भारतीय सेना विशेषाधिकार अधिनियम जो जम्मू कश्मीर के अलावा ,असम ,मणिपुर ,अरुणांचल प्रदेश ,मेघालय ,मिजोरम और त्रिपुरा में लागू है ने पिछले हफ्ते अपना एक और साल पूरा कर लिया ,यह कानून कांग्रेस और ख़ास तौर से नेहरु परिवार की देन है और इसमें और आपातकाल में कोई ख़ास अंतर नहीं है ,ख़ास तौर से इसका रूप और भी वीभत्स इसलिए है कि इसमें सीधे तौर पर न सिर्फ एक क्षेत्र और राज्य को अशांत घोषित कर उसे सेना को सौंप दिया जाता है बल्कि आम आदमी पर भी शासन करने का अधिकार सेना को दे दिया जाता है और निश्चित तौर पर आदिकाल से ये होता आया है कि जब कभी सेना बर्बर होती है तो उसका पहला शिकार महिलायें और फिर युवा होते हैं ,मणिपुर में भी यही हो रहा है कश्मीर में भी यही हो रहा है |दुखद ये है कि आहत होने के बावजूद यहाँ की महिलायें उफ़फ् तक नहीं कर सकती|गाँधी ,चेव ग्वेरा को अपना आदर्श मानने वाली इरोम जब ये कहती है कि क्या एक सभ्य समाज में इस कानून को स्वीकार किया जाना चाहिए ?तो उसका ये सवाल सिर्फ सरकार से नहीं होता ,देश की उस जनता से भी होता है जो खामोश ,रहने सहने और खुद से बाबस्ता जिंदगी जीने की आदि हो चुकी है |
बहुत ही अजीबो गरीब है कि अरुंधती के मामले में ताल ठोक कर हो हल्ला मचाने वाले तमाम वामपंथी शर्मीला के मामले में वैसी अधीरता नहीं दिखाते |अरुंधती खुद कश्मीर से लेकर छत्तीसगढ़ तक मानवाधिकारों की हत्या को लेकर हो हल्ला मचाती हैं लेकिन उनके एजेंडे से उत्तर-पूर्व गायब रहता है |साफ़ प्रतीत होता है कि शर्मीला के मामले को लेकर ये अजीबो गरीब चुप्पी किसी साजिश का हिस्सा है इस साजिश में कुछ हो चाहे न हो ,नेतृत्व के संकट से जुड़ा डर तो साफ़ नजर आता है ,अरुंधती और उन जैसे तमाम लोग जानते हैं ये स्वाभिमानी बहने अपना नेतृत्व किसी को नहीं देंगी ,और न ही वो तरीका अपनाएंगी जो अरुंधती जैसे लोग अपनाते हैं उनकी नेता कोई है तो शर्मीला है सिर्फ शर्मीला ,उनके लिए पल -पल मरती हुई |अब तक देश में जितने भी जनांदोलन हुए हैं ,लोगों ने जीते हुए किये हैं ,किसी ने मरते हुए कोई आन्दोलन नहीं किया ,इस एक बातसे शर्मीला का सत्याग्रह गांधी से भी महान हो जाता है ,मगर अफ़सोस है कि गोरों को तो गाँधी का सत्याग्रह झुकने पर मजबूर कर देता था ,लेकिन अपने देश में अपनी ही सरकार शर्मीला के इस सत्याग्रह पर ख़ामोशी से बैठकर तमाशा देखती रहती है ,और अलगाववाद के संभावित खतरे की दुदंभी बजा करके आफ्प्सा की धार और पैनी करती रहती है |
बाबा रामदेव के स्वास्थ्य की पल-पल खबर मिडिया में प्रसारित हो रही थी. उनके स्वास्थ्य बुलेटिन जारी किए जा रहे थे. सिर्फ नौ दिन के उपवास में उनके अंग-प्रत्यंगों पर होने वाले दुष्प्रभावों की चर्चा की जा रही थी. १० साल के उपवास से ,शर्मीला के लीवर-किडनी-ह्रदय पर क्या असर हुआ है…इस से किसी को सरोकार नहीं. इसलिए कि वो एक आम इंसान हैं?? यानि कि किसी आम इंसान को अपनी आवाज़ उठाने का कोई हक़ नहीं??
बहुत मुमकिन है इन दिनों बीमार चल रही शर्मिला की साँसें कभी किसी वक्त थम जाए ,कमोजर पड़ती जा रही उसकी हड्डियों को ढंकी त्वचा अब थकने लगी हैं ,शिराओं से होकर गुजरने वाले रक्त की रफ़्तार अब धीमी पद रही है ये बात दीगर है कि शर्मीला फिर भी मुस्कुरा रही है |ईश्वर न करे अगर शर्मीला को कुछ हुआ तो आने वाली पीढ़ी और मानवता शायद ही हम आम हिन्दुस्तानियों को कभी माफ़ कर पाए ,सत्ता अपना चरित्र नहीं छोड़ सकती ये तय है |सिर्फ अख़बारों में पैसे देकर महापुरुषों के नाम पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर देने और पुण्य तिथियाँ मनाकर खुद को राष्ट्रवादी साबित करने वाले हम आप गाँधी ,भगत सिंह ,चन्द्र शेखर और न जाने कितनो को खो चुके हैं ,अगर सत्ता का चरित्र जन -विरोधी है तो उसके खिलाफ संघर्ष कर रहे जननायकों के आवाज में आवाज मिलाना ही सच्ची देशभक्ति है अब इसमें हमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि मणिपुर समेत समूचे उत्तर -पूर्व में लोकतंत्र का जो स्वरुप में है वो पूरी तरह से जन ,जमीन और जंगल विरोधी है.
जनर्लिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस)
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