेक्षण ( देखें मीडिया स्टडी ग्रुप की ओर से किया गया सर्वेक्षण 'चौथा पन्ना') में यह साफ़ हो गया है की मीडिया संस्थानों में सवर्ण जातिओं का वर्चश्व है; मीडिया पाठ्यक्रम में इस वर्चश्व को ख़त्म कर समाज के निचले तबके, महिलावों और अल्पसंख्यकों की भागीदारी बढाई जाए. यूजीसी इस वर्ग से आने वाले विद्यार्थियों को विशेष प्रोत्साहन भी दे.
* निजी मीडिया शिक्षण संस्थानों में पत्रकारिता की पढ़ाई और प्लेसमेंट के नाम पर बड़े पैमाने पर ठगी का कारोबार चल रहा है। इस पर तत्काल रोक लगाई जाए। विभिन्न अखबारों व चैनलों ने खुद के मीडिया संस्थान भी खोल रखे हैं, यहां छात्रों को नौकरी देने के नाम पर प्रवेश देकर उनसे फीस के नाम पर मोटी रकम वसूली जा रही है। यूजीसी इन सभी संस्थानों का सर्वे कराकर ऐसे गोरखधंधे पर रोक लगाए और इन संस्थानों में वाजिब फीस ढांचा लागू किया जाए।
- भवदीय
ऋषि कुमार सिंह, अवनीश राय, अरूण उरांव, सौम्या झा, विनय जायसवाल, नवीन कुमार सिंह, शालिनी बाजपेई, प्रबुद्ध गौतम, पीयूष तिवारी, पूर्णिमा उरांव, लक्ष्मण प्रसाद, अर्चना महतो, पंकज उपाध्याय, अभिषेक कुमार सिंह, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, राकेश कुमार, शाहनवाज आलम, राजीव यादव, विजय प्रताप व जर्नलिस्ट यूनियन फाॅर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) के अन्य सदस्य।
- प्रति प्रेषित,
1. प्रतिभा देवी सिंह पाटिल
राष्ट्रपति, भारत सरकार
2. कपिल सिब्बल,
केन्द्रीय मंत्री, मानव संसाधन विकास विभाग
3. नामवर सिंह
चांसलर, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
मीडिया के खतरनाक रुख के खिलाफ एक अभियान
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) की पहल
साथियों,
‘लाल सलाम’! यह संबोधन पिछले दिनों इलाहाबाद की मीडिया में प्रमुखता से छाया रहा। ‘लाल सलाम’ को एक संगठन के बतौर बताया गया। हालात यहां तक हो गए की इलाहाबाद में बालू माफियाओं के खिलाफ लाल झंडा लिए लाल सलाम के संबोधन करने वाले आंदोलनकारियों की मांगों को दरकिनार कर इन्हें ‘नक्सलवादी’ कह इनके आंदोलनों का दमन किया गया।
जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) के मीडिया मानिटरिंग सेल द्वारा इस प्रक्रिया की लंबे अरसे से जांचा की जा रहा है। संगठन ने जांच के दौरान पाया की इलाहाबाद के समाचार माध्यमों द्वारा लंबे समय से इस पूरे क्षेत्र को नक्सलाइट क्षेत्र घोषित करवाने की होड़ सी मची है। नक्सलाइट क्षेत्र घोषित करवाने की इस होड़ में मीडिया के स्लीपिंग माड्यूलों और खुफिया गठजोड़ का महान संगम है।
इलाहाबाद व कौषम्बी के तराई क्षेत्र में बालू माफियाओं तथा मछुआरों व मजदूरों के बीच अवैध वसूली के खिलाफ टकराव की खबरों को स्ािानीय मीडिया नक्सलवाद के रूप में प्रचारित कर रही है। यह संघर्श पिछले काफी समय से चल रहा है जिसमें समाचार माध्यम पूरी तरह से स्ािानीय बाहुबली नेताओं के पक्ष में खड़े दिख रहे हैं। ‘लाल सलाम’ का हौव्वा खड़ा कर इस पूरे क्षेत्र को नक्सल प्रभावित क्षेत्र की सूची में लाने साजिश चल रही है, जिससे उसके नाम पर भारी पैमाने में यहां सरकारी पैकेज आए और शासन-प्रशासन उसकी बंदरबाट कर सके। इस पूरे अभियान में मीडिया बालू माफियाओं के प्रतिनिधि के रुप में कार्य कर रही है। अब अगर ‘लाल सलाम’ नाम के संगठन की बात की जाय तो इस नाम का कोई संगठन नहीं है। इस संगठन का नाम खुद बालू माफियाओं ने दिया और मीडिया ने उसे हाथों हाथ लपक कर अपनी जनविरोधी कारगुजारियों का मसाला तैयार कर दिया।
गंगा-यमुना के उपजाऊ क्षेत्र पर बसे इलाहाबाद के दक्षिणी क्षेत्र की यह भौगोलिक विडंबना है कि वहां पठार हैं जो खनन के लिए भले ही सोना उगलने वाली खानें हैं पर चाहे वह सूखा हो या बरसात, आदिवासियों के लिए कुपोषण और महामारी की खानें हैं। नक्सवाद के प्रति सरकारी नजरिया रखने वालों के लिए यह नक्सलवाद की खान भी है।
बात यही समाप्त नहीं होती पिछले कुछ वर्षों से यमुना में बालू खनन को लेकर एक मजबूत आन्दोलन चल रहा है। बालू खनन के लिए बालू माफिया द्वारा मशीनें लगाना बालू मजदूरों को बेरोजगारी और भुखमरी की ओर धकेला जा चुका है। जबकि माननीय न्यायलयों ने अपने कई महत्वपूर्ण निर्देषों में स्पष्ट कहा है कि बालू उत्खनन के लिए मशीनों का उपयोग किसी भी सूरत में न हो।
मई 2008 में इलाहाबाद उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति जनार्दन सहाय और न्यायमूर्ति एस.पी मेहरोत्रा की एक खंडपीठ ने बालू खनन कार्य में मशीनों के चलाये जाने के अधिकार पर एक सुनवाई की जिसमें उसने स्पष्ट निर्देश दिया कि पर्यावरण की सुरक्षा और रोजगार को मद्देनजर रखते हुए बालू खनन के लिए मशीनों का इस्तेमाल न किया जाय। अपने आदेश में न्यायलय ने सरकार सेे बालू माफिया के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने के निर्देष दिए।
यमुना के इस पूरे क्षेत्र में बालू माफियाओं के खिलाफ चल रहे आंदोलन में सीपीआई एमएल न्यू डेमोक्रेसी की अहम भूमिका है। न्यू डेमोक्रेसी के इस आंदोलन को नक्सल गतिविधियों के रुप मे मीडिया द्वारा प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है। जबकि न्यू डेमोक्रेसी चुनावी लोकतंत्र में आस्था रखने वाली पार्टी है। इसकी तस्दीक इलाहाबाद से उनके प्रत्याशी हीरालाल का चुनाव लड़ना है।
स्ािानीय स्तर पर ‘लाल सलाम’ का यह हौव्वा पूरे देश में नक्सलवाद के नाम पर किए जा रहे जनांदोलनों का दमन का ही प्रतिरूप है। दमन की इस प्रक्रिया में लोकतंत्र का चैथा स्तंभ सत्ता के स्तंभ के रुप में परिवर्तित हो गया है। इलाहाबाद इसकी एक प्रयोगस्थली है।
जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) ने इलाहाबाद के समाचार माध्यमों में प्रकाषित-प्रसारित फर्जी, निराधार, तथ्यहीन जनआंदोलनों को बदनाम करने के खिलाफ प्रेस कांउसिल आॅफ इंडिया में षिकायत दर्ज कराने का निर्णय लिया है। इससे पहले आप सभी के बीच इन समाचारों की कतरनों को सिलसिलेवार ढंग से सार्वजनिक किया जाएगा। इस बात की जरुरत, इसलिए भी है क्योंकि इलाहाबाद जिला प्रशासन ने इन समाचार पत्रों की कतरनों को गृह मत्रांलय को भेज यहां चल रहे जनांदोलनों को प्रतिबंधित करने की मांग की है। इस समाचार को भी यहां की मीडिया ने गौरवान्वित स्वर में प्रकाषित किया।
ऐसी परिस्थिति में हमारा उद्देष्य इस बात का आकलन करना है कि समाचार माध्यमों में ऐसी खबरें कौन और कैसे छपवा रहा है। हम अपने इलाहाबाद के पत्रकार मित्रों से भी अपील करना चाहेंगे कि वे सस्ती लोकप्रियता (बाई लाइन) की लालच में अपनी नैतिकता को नीलाम न करें। हम उन सभी समाचार माध्यमों से भी अपेक्षा करते हैं कि हमारी रिपोर्टांे को वे गौर कर अपने में सुधार लाने की कोशिश करेंगे।
द्वारा जारी-
जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस)
राज्य कार्यालय-
631/13, शंकरपुरी कालोनी,
कमता चिनहट, लखनऊ,
उत्तर प्रदेश
साथियों,
‘लाल सलाम’! यह संबोधन पिछले दिनों इलाहाबाद की मीडिया में प्रमुखता से छाया रहा। ‘लाल सलाम’ को एक संगठन के बतौर बताया गया। हालात यहां तक हो गए की इलाहाबाद में बालू माफियाओं के खिलाफ लाल झंडा लिए लाल सलाम के संबोधन करने वाले आंदोलनकारियों की मांगों को दरकिनार कर इन्हें ‘नक्सलवादी’ कह इनके आंदोलनों का दमन किया गया।
जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) के मीडिया मानिटरिंग सेल द्वारा इस प्रक्रिया की लंबे अरसे से जांचा की जा रहा है। संगठन ने जांच के दौरान पाया की इलाहाबाद के समाचार माध्यमों द्वारा लंबे समय से इस पूरे क्षेत्र को नक्सलाइट क्षेत्र घोषित करवाने की होड़ सी मची है। नक्सलाइट क्षेत्र घोषित करवाने की इस होड़ में मीडिया के स्लीपिंग माड्यूलों और खुफिया गठजोड़ का महान संगम है।
इलाहाबाद व कौषम्बी के तराई क्षेत्र में बालू माफियाओं तथा मछुआरों व मजदूरों के बीच अवैध वसूली के खिलाफ टकराव की खबरों को स्ािानीय मीडिया नक्सलवाद के रूप में प्रचारित कर रही है। यह संघर्श पिछले काफी समय से चल रहा है जिसमें समाचार माध्यम पूरी तरह से स्ािानीय बाहुबली नेताओं के पक्ष में खड़े दिख रहे हैं। ‘लाल सलाम’ का हौव्वा खड़ा कर इस पूरे क्षेत्र को नक्सल प्रभावित क्षेत्र की सूची में लाने साजिश चल रही है, जिससे उसके नाम पर भारी पैमाने में यहां सरकारी पैकेज आए और शासन-प्रशासन उसकी बंदरबाट कर सके। इस पूरे अभियान में मीडिया बालू माफियाओं के प्रतिनिधि के रुप में कार्य कर रही है। अब अगर ‘लाल सलाम’ नाम के संगठन की बात की जाय तो इस नाम का कोई संगठन नहीं है। इस संगठन का नाम खुद बालू माफियाओं ने दिया और मीडिया ने उसे हाथों हाथ लपक कर अपनी जनविरोधी कारगुजारियों का मसाला तैयार कर दिया।
गंगा-यमुना के उपजाऊ क्षेत्र पर बसे इलाहाबाद के दक्षिणी क्षेत्र की यह भौगोलिक विडंबना है कि वहां पठार हैं जो खनन के लिए भले ही सोना उगलने वाली खानें हैं पर चाहे वह सूखा हो या बरसात, आदिवासियों के लिए कुपोषण और महामारी की खानें हैं। नक्सवाद के प्रति सरकारी नजरिया रखने वालों के लिए यह नक्सलवाद की खान भी है।
बात यही समाप्त नहीं होती पिछले कुछ वर्षों से यमुना में बालू खनन को लेकर एक मजबूत आन्दोलन चल रहा है। बालू खनन के लिए बालू माफिया द्वारा मशीनें लगाना बालू मजदूरों को बेरोजगारी और भुखमरी की ओर धकेला जा चुका है। जबकि माननीय न्यायलयों ने अपने कई महत्वपूर्ण निर्देषों में स्पष्ट कहा है कि बालू उत्खनन के लिए मशीनों का उपयोग किसी भी सूरत में न हो।
मई 2008 में इलाहाबाद उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति जनार्दन सहाय और न्यायमूर्ति एस.पी मेहरोत्रा की एक खंडपीठ ने बालू खनन कार्य में मशीनों के चलाये जाने के अधिकार पर एक सुनवाई की जिसमें उसने स्पष्ट निर्देश दिया कि पर्यावरण की सुरक्षा और रोजगार को मद्देनजर रखते हुए बालू खनन के लिए मशीनों का इस्तेमाल न किया जाय। अपने आदेश में न्यायलय ने सरकार सेे बालू माफिया के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने के निर्देष दिए।
यमुना के इस पूरे क्षेत्र में बालू माफियाओं के खिलाफ चल रहे आंदोलन में सीपीआई एमएल न्यू डेमोक्रेसी की अहम भूमिका है। न्यू डेमोक्रेसी के इस आंदोलन को नक्सल गतिविधियों के रुप मे मीडिया द्वारा प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है। जबकि न्यू डेमोक्रेसी चुनावी लोकतंत्र में आस्था रखने वाली पार्टी है। इसकी तस्दीक इलाहाबाद से उनके प्रत्याशी हीरालाल का चुनाव लड़ना है।
स्ािानीय स्तर पर ‘लाल सलाम’ का यह हौव्वा पूरे देश में नक्सलवाद के नाम पर किए जा रहे जनांदोलनों का दमन का ही प्रतिरूप है। दमन की इस प्रक्रिया में लोकतंत्र का चैथा स्तंभ सत्ता के स्तंभ के रुप में परिवर्तित हो गया है। इलाहाबाद इसकी एक प्रयोगस्थली है।
जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) ने इलाहाबाद के समाचार माध्यमों में प्रकाषित-प्रसारित फर्जी, निराधार, तथ्यहीन जनआंदोलनों को बदनाम करने के खिलाफ प्रेस कांउसिल आॅफ इंडिया में षिकायत दर्ज कराने का निर्णय लिया है। इससे पहले आप सभी के बीच इन समाचारों की कतरनों को सिलसिलेवार ढंग से सार्वजनिक किया जाएगा। इस बात की जरुरत, इसलिए भी है क्योंकि इलाहाबाद जिला प्रशासन ने इन समाचार पत्रों की कतरनों को गृह मत्रांलय को भेज यहां चल रहे जनांदोलनों को प्रतिबंधित करने की मांग की है। इस समाचार को भी यहां की मीडिया ने गौरवान्वित स्वर में प्रकाषित किया।
ऐसी परिस्थिति में हमारा उद्देष्य इस बात का आकलन करना है कि समाचार माध्यमों में ऐसी खबरें कौन और कैसे छपवा रहा है। हम अपने इलाहाबाद के पत्रकार मित्रों से भी अपील करना चाहेंगे कि वे सस्ती लोकप्रियता (बाई लाइन) की लालच में अपनी नैतिकता को नीलाम न करें। हम उन सभी समाचार माध्यमों से भी अपेक्षा करते हैं कि हमारी रिपोर्टांे को वे गौर कर अपने में सुधार लाने की कोशिश करेंगे।
द्वारा जारी-
जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस)
राज्य कार्यालय-
631/13, शंकरपुरी कालोनी,
कमता चिनहट, लखनऊ,
उत्तर प्रदेश
दिल्ली में बादाम मज़दूरों की हड़ताल
पुलिस-प्रशासन मालिकों की सेवा में जुटे
18 दिसम्बर, दिल्ली। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के करावलनगर क्षेत्र में बादाम तोड़ने के काम में लगे करीब 30 हज़ार मज़दूर परिवार तीन दिनों से हड़ताल पर हैं. पीस रेट को 50 रुपये से बढ़ाकर 80 रुपये करने, डबल रेट से ओवरटाइम देने, जाॅब कार्ड व पहचान पत्र देने, आदि की माँगों को लेकर हड़ताल कर रहे कई मजदुर नेताओं को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है.
बेहद आदिम परिस्थितियों में गुलामों की तरह खटने वाले ये मज़दूर जिन कम्पनियों के बादाम का संसाधन करते हैं, वे कम्पनियाँ भारत की नहीं बल्कि अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया और कनाडा की हैं। ये भारत के सस्ते श्रम के दोहन के लिए अपने ड्राई फ्रूट्स की प्रोसेसिंग यहाँ करवाते हैं। दिल्ली की खारी बावली पूरे एशिया की सबसे बड़ी ड्राई फ्रूट मण्डी है। खारी बावली के बड़े मालिक सीधे विदेशों से बादाम मँगवाते हैं और उन्हें संसाधित करके वापस भेज देते हैं। ये मालिक संसाधन का काम छुटभैये ठेकेदारों से करवाते हैं जिन्होंने दिल्ली के करावलनगर, सोनिया विहार, बुराड़ी-संतनगर और नरेला में अपने गोदाम खोल रखे हैं। इन गोदामों कोई भी सरकारी मान्यता या लाईसेंस नहीं प्राप्त है और ये पूरी तरह से गैर-कानूनी तरह से काम कर रहे हैं। एक-एक गोदाम में 20 से लेकर 40 तक मज़दूर काम करते हैं। इनके काम के घंटे अधिक मांग के सीज़न में कई बार 16 घण्टे तक होते हैं। इन्हें बादाम की एक बोरी तोड़ने पर मात्र 50 रुपये दिये जाते हैं। इनमें महिला मज़दूर बहुसंख्या में हैं। उनके साथ मारपीट, गाली-गलौज और उनका उत्पीड़न आम घटनाएँ हैं।
इन मज़दूरों ने पिछले तीन दिनों से अपनी यूनियन ‘बादाम मज़दूर यूनियन’ के नेतृत्व में पीस रेट को 50 रुपये से बढ़ाकर 80 रुपये करने, डबल रेट से ओवरटाइम देने, जाॅब कार्ड व पहचान पत्र देने, आदि की माँगों को लेकर हड़ताल कर रखी है। इस हड़ताल के दूसरे दिन मालिकों ने अपने गुण्डों के जरिये महिला मज़दूरों, उनके बच्चों और तीन यूनियन कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमला किया। इस हमले में दो यूनियन कार्यकर्ता गम्भीर रूप से जख्मी हो गये, जबकि कई महिला मज़दूरों और उनके बच्चों को चोटें आईं। इस दौरान मालिक और उनके गुण्डे दलित मज़दूरों को लगातार जातिसूचक टिप्पणियों से अपमानित करते रहे और ख़ास तौर पर दलित मज़दूरों और यूनियन कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया। बचाव के लिए महिला मज़दूरों ने गुण्डों पर पथराव शुरू किया जिसमें मालिकों के चार गुर्गे घायल हुए। इसके बाद पुलिस आई और उसने घायल गुण्डों को तो मालिकों की शह पर तुरन्त अपनी गाड़ी में अस्पताल पहुँचाया और उनकी प्राथमिक चिकित्सा करवाई, लेकिन यूनियन के घायल नेताओं और मज़दूरों को बिना किसी चिकित्सीय देखभाल के सीधे गिरतार करके थाने ले गई। 12 बजे से साढ़े चार बजे तक पुलिस उनका बयान दर्ज़ करने का बहाना कर देर करती रही। इस बीच कई मज़दूरों और यूनियन कार्यकर्ताओं का खून बहता रहा और उन्हें बीच में अन्य यूनियन कार्यकर्ताओं ने बाहर से लाकर दवाइयां और खाने का सामान दिया। इस अमानवीय व्यवहार के बाद पुलिस उन्हें लेकर थाने से निकली और उसने मज़दूरों को बताया कि दोनों पक्षों के लोगों के खि़लाफ़ प्राथमिकी दर्ज़ कर ली गई है और अब घायल मज़दूरों और यूनियन कार्यकर्ताओं को मेडिकल चेक अप के लिए गुरू तेग बहादुर अस्पताल ले जाया जा रहा है जिसके बाद उन्हें कोर्ट में पेश किया जाएगा। लेकिन पुलिस उन्हें बिना किसी चिकित्सा के सीधे गोकलपुरी थाने लेकर गई और वहाँ उन्हें बन्द कर दिया गया। आज उनकी सीलमपुर जिला मजिस्ट्रेट के सामने पेशी हुई लेकिन तकनीकी कारणों से उनकी ज़मानत नहीं हो पाई और उन्हें जेल भेज दिया गया। इस बीच मज़दूरों ने अपनी हड़ताल को और मज़बूत बनाते हुए चेतावनी जुलूस निकाला और संघर्ष को जारी रखने की शपथ खाई। इस समय करावलनगर का पूरा बादाम प्रसंस्करण उद्योग मज़दूरों की हड़ताल के कारण ठप्प पड़ा है। 18 दिसम्बर की शाम तक करावलनगर में हज़ारों मज़दूर हड़ताल स्थल के इर्द-गिर्द एकजुट हैं। बादाम मज़दूर यूनियन के नवीन ने कहा कि हमारे साथियों की गिरतारी ने हमारे संघर्ष को और मज़बूत कर दिया है। अब इस संघर्ष को किसी भी सूरत में जीत तक पहुँचाना सभी मज़दूरों का पहला कर्तव्य है।
जब यूनियन के कार्यकर्ता और ‘बिगुल’ अखबार के पत्रकारों ने पुलिस प्रशासन से इस बात पर सफाई माँगी कि गुण्डों और मालिकों के खि़लाफ़ कोई प्राथमिकी क्यों नहीं दर्ज़ की गई और पुलिस ने पूरी तरह मालिकों की शह पर यूनियन और उसके मज़दूरों के खि़लाफ़ क्यों कार्रवाई की तो पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों तक का कहना यह था कि यूनियन वालों को सबक सिखाना ज़रूरी है और हड़ताली मज़दूरों के होश ठिकाने ला दिये जाएँगे। साफ़ है कि पुलिस पूरी तरह मालिकों की शह पर काम कर रही है और मज़दूर आन्दोलन को दबाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है। इस बीच करावलनगर के कांग्रेस, आरएसएस और भाजपा आदि के नेता पूरी तरह मालिकों के पक्ष में जाकर खड़े हो गये हैं। ग़ौरतलब है कि कई बादाम गोदाम मालिक स्वयं इन पार्टियों के स्थानीय नेता हैं।
यह पहली बार नहीं है जब पुलिस ने मालिकों के पक्ष से कार्रवाई की हो। एक वर्ष पहले, 2008 के अगस्त में भी मज़दूरों ने अपनी कानूनी माँगों को लेकर एक आन्दोलन किया था। उस दौरान भी मालिकों ने मज़दूरों पर हमला किया था और बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजक और प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता आशीष कुमार को मनमाने तरीके से गिरतार कर लिया था। लेकिन उस समय कोई केस दर्ज़ होने के पहले ही मज़दूरों ने हज़ारों की संख्या में थाने का घेराव कर उन्हें छुड़ा लिया था। लेकिन इस बार पुलिस ने झूठ बोलकर मज़दूरों को गुमराह किया और बताया कि दोनों पक्षों की ओर से प्राथमिकी दर्ज़ कर ली है और मज़दूरों को धोखा देकर उन्हें बिना किसी सुनवाई के करावलनगर से दूर गोकलपुरी के थाने में लाॅक अप में बन्द कर दिया। कई मज़दूरों का कहना था कि थाने के अन्दर मालिकों ने पुलिस से लाखों रुपये का लेन-देन किया है। जाहिर है कि मालिकों की सेवा करने की फीस पुलिस प्रशासन ने वसूली ही होगी! यूनियन के शीर्ष नेतृत्व को एक दिन तक लाॅक अप में बन्द कर हड़ताल को तोड़ने की उम्मीद में मालिकों ने पुलिस प्रशासन के साथ मिलकर यह साज़िश की है। लेकिन उनकी उम्मीद के पलट मज़दूरों की हड़ताल और मज़बूत हो गई है और मज़दूरों के बीच से ही नये नेतृत्व ने गिरतार मज़दूर नेताओं की गिरतारी तक आन्दोलन की कमान संभाल ली है। हज़ारों मज़दूर इस समय करावलनगर की सड़कों पर हैं।
ग़ौरतलब है कि ये मज़दूर पिछले एक वर्ष से अपने कानूनी हक़ों को पूरा करवाने की माँग कर रहे हैं। इनमें न्यूनतम मज़दूरी कानून, ट्रेड यूनियन अधिनियम, ठेका मज़दूर कानून आदि जैसे कानूनों के तहत मज़दूरों को प्रदत्त अधिकारों की माँगें शामिल हैं। इसके लिए बादाम मज़दूर यूनियन के सदस्य पिछले एक वर्ष में कई बार उत्तर-पूर्वी दिल्ली के उप श्रमायुक्त कार्यालय के भी दर्ज़नों बार चक्कर लगा चुके हैं। लेकिन वहाँ जाकर भी हर बार यही पता चला कि मालिकों के हाथ पूरा प्रशासन बिका हुआ है और लेन-देन का एक व्यापक नेटवर्क काम कर रहा है जो मज़दूरों को गुलामों की तरह खटाते रहने और सभी कानूनों का अन्धेरगर्दी के साथ उल्लंघन करने पर आमादा रहता है।
इस आन्दोलन की ख़ास बात यह है कि इन हज़ारों मज़दूरों में महिला मज़दूरों की बहुसंख्या है और वे पूरी प्रतिबद्धता के साथ इस संघर्ष में डटी हुई हैं। मज़दूर इस बात पर अडिग हैं कि चाहे पूरा पुलिस प्रशासन मालिकों के हाथ बिका रहे, वे झुकेंगे नहीं और इस संघर्ष को जारी रखेंगे।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) की अपील
हम सभी मीडियाकर्मियों से अपील करते हैं कि वे स्वयं इस पूरे मामले की जाँच करें और इस तथ्यपत्रक में दिये गये तथ्यों की पड़ताल करें और मज़दूरों के इस संघर्ष को सारे समाज के सामने लाएँ। साथ ही, किस प्रकार पूरा पुलिस प्रशासन आज मज़दूरों के विरुद्ध पूँजीपतियों के साथ खड़ा होता है यह भी पूरे देश के सामने लाने की आज सख़्त ज़रूरत है। हम मीडियाकर्मियों से अपील करते हैं कि वे मज़दूरों के इस न्यायपूर्ण संघर्ष के साथ अपनी पक्षधरता जाहिर करें और उचित जांच-पड़ताल के बाद इस पूरे मामले को अपने पत्र में या चैनल में स्थान दें।
18 दिसम्बर, दिल्ली। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के करावलनगर क्षेत्र में बादाम तोड़ने के काम में लगे करीब 30 हज़ार मज़दूर परिवार तीन दिनों से हड़ताल पर हैं. पीस रेट को 50 रुपये से बढ़ाकर 80 रुपये करने, डबल रेट से ओवरटाइम देने, जाॅब कार्ड व पहचान पत्र देने, आदि की माँगों को लेकर हड़ताल कर रहे कई मजदुर नेताओं को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है.
बेहद आदिम परिस्थितियों में गुलामों की तरह खटने वाले ये मज़दूर जिन कम्पनियों के बादाम का संसाधन करते हैं, वे कम्पनियाँ भारत की नहीं बल्कि अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया और कनाडा की हैं। ये भारत के सस्ते श्रम के दोहन के लिए अपने ड्राई फ्रूट्स की प्रोसेसिंग यहाँ करवाते हैं। दिल्ली की खारी बावली पूरे एशिया की सबसे बड़ी ड्राई फ्रूट मण्डी है। खारी बावली के बड़े मालिक सीधे विदेशों से बादाम मँगवाते हैं और उन्हें संसाधित करके वापस भेज देते हैं। ये मालिक संसाधन का काम छुटभैये ठेकेदारों से करवाते हैं जिन्होंने दिल्ली के करावलनगर, सोनिया विहार, बुराड़ी-संतनगर और नरेला में अपने गोदाम खोल रखे हैं। इन गोदामों कोई भी सरकारी मान्यता या लाईसेंस नहीं प्राप्त है और ये पूरी तरह से गैर-कानूनी तरह से काम कर रहे हैं। एक-एक गोदाम में 20 से लेकर 40 तक मज़दूर काम करते हैं। इनके काम के घंटे अधिक मांग के सीज़न में कई बार 16 घण्टे तक होते हैं। इन्हें बादाम की एक बोरी तोड़ने पर मात्र 50 रुपये दिये जाते हैं। इनमें महिला मज़दूर बहुसंख्या में हैं। उनके साथ मारपीट, गाली-गलौज और उनका उत्पीड़न आम घटनाएँ हैं।
इन मज़दूरों ने पिछले तीन दिनों से अपनी यूनियन ‘बादाम मज़दूर यूनियन’ के नेतृत्व में पीस रेट को 50 रुपये से बढ़ाकर 80 रुपये करने, डबल रेट से ओवरटाइम देने, जाॅब कार्ड व पहचान पत्र देने, आदि की माँगों को लेकर हड़ताल कर रखी है। इस हड़ताल के दूसरे दिन मालिकों ने अपने गुण्डों के जरिये महिला मज़दूरों, उनके बच्चों और तीन यूनियन कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमला किया। इस हमले में दो यूनियन कार्यकर्ता गम्भीर रूप से जख्मी हो गये, जबकि कई महिला मज़दूरों और उनके बच्चों को चोटें आईं। इस दौरान मालिक और उनके गुण्डे दलित मज़दूरों को लगातार जातिसूचक टिप्पणियों से अपमानित करते रहे और ख़ास तौर पर दलित मज़दूरों और यूनियन कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया। बचाव के लिए महिला मज़दूरों ने गुण्डों पर पथराव शुरू किया जिसमें मालिकों के चार गुर्गे घायल हुए। इसके बाद पुलिस आई और उसने घायल गुण्डों को तो मालिकों की शह पर तुरन्त अपनी गाड़ी में अस्पताल पहुँचाया और उनकी प्राथमिक चिकित्सा करवाई, लेकिन यूनियन के घायल नेताओं और मज़दूरों को बिना किसी चिकित्सीय देखभाल के सीधे गिरतार करके थाने ले गई। 12 बजे से साढ़े चार बजे तक पुलिस उनका बयान दर्ज़ करने का बहाना कर देर करती रही। इस बीच कई मज़दूरों और यूनियन कार्यकर्ताओं का खून बहता रहा और उन्हें बीच में अन्य यूनियन कार्यकर्ताओं ने बाहर से लाकर दवाइयां और खाने का सामान दिया। इस अमानवीय व्यवहार के बाद पुलिस उन्हें लेकर थाने से निकली और उसने मज़दूरों को बताया कि दोनों पक्षों के लोगों के खि़लाफ़ प्राथमिकी दर्ज़ कर ली गई है और अब घायल मज़दूरों और यूनियन कार्यकर्ताओं को मेडिकल चेक अप के लिए गुरू तेग बहादुर अस्पताल ले जाया जा रहा है जिसके बाद उन्हें कोर्ट में पेश किया जाएगा। लेकिन पुलिस उन्हें बिना किसी चिकित्सा के सीधे गोकलपुरी थाने लेकर गई और वहाँ उन्हें बन्द कर दिया गया। आज उनकी सीलमपुर जिला मजिस्ट्रेट के सामने पेशी हुई लेकिन तकनीकी कारणों से उनकी ज़मानत नहीं हो पाई और उन्हें जेल भेज दिया गया। इस बीच मज़दूरों ने अपनी हड़ताल को और मज़बूत बनाते हुए चेतावनी जुलूस निकाला और संघर्ष को जारी रखने की शपथ खाई। इस समय करावलनगर का पूरा बादाम प्रसंस्करण उद्योग मज़दूरों की हड़ताल के कारण ठप्प पड़ा है। 18 दिसम्बर की शाम तक करावलनगर में हज़ारों मज़दूर हड़ताल स्थल के इर्द-गिर्द एकजुट हैं। बादाम मज़दूर यूनियन के नवीन ने कहा कि हमारे साथियों की गिरतारी ने हमारे संघर्ष को और मज़बूत कर दिया है। अब इस संघर्ष को किसी भी सूरत में जीत तक पहुँचाना सभी मज़दूरों का पहला कर्तव्य है।
जब यूनियन के कार्यकर्ता और ‘बिगुल’ अखबार के पत्रकारों ने पुलिस प्रशासन से इस बात पर सफाई माँगी कि गुण्डों और मालिकों के खि़लाफ़ कोई प्राथमिकी क्यों नहीं दर्ज़ की गई और पुलिस ने पूरी तरह मालिकों की शह पर यूनियन और उसके मज़दूरों के खि़लाफ़ क्यों कार्रवाई की तो पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों तक का कहना यह था कि यूनियन वालों को सबक सिखाना ज़रूरी है और हड़ताली मज़दूरों के होश ठिकाने ला दिये जाएँगे। साफ़ है कि पुलिस पूरी तरह मालिकों की शह पर काम कर रही है और मज़दूर आन्दोलन को दबाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है। इस बीच करावलनगर के कांग्रेस, आरएसएस और भाजपा आदि के नेता पूरी तरह मालिकों के पक्ष में जाकर खड़े हो गये हैं। ग़ौरतलब है कि कई बादाम गोदाम मालिक स्वयं इन पार्टियों के स्थानीय नेता हैं।
यह पहली बार नहीं है जब पुलिस ने मालिकों के पक्ष से कार्रवाई की हो। एक वर्ष पहले, 2008 के अगस्त में भी मज़दूरों ने अपनी कानूनी माँगों को लेकर एक आन्दोलन किया था। उस दौरान भी मालिकों ने मज़दूरों पर हमला किया था और बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजक और प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता आशीष कुमार को मनमाने तरीके से गिरतार कर लिया था। लेकिन उस समय कोई केस दर्ज़ होने के पहले ही मज़दूरों ने हज़ारों की संख्या में थाने का घेराव कर उन्हें छुड़ा लिया था। लेकिन इस बार पुलिस ने झूठ बोलकर मज़दूरों को गुमराह किया और बताया कि दोनों पक्षों की ओर से प्राथमिकी दर्ज़ कर ली है और मज़दूरों को धोखा देकर उन्हें बिना किसी सुनवाई के करावलनगर से दूर गोकलपुरी के थाने में लाॅक अप में बन्द कर दिया। कई मज़दूरों का कहना था कि थाने के अन्दर मालिकों ने पुलिस से लाखों रुपये का लेन-देन किया है। जाहिर है कि मालिकों की सेवा करने की फीस पुलिस प्रशासन ने वसूली ही होगी! यूनियन के शीर्ष नेतृत्व को एक दिन तक लाॅक अप में बन्द कर हड़ताल को तोड़ने की उम्मीद में मालिकों ने पुलिस प्रशासन के साथ मिलकर यह साज़िश की है। लेकिन उनकी उम्मीद के पलट मज़दूरों की हड़ताल और मज़बूत हो गई है और मज़दूरों के बीच से ही नये नेतृत्व ने गिरतार मज़दूर नेताओं की गिरतारी तक आन्दोलन की कमान संभाल ली है। हज़ारों मज़दूर इस समय करावलनगर की सड़कों पर हैं।
ग़ौरतलब है कि ये मज़दूर पिछले एक वर्ष से अपने कानूनी हक़ों को पूरा करवाने की माँग कर रहे हैं। इनमें न्यूनतम मज़दूरी कानून, ट्रेड यूनियन अधिनियम, ठेका मज़दूर कानून आदि जैसे कानूनों के तहत मज़दूरों को प्रदत्त अधिकारों की माँगें शामिल हैं। इसके लिए बादाम मज़दूर यूनियन के सदस्य पिछले एक वर्ष में कई बार उत्तर-पूर्वी दिल्ली के उप श्रमायुक्त कार्यालय के भी दर्ज़नों बार चक्कर लगा चुके हैं। लेकिन वहाँ जाकर भी हर बार यही पता चला कि मालिकों के हाथ पूरा प्रशासन बिका हुआ है और लेन-देन का एक व्यापक नेटवर्क काम कर रहा है जो मज़दूरों को गुलामों की तरह खटाते रहने और सभी कानूनों का अन्धेरगर्दी के साथ उल्लंघन करने पर आमादा रहता है।
इस आन्दोलन की ख़ास बात यह है कि इन हज़ारों मज़दूरों में महिला मज़दूरों की बहुसंख्या है और वे पूरी प्रतिबद्धता के साथ इस संघर्ष में डटी हुई हैं। मज़दूर इस बात पर अडिग हैं कि चाहे पूरा पुलिस प्रशासन मालिकों के हाथ बिका रहे, वे झुकेंगे नहीं और इस संघर्ष को जारी रखेंगे।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) की अपील
हम सभी मीडियाकर्मियों से अपील करते हैं कि वे स्वयं इस पूरे मामले की जाँच करें और इस तथ्यपत्रक में दिये गये तथ्यों की पड़ताल करें और मज़दूरों के इस संघर्ष को सारे समाज के सामने लाएँ। साथ ही, किस प्रकार पूरा पुलिस प्रशासन आज मज़दूरों के विरुद्ध पूँजीपतियों के साथ खड़ा होता है यह भी पूरे देश के सामने लाने की आज सख़्त ज़रूरत है। हम मीडियाकर्मियों से अपील करते हैं कि वे मज़दूरों के इस न्यायपूर्ण संघर्ष के साथ अपनी पक्षधरता जाहिर करें और उचित जांच-पड़ताल के बाद इस पूरे मामले को अपने पत्र में या चैनल में स्थान दें।
बादाम मज़दूरों के नेता रिहा
- बादाम मज़दूरों की हड़ताल चौथे दिन भी जारी,
- दिल्ली का बादाम संसाधन उद्योग जाम
19 दिसम्बर, दिल्ली। करावलनगर के बादाम मज़दूर यूनियन के गिरफ्तार नेताओं आशीष कुमार सिंह, कुणाल जैन और प्रेमप्रकाश यादव शनिवार को जमानत पर रिहा हो गए. 17 दिसम्बर की सुबह बादाम के गोदाम मालिकों और उनके गुण्डों ने महिला मज़दूरों पर और यूनियन के सदस्यों पर लाठियों-डण्डों से जानलेवा हमला किया और इसमें कई महिला मज़दूर और यूनियन कार्यकर्ता गम्भीर रूप से घायल हो गये। आत्मरक्षा में मज़दूरों ने गुण्डों पर पथराव शुरू किया जिसमें मालिकों के करीब 4 लठैत घायल हो गये। इसके बाद पुलिस ने दोनों पक्षों के कुछ लोगों को हिरासत में लेकर उनका बयान लिया। लेकिन मालिकों और उनके गुण्डों पर पुलिस ने कोई भी कार्रवाई नहीं की जबकि यूनियन के कार्यकर्ताओं पर धारा 107 व धारा 151 के तहत मामला दर्ज़ कर लिया।
17 दिसम्बर को पुलिस ने बिना कोई चिकित्सीय सहायता प्रदान किये मज़दूर नेताओं को घायल हालत में ही गोकलपुरी थाने में लाॅक-अप में बन्द कर दिया। ज्ञात हो, कि यह मामला करावलनगर थाने के अन्तर्गत आता है लेकिन मज़दूरों से भयाक्रान्त पुलिस प्रशासन ने इन मज़दूर नेताओं को करावलनगर या खजूरी थाने में नहीं बन्द किया। जाहिर है कि पुलिस पूरी तरह मालिकों की ओर से कार्रवाई कर रही है। मालिकों को किराए के गुण्डे रखने की कोई ज़रूरत नहीं थी।
इस बीच करावलनगर इलाके में चौथे दिन भी हज़ारों की संख्या में मज़दूर हड़ताल स्थल पर मौजूद रहे। हड़ताल के जारी रहने से करावलनगर का पूरा बादाम संसाधन उद्योग ठप्प पड़ गया है। बादाम मज़दूर यूनियन के नवीन ने कहा कि करावलनगर पुलिस थाने के पक्षपातपूर्ण व्यवहार और मज़दूरों की ओर से प्राथमिकी दर्ज़ न कराए जाने के कारण यूनियन सीधे पुलिस उपायुक्त, उत्तर-पूर्वी दिल्ली के पास शिकायत दर्ज़ कराएगी और अगर तब भी कार्रवाई नहीं होती है तो फिर हमारे पास अदालत जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा। ग़ौरतलब है कि बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में पिछले एक वर्ष से बादाम मज़दूर अपने कानूनी हक़ों की माँग कर रहे हैं और साथ ही बादाम संसाधन उद्योग को सरकार द्वारा औपचारिक दर्ज़ा दिये जाने की माँग कर रहे हैं। फिलहाल, सभी बादाम गोदाम मालिक गैर-कानूनी ढंग से बिना किसी सरकारी लाईसेंस या मान्यता के ठेके पर मज़दूरों से अपने गोदामों में काम करवा रहे हैं। इसमें बड़े पैमाने पर महिला मज़दूर हैं लेकिन उनके लिए शौचालय या शिशु घर जैसी कोई सुविधा नहीं है। बादाम मज़दूरों को तेज़ाब में डाल कर सुखाए गए बादामों को हाथों, पैरों और दांतों से तोड़ना पड़ता है। उनके लिए सुरक्षा के कोई इंतज़ाम नहीं हैं और उन्हें टी.बी., खांसी, आदि जैसे रोग आम तौर पर होते रहते हैं। महिला मज़दूरों के बच्चे भी काफ़ी कम उम्र में ही जानलेवा बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। बादाम मज़दूर यूनियन इन मज़दूरों के लिए बेहतर कार्य स्थितियों की भी माँग कर रही है। लेकिन मालिक और ठेकेदार पुलिस प्रशासन और स्थानीय नेताओं और गुण्डों के बल पर अपनी मनमानी और गुण्डागर्दी चला रहे है। बादाम मज़दूर यूनियन के योगेश ने कहा कि लेकिन अब वे दिन लद गये हैं जब मज़दूर गुलामों की तरह चुपचाप खटते रहते थे और कोई आवाज़ नहीं उठाते थे। वे एक यूनियन के रूप में संगठित हो चुके हैं और अपने कानूनी हक़ों को जीतने से नीचे वे किसी जीत पर नहीं रुकेंगे।
बादाम मज़दूर यूनियन के आज रिहा हुए संयोजक आशीष कुमार सिंह ने कहा कि बादाम के ठेकेदार बुरी तरह से डर गये हैं। पुलिस को अपने साथ मिलाकर और गुण्डों के बल पर निहत्थे मज़दूरों पर कायराना हमला कराकर उन्होंने साबित कर दिया है कि वे झुण्ड में निहत्थे महिलाओं और बच्चों पर ही अपने पौरुष का प्रदर्शन कर सकते हैं। लेकिन महिला मज़दूरों ने उनके हमले का मुँहतोड़ जवाब देकर साबित कर दिया है कि वे ऐसे किसी भी नापाक हमले का जवाब उसी भाषा में दे सकते हैं। अब वे दिन गये जब मज़दूर चुपचाप मालिकों की मार और गाली-गलौच को बर्दाश्त करते थे। मज़दूर अपनी एकता के बल पर बिकी हुई पुलिस और मालिकों के गुण्डों, दोनों से टकराने की ताक़त रखते हैं। इस कायराना हमले ने मज़दूरों के हौसले को तोड़ने की बजाय उन्हें और बुलन्द कर दिया है। यह अकारण नहीं है कि करीब 15 फीसदी मज़दूर जो भय के कारण हड़ताल में शामिल नहीं थे, मज़दूर नेताओं की गिरतारी के बाद वे भी हड़ताल में शामिल हो चुके हैं और उन्होंने मालिकों की मुनाफे की मशीनरी का चक्का पूरी तरह जाम कर दिया है।
मीडिया ने किया 'ब्लैक आउट'
करावलनगर इलाके में बादाम मजदूरों की हड़ताल सम्बन्धी ख़बरों को दिल्ली की मीडिया ने ब्लैक आउट कर दिया है. आन्दोलन की खबरों को स्थानीय अख़बारों और न्यूज चैनलों में कोई तरजीह नहीं मिल रही, जबकि इस उद्योग से हजारों मजदूरों की रोजी-रोटी जुडी है. मीडिया संस्थान बहुराष्ट्रीय बादाम कंपनियों के दबाव में मजदूरों की खबरों को लगातार नजरंदाज कर रही हैं.
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) ने मुख्य धारा की मीडिया के इस मजदूर विरोधी रुख के बरखिलाफ इस पूरे मामले की जाँच करने का निर्णय लिया है. जेयूसीएस के साथी जल्द ही इस मामले की जाँच कर अपनी रिपोर्ट पेश करेंगे.
- दिल्ली का बादाम संसाधन उद्योग जाम
19 दिसम्बर, दिल्ली। करावलनगर के बादाम मज़दूर यूनियन के गिरफ्तार नेताओं आशीष कुमार सिंह, कुणाल जैन और प्रेमप्रकाश यादव शनिवार को जमानत पर रिहा हो गए. 17 दिसम्बर की सुबह बादाम के गोदाम मालिकों और उनके गुण्डों ने महिला मज़दूरों पर और यूनियन के सदस्यों पर लाठियों-डण्डों से जानलेवा हमला किया और इसमें कई महिला मज़दूर और यूनियन कार्यकर्ता गम्भीर रूप से घायल हो गये। आत्मरक्षा में मज़दूरों ने गुण्डों पर पथराव शुरू किया जिसमें मालिकों के करीब 4 लठैत घायल हो गये। इसके बाद पुलिस ने दोनों पक्षों के कुछ लोगों को हिरासत में लेकर उनका बयान लिया। लेकिन मालिकों और उनके गुण्डों पर पुलिस ने कोई भी कार्रवाई नहीं की जबकि यूनियन के कार्यकर्ताओं पर धारा 107 व धारा 151 के तहत मामला दर्ज़ कर लिया।
17 दिसम्बर को पुलिस ने बिना कोई चिकित्सीय सहायता प्रदान किये मज़दूर नेताओं को घायल हालत में ही गोकलपुरी थाने में लाॅक-अप में बन्द कर दिया। ज्ञात हो, कि यह मामला करावलनगर थाने के अन्तर्गत आता है लेकिन मज़दूरों से भयाक्रान्त पुलिस प्रशासन ने इन मज़दूर नेताओं को करावलनगर या खजूरी थाने में नहीं बन्द किया। जाहिर है कि पुलिस पूरी तरह मालिकों की ओर से कार्रवाई कर रही है। मालिकों को किराए के गुण्डे रखने की कोई ज़रूरत नहीं थी।
इस बीच करावलनगर इलाके में चौथे दिन भी हज़ारों की संख्या में मज़दूर हड़ताल स्थल पर मौजूद रहे। हड़ताल के जारी रहने से करावलनगर का पूरा बादाम संसाधन उद्योग ठप्प पड़ गया है। बादाम मज़दूर यूनियन के नवीन ने कहा कि करावलनगर पुलिस थाने के पक्षपातपूर्ण व्यवहार और मज़दूरों की ओर से प्राथमिकी दर्ज़ न कराए जाने के कारण यूनियन सीधे पुलिस उपायुक्त, उत्तर-पूर्वी दिल्ली के पास शिकायत दर्ज़ कराएगी और अगर तब भी कार्रवाई नहीं होती है तो फिर हमारे पास अदालत जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा। ग़ौरतलब है कि बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में पिछले एक वर्ष से बादाम मज़दूर अपने कानूनी हक़ों की माँग कर रहे हैं और साथ ही बादाम संसाधन उद्योग को सरकार द्वारा औपचारिक दर्ज़ा दिये जाने की माँग कर रहे हैं। फिलहाल, सभी बादाम गोदाम मालिक गैर-कानूनी ढंग से बिना किसी सरकारी लाईसेंस या मान्यता के ठेके पर मज़दूरों से अपने गोदामों में काम करवा रहे हैं। इसमें बड़े पैमाने पर महिला मज़दूर हैं लेकिन उनके लिए शौचालय या शिशु घर जैसी कोई सुविधा नहीं है। बादाम मज़दूरों को तेज़ाब में डाल कर सुखाए गए बादामों को हाथों, पैरों और दांतों से तोड़ना पड़ता है। उनके लिए सुरक्षा के कोई इंतज़ाम नहीं हैं और उन्हें टी.बी., खांसी, आदि जैसे रोग आम तौर पर होते रहते हैं। महिला मज़दूरों के बच्चे भी काफ़ी कम उम्र में ही जानलेवा बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। बादाम मज़दूर यूनियन इन मज़दूरों के लिए बेहतर कार्य स्थितियों की भी माँग कर रही है। लेकिन मालिक और ठेकेदार पुलिस प्रशासन और स्थानीय नेताओं और गुण्डों के बल पर अपनी मनमानी और गुण्डागर्दी चला रहे है। बादाम मज़दूर यूनियन के योगेश ने कहा कि लेकिन अब वे दिन लद गये हैं जब मज़दूर गुलामों की तरह चुपचाप खटते रहते थे और कोई आवाज़ नहीं उठाते थे। वे एक यूनियन के रूप में संगठित हो चुके हैं और अपने कानूनी हक़ों को जीतने से नीचे वे किसी जीत पर नहीं रुकेंगे।
बादाम मज़दूर यूनियन के आज रिहा हुए संयोजक आशीष कुमार सिंह ने कहा कि बादाम के ठेकेदार बुरी तरह से डर गये हैं। पुलिस को अपने साथ मिलाकर और गुण्डों के बल पर निहत्थे मज़दूरों पर कायराना हमला कराकर उन्होंने साबित कर दिया है कि वे झुण्ड में निहत्थे महिलाओं और बच्चों पर ही अपने पौरुष का प्रदर्शन कर सकते हैं। लेकिन महिला मज़दूरों ने उनके हमले का मुँहतोड़ जवाब देकर साबित कर दिया है कि वे ऐसे किसी भी नापाक हमले का जवाब उसी भाषा में दे सकते हैं। अब वे दिन गये जब मज़दूर चुपचाप मालिकों की मार और गाली-गलौच को बर्दाश्त करते थे। मज़दूर अपनी एकता के बल पर बिकी हुई पुलिस और मालिकों के गुण्डों, दोनों से टकराने की ताक़त रखते हैं। इस कायराना हमले ने मज़दूरों के हौसले को तोड़ने की बजाय उन्हें और बुलन्द कर दिया है। यह अकारण नहीं है कि करीब 15 फीसदी मज़दूर जो भय के कारण हड़ताल में शामिल नहीं थे, मज़दूर नेताओं की गिरतारी के बाद वे भी हड़ताल में शामिल हो चुके हैं और उन्होंने मालिकों की मुनाफे की मशीनरी का चक्का पूरी तरह जाम कर दिया है।
मीडिया ने किया 'ब्लैक आउट'
करावलनगर इलाके में बादाम मजदूरों की हड़ताल सम्बन्धी ख़बरों को दिल्ली की मीडिया ने ब्लैक आउट कर दिया है. आन्दोलन की खबरों को स्थानीय अख़बारों और न्यूज चैनलों में कोई तरजीह नहीं मिल रही, जबकि इस उद्योग से हजारों मजदूरों की रोजी-रोटी जुडी है. मीडिया संस्थान बहुराष्ट्रीय बादाम कंपनियों के दबाव में मजदूरों की खबरों को लगातार नजरंदाज कर रही हैं.
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) ने मुख्य धारा की मीडिया के इस मजदूर विरोधी रुख के बरखिलाफ इस पूरे मामले की जाँच करने का निर्णय लिया है. जेयूसीएस के साथी जल्द ही इस मामले की जाँच कर अपनी रिपोर्ट पेश करेंगे.
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